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-दलबीर चेतन

गाड़ी चलने से पहले, सिमरत ने बीजी के पैर छूकर आशीर्वाद लिया। भाई को गले लगाया और भाभी के जुड़े हुए हाथों को अपने हाथ में लेकर हल्के से दबा दिया। विदा करने आए दोस्तों को मिलने लगा तो बीजी ने बहुत धीमे और उदास स्वर में कहा, “यह रिश्ते पैदा करने वाली तो नहीं रही पर सिमरत एक व्यक्‍ति‍ के न रहने से संबंध तो टूट नहीं जाते, जब भी इधर आना हो मिलने ज़रूर आना।” सिमरत बीजी के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित था। वह भी उसी की तरह भावुक प्रकृति की थी। इसलिए वह नहीं चाहता था कि कोई ऐसी बात हो जाए जिससे वह तरल पदार्थ की तरह प्लेटफार्म पर बह जाएं।

सिमरत को विदा करने आए दोस्तों के समूह में खड़ा सुरेन्द्र ही ऐसा दोस्त था जो सिमरत के स्वभाव से वाकिफ़ था। कभी हार न मानने वाला सिमरत सिंह संधू, जिसे सभी एयर फोर्स वाले ‘ट्रिपल एस’ कह कर पुकारते थे अकसर उस के कंधे पर सिर टिकाते हुए कह दिया करता था कि छिन्दे मुझे सम्भाल ले, मैं बहुत थक गया हूँ। सुरेन्द्र जवाब में कहता, “ट्रिपल एस, तुम्हें पता है कि तुम खुद कितने लोगों का सहारा तथा आश्रय हो?” जवाब में सिमरत ने कहा, “मैं जानता हूँ, पर मुझे भी तो सहारा चाहिए, सबसे दृढ़ और ऊंचे कंधे का सहारा। कहते हैं कि बाज़ जब घायल हो जाता है तो वह पेड़ की शीर्ष टहनी पर बैठता है ताकि कोई उस के घाव न देख पाए- मेरे लिए सबसे ऊंची टहनी तुम्हारा कंधा ही है छिन्दे, जिस पर सिर टिका कर मैं रो भी सकता हूँ।”

बीजी के शब्दों को सुनकर, उसने अश्रुपूर्ण आंखें लिए हुए, अपना सिर सुरेन्द्र के कंधे पर टिका दिया जिस से उसे ऐसा आभास हुआ कि जैसे मन के भीतर उठ रहे चक्रवात तथा ज्वारभाटा का वेग कुछ शांत हो गया हो।

सभी दोस्तों से मिलने के पश्‍चात् वह चलती गाड़ी में भाग कर चढ़ा। दरवाज़े में खड़े हो कर उसने सभी पर एक भरपूर निगाह डालते हुए हाथ हिलाया।

सुरेन्द्र ने भावुक होकर गाड़ी की रफ़्तार के साथ कदम मिलाते हुए सिमरत के हाथों को एक बार फिर छुआ और प्लेटफार्म के अन्तिम छोर तक तेज़ गाड़ी के साथ दौड़ते हुए कहता रहा, “देख, हौसला देने वाले का अपना हौसला भी बुलंद होना चाहिए। पेड़ के शिखर पर बैठे ज़ख़मी बाज़ को कहीं उड़ती हुई चील ने देख लिया तो क्या सोचेगी वह?”

प्लेटफार्म ख़त्म हो चुका था। सुरेन्द्र की बात सुनकर सिमरत मुस्कुराया और प्रत्युत्तर में उसने अपना हाथ इतने विश्‍वास के साथ हिलाया कि सुरेन्द्र की भरी हुई आंखें भी मुस्कुरा उठीं।

सिमरत बड़े भारी मन से अपनी आरक्षित सीट पर आ बैठा। खिड़की के साथ सिर टिका कर बाहर पांव पसार रहे अंधेरे को एक टक देखता रहा। बेशक वह अपने घर के नज़दीक जा रहा था पर घर के नज़दीक जाने की खुशी से, बिछुड़ने का ग़म कहीं अधिक गहरा था।

“कहां जा रहे हो सरदार जी?” सिमरत ने बाहर से नज़र हटाकर अपनी सीट की ओर देखा। एक अधेड़ उम्र के बहुत प्रभावशाली व्यक्‍तित्व वाले बाऊ जी सिमरत से मुख़ातिब होते हुए पूछ रहे थे।

“जी … जी मैं यहां से स्थानांतरित होकर दिल्ली जा रहा हूँ।”

“बहुत खुशकिस्मत हो बरखुरदार, ज़्यादातर तो गाड़ी चढ़ाने आए संगी साथी इस जल्दी में होते हैं कि कब गाड़ी चले और उन्हें छुट्टी मिले पर मैंने देखा कि तुम्हारे दोस्त जहां तक निभा सकते थे उन्होंने तुम्हारा साथ निभाया।” सिमरत ने गर्व से आंखें मूंद लीं। आंखें खोली तो बाऊ जी चेहरे की ओर एकटक देख रहे थे। उसने मुस्कुरा कर कहा, “हां, इस दृष्‍ट‍िकोण से मैं सचमुच बहुत खुशकिस्मत हूँ।” परन्तु साथ ही गहरी सांस लेते हुए, अपनी आह को दबाते हुए, सोचने लगा, “मेरी खुशकिस्मती और बदकिस्मती कितनी पास-पास हैं। इतने कम समय में बाज़ी जीतकर हार भी दी और आज…? वाह हैदराबाद!” उसने एक लम्बी आह भरी, “तुम कितने दयालु हो और कंजूस भी … कुछ भी उधार नहीं रखते। बस एक हाथ देकर दूसरे से ले लिया सब कुछ।”

“सरदार जी, आप कब से रह रहे थे यहां?” बाऊ जी ने अत्यधिक उत्सुकता से पूछा।

“… जी, मैंने तीन सालों से भी अधिक समय यहां बिताया है।”

“कमाल की बात है, कभी किसी अवसर पर भेंट ही नहीं हुई?” उन्होंने आश्‍चर्यचकित होकर कहा और फिर स्वयं ही कहने लगे, “और यह भी कमाल है कि आज गाड़ी में हमसफ़र बन गए।” वह मुस्कुराए।

“सर, दरअसल हम डिफ़ेन्स वालों की ज़िंदगी ही कुछ इस तरह की है कि लोगों से बहुत ज़्यादा मेल-जोल नहीं हो पाता पर लगता है कि आप यहां काफ़ी समय से रह रहे हैं?”

“हां…आं।” उसने अपनी ‘हां’ को जैसे अपनी उम्र जितना ही लम्बा खींच लिया, “मैंने अपनी आधी से ज़्यादा ज़िंदगी यहीं गुज़ारी है। पंजाबियों के प्रत्येक कार्यक्रम पर विशेष तौर पर जाता हूँ। व्यक्‍ति अपनी जड़ों से टूटकर मृतप्राय हो जाता है और मैं इस तरह मरना नहीं चाहता।” उस्मानिया यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी का प्रोफैसर हूँ। परन्तु मेरे बारे में आमतौर पर कहा जाता है कि मैं अंग्रेज़ी के माध्यम से विद्यार्थियों को पंजाब तथा पंजाबी पढ़ा रहा हूँ।… क्या करूं? न कभी पंजाब मन से निकल सका है और न ही पंजाबी।”

सिमरत ने बड़े गौर से बाऊ जी की ओर देखा, सिर पर अधपके बाल, गौरवर्ण गोल चेहरा, तीखे नाक नक्श और लम्बा पतला शरीर। अपने बारे में बता कर उन्होंने सिमरत से पूछा, “तुम यहां मिल्ट्री में .. ?”

“जी नहीं, मैं एयर फोर्स का फाइटर पायलट हूं पर थोड़ी बहुत दिलचस्पी साहित्य में भी रखता हूं।”

“यह तो बहुत बढ़िया बात है” बुज़ुर्ग बाऊ जी जैसे खिल उठे, “साहित्य के बिना जो लोग जीते हैं, मुझे तो लगता है जैसे वे झूठा जीवन जी रहे हों।”

बाऊ जी कितनी स्पष्‍टता से बात करते हैं। सिमरत लगातार उनके चेहरे की ओर देखते हुए सोच रहा था।

वह अपनी बात पूरी करके कुछ देर रुक कर फिर सिमरत से पूछते हैं, “गाड़ी चलने से पहले जिनके तुमने पैर छुए थे- वह तुम्हारे कोई रिश्तेदार हैं क्या?”

सिमरत काफ़ी देर चुप रह कर धीमे स्वर में कहता है, “बस कुछ दिनों की सांझ थी इनके साथ।”

“साथ में खड़ा नौजवान तो शायद बेटा होगा उनका,” बाऊ जी ने जैसे अपना अंदाज़ा ठीक होने के बारे में पूछा हो।

“जी हां, साथ में खड़ी नौजवान औरत उसकी बीवी थी। दोनों डॉक्टर हैं और यहां अपना क्लीनिक चला रहे हैं।”

“बहुत बड़ी त्रासदी घटी है इनके साथ भी।” बाऊ जी के मुंह से यह सुनकर सिमरत हक्का–बक्का सा रह गया, “आप भी जानते हैं इन्हें?”

“हां” उन्होंने बहुत धीमे स्वर में कहा पर सिमरत को लगा जैसे ‘हां’ कहते हुए उनके माथे में कोई दुखती रग उभर आई हो।

“तुम्हें भी मालूम ही होगा कि उस औरत की एक जवान बेटी भी थी। बहुत ही हसीन और ज़हीन। यूनीवर्सिटी में मेरी स्टूडैंट थी। वैसे वह मेरे लिए बेटी समान थी। क्लास के बाहर वह मुझे अब्बा कह कर बुलाया करती थी। क्लास में सबसे बुद्धिमान व अधिक योग्य विद्यार्थी थी वह। पंजाबी में बहुत अच्छी कविता लिखती थी। पता नहीं इतने अच्छे लोगों का जीवन इतना छोटा क्यों होता है?” बाऊ जी स्मृतियों से एकसुर हुए सब कुछ बताए जा रहे थे। सिमरत की सिसकियों की आवाज़ ने उनकी एकसुरता को भंग कर दिया। रोकने की कोशिश करने के बावजूद उसकी आंखों से आंसू बहने लगे।

“क्या बात है बेटा?”

सिमरत ने कुछ कहना चाहा पर उस से बोला नहीं गया। बाऊ जी ने जैसे बिना कुछ कहे ही सब कुछ समझ लिया। 

“माई गॉड, इतनी वसीह ज़िंदगी कई बार कितनी छोटी हो जाती है। एक गाड़ी के डिब्बे से भी छोटी।”

बाऊ जी कह रहे थे तथा सिमरत सोच रहा था कि सुखजीत ने कितना कमज़ोर कर दिया है मुझे कि किसी अनजान के सामने भी मैं बच्चों की तरह रो उठा हूं।

“आप प्रोफैसर मेहता साहिब हैं ना … श्री वेद मेहता?”

“हां … आं।” वेद मेहता ने सिर हिलाया।

“सुखजीत आपके बारे में मेरे साथ बहुत बातें किया करती थी। वह मुझे आपसे मिलवाना भी चाहती थी। जिस दिन दुर्घटना में उसकी मौत हुई उस दिन आपकी क्लास पिकनिक पर जा रही थी। उस ने मुझे सुबह ही फ़ोन किया, “आज हमारी क्लास नेहरू जिऑलोजिकल गार्डन जा रही है। फटाफट तैयार हो जाओ, वहां मैं तुम्हें अपने प्रोफैसर मेहता के साथ मिलवाऊंगी।” मेरे ना-ना करने पर भी उस ने आदेश देने के लहज़े में कहा, “तुम बस तैयार रहना मैं तुम्हें ‘पिक-अप’ कर लूंगी।” मेरे साथ बोले उस के यह अन्तिम शब्द थे। मैं इन्तज़ार करता रहा पर मेरे पास आने से पहले ही उसे मौत ने ‘पिक-अप’ कर लिया। कई बार मुझे लगता है कि उस की मौत का कारण मैं हूँ – अगर वो मेरी ओर न आती तो शायद यह अनहोनी न होती।” सिमरत बताते-बताते और भी उदास हो गया।

वेद मेहता उससे भी अधिक उदास लग रहे थे। लेकिन उन्होंने सिर्फ़ इतना ही कहा, “अपने आप को दोषी मत समझो बेटा, नियति को टाला नहीं जा सकता।” मेहता ने सिमरत का कन्धा थपथपाया और फिर कुछ देर रुक कर कहने लगे, “हां, वह तुम्हारी बातें भी मेरे साथ किया करती थी। कभी-कभार तुम्हारा नाम भी लिया करती थी मेरे सामने।” वेद मेहता ने अपनी स्मृति पर ज़ोर देते हुए नाम याद करने की कोशिश करते हुए कहा, “पर अब याद नहीं आ रहा।” “मेरा नाम सिमरत सिंह संधू है, पर सुखजीत मुझे ‘ट्रिपल एस’ ही कहा करती थी। मैंने अपने हैलमेट पर ऐसा ही लिखा लिया और फिर मुझे सब ‘ट्रिपल’ एस ही कहने लगे।”

सिमरत बाऊ जी के साथ बातें करते-करते जैसे किसी गहरी गुफा में उतर गया था। उसे याद आया कि एक बार वह और सुखजीत सलार जंग म्यूज़ियम देख रहे थे कि वहां उन्हें एक नव-विवाहित पंजाबी जोड़ा मिल गया। उनके पास कैमरा भी था और वे एक दूसरे की तसवीरें खींच रहे थे। पर वे दोनों शायद कुछ तसवीरें इक्ट्ठे भी खिंचवाना चाहते थे। शायद सभ्याचारिक सांझ के कारण उन्होंने इस उद्देश्य के लिए सिमरत से विनती की थी। सिमरत ने बहुत रोमांटिक अंदाज़ में उनकी कुछ तसवीरें खींची।

तसवीरें लेते हुए वह खुद भी कुछ रोमांटिक सा हो गया था। उसने सुखजीत से कहा, “फिर हमने फोर एस कब बनना है?”

“क्‍ … या?”

पता नहीं प्रत्येक बात समझने वाली सुखजीत सचमुच ही नहीं समझी थी या शायद सिमरत द्वारा ही समझना चाहती थी।

सिमरत ने धीमे से उस के कान में कहा था, “सुखजीत सिमरत सिंह संधू।” वह यह सुनकर कितनी ही देर तक हँसती रही फिर कहने लगी,

“मुझे यह नाम बहुत प्यारा लगा। ‘ट्रिपल एस’, और फिर ‘फोर एस’ अरे वाह एक कदम और आगे की बात।”

सिमरत ने ही सुखजीत को बताया था कि बचपन में वह जिस स्कूल में पढ़ा था उसका नाम भी ‘फोर एस’ है।

वह सुन कर और भी ज़ोर-ज़ोर से हँसी थी, “वाह, मेरे हुज़ूर, फिर कहीं यह ताना न मार देना कि एक ‘फोर एस’ की कैद से छूट कर दूसरी ‘फोर एस’ की कैद में आन पड़ा हूँ।’’

वे दिन ही हँसने खेलने के थे और वे दोनों हँसते ही रहे थे।

“बहुत अच्छी नज़म लिखती थी सुखजीत।” मेहता साहिब के शब्द सुनकर सिमरत फिर धरती पर वापिस लौट आया। “एक उसकी नज़म थी ‘बेनाम रिश्ता’। हो सकता है उसने वह तुम्हारे लिए ही लिखी हो। मुझे यह नज़म इतनी ज़्यादा पसंद थी कि मैंने इसका अनुवाद अंग्रेज़ी में भी किया।”

उनकी बातें सुनता हुआ वह सोच रहा था, “सिमरत सिंह तू कहां जाएगा भागकर? तुमने तो सोचा था कि जिस हैदराबाद के चप्पे-चप्पे से सुखजीत की यादें जुड़ी हैं शायद उससे दूर जाने पर उनसे मुक्‍त हुआ जा सके। पर तुम्हें तो राही भी उसके परिचित मिल जाते हैं।”

काफ़ी रात हो चुकी थी। सिमरत के पास ‘पैक्ड डिनर’ था। वह सोच ही रहा था कि मेहता साहिब को खाने के लिए कहे पर उससे पहले ही वे बोल उठे, “सिमरत बेटे, मैं इस समय ड्रिंक ज़रूर लेता हूं – तुम मेरा साथ दोगे?”

“जी नहीं, मैं पीता नहीं।”

“बहुत अच्छा, मैं छोटे-छोटे दो पैग लूंगा। उसके बाद दोनों इक्ट्ठे खाना खाएंगे।” फिर वह कुछ देर रुक कर बोले, “मैं भी बहुत नफ़रत करता था दारू से, पर बेटे, वे जवानी के दिन थे, वे दिन तो आदमी यादों और आदर्शवाद के सहारे काट लेता है पर इस ढलती उम्र में मैंने न जाने क्यों शराब को अपना सहारा बना लिया है। पर मुझे बहुत खुशी है कि तुम इस राह पर नहीं चले और कभी चलना भी न। यही बहादुरी है। कई बार ऐसी घटनाओं के बाद आदमी तनावग्रस्त होकर अपने मार्ग से विचलित हो जाता है और भटका हुआ आदमी चाहे बाहरी रूप में सही सलामत नज़र आए, पर वास्तव में होता नहीं।”

मेहता के पास गिलास भी था और थर्मस में ठण्डा सोडा भी। उन्होंने खुद ही छोटा-सा पैग बनाया और फिर गिलास को सोडे से भर लिया। “अच्छा बेटे।” वह गिलास को अपने माथे से छूकर घूंट भरते हैं। धीरे-धीरे चुस्कियां लेते, वह साथ-साथ बातें भी किये जा रहे हैं, “उदासी में भी बहुत शक्‍ति होती है बेटा। पर इसके प्रवाह का रुख सदैव ऊर्ध्वगामी होना चाहिए। पतनोन्मुख उदासी व्यक्‍ति को कहीं का नहीं छोड़ती।

“मेहता साहिब, मैं इस हादसे के बाद उदास तो बहुत हुआ था पर निराश नहीं। हांफ गया था पर हारा नहीं। धीरे-धीरे सम्भल रहा हूं। वैसे सुखजीत जैसे साथी को गंवा कर संभलना कोई आसान भी नहीं।”

“मैं तुम्हारे साथ सहमत हूं सिमरत, पर किसी की यादों के सहारे ज़िंदगी तो नहीं बिताई जा सकती। उससे जुड़ी यादों की समूची शक्‍ति को अपने भीतर समेट कर अपना सफ़र जारी रखो।”

गाड़ी की खड़खड़ से लगता था कि कोई स्टेशन आने वाला है। वेद मेहता ने जल्दी-जल्दी अपना पैग ख़त्म किया, “वैसे तो सिमरत मैंने कभी भी एक घंटे से पहले अपना पैग ख़त्म नहीं किया, इस समय को मैं पूरी तरह अपने लिए जीता हूं। यह मेरे लिए पढ़ने का समय होता है या सोचने का। कई बार तो मैं अपने बारे में ही सोचता रहता हूं मेरे लिए स्व से बढ़कर कोई चीज़ नहीं।”

स्टेशन पर गाड़ी रुकी। चारों ओर शोर ही शोर। सवारियों की भाग-दौड़। डिब्बों में दाख़िल होने की जल्दी। मेहता सिमरत से पूछ रहा था, “सिमरत तुम्हें भूख तो नहीं लगी? … अगर नहीं लगी तो तुम मेरे साथ कोल्ड ड्रिंक ज़रूर लो। इस तरह इक्ट्ठे ‘सिप’ लेने का अपना ही एक आनंद है।”

मेहता ने आवाज़ देकर बेचने वाले से एक कोक पकड़ लिया। और अपने लिए दूसरा पैग बना लिया।

“गिले-शिकवे कमज़ोर आदमी के लक्षण हैं, ज़िन्दगी को ज़िन्दादिली से जीना ही वास्तविक बहादुरी है। हम यदि किसी का बोझ बंटा नहीं सकते तो हमें अपनी ज़िन्दगी बोझ लगने लग जाएगी। इस लिए किसी के काम आकर हम किसी पर एहसान नहीं कर रहे होते बल्कि खुद को बोझिल होने से बचा रहे होते हैं।”

सिमरत को मेहता की बातें ढाढ़स दे रही थीं। वह महसूस कर रहा था कि सुखजीत पर मेहता साहिब का बहुत अधिक प्रभाव था। कई बातें तो हू-बहू वह सुखजीत के मुंह से पहले ही सुन चुका था।

सुखजीत की याद आते ही वह उसके बारे में सोचने लगा। सुखजीत सचमुच एक शक्‍ति का नाम था। जब नए-नए मिले थे तो एक बार कहने लगी, “मुहब्बत एक सकारात्मक शक्‍ति है, मिलने के बाद यदि तुम पहले से अधिक कुशल पायलट न बने और मैं योग्य विद्यार्थी सिद्ध न हुई तो समझना चाहिए कि हमारी मुहब्बत में कोई कमी है। मिलने के लिए यूं ही बेचैन हो कर तड़पते नहीं रहना पर जब भी हम मिलें, ऐसे लगे जैसे एक दूसरे से मिलकर हम द्विगुणित हो गए हैं।”

और हुआ भी ठीक ऐसे ही। दिन प्रतिदिन वह अपने क्षेत्र में और अधिक कुशल होते चले गए। सिमरत सोच रहा था कि यह परिवर्तन तो आया ही था। उसके संगी साथी एक और बात पर बहुत हैरान थे। अब तक उन्होंने सिमरत को सिर्फ़ सफ़ेद कपड़ों में ही देखा था। सफ़ेद पैंट, सफ़ेद कमीज़, अगर उसके पहरावे में कुछ बदलता था तो सिर्फ़ उसकी पगड़ी।

एक दिन उसे सुखजीत का फ़ोन आया था, “मेरे हुज़ूर, आज शाम को हर हालत में मिलना है – समझे?” उसने भी कह दिया, “ज़रूर मिलेंगे मेरे हुुज़ूर।” दरअसल उन दिनों में ‘मेरे हुज़ूर’ फ़िल्म उन दोनों ने इक्ट्ठे ही देखी थी और उस के बाद वह काफ़ी दिनों तक एक दूसरे को मेरे हुज़ूर ही कहते रहे थे। जब मिली तो कहने लगी, “मैंने आज एक मर्दाना कमीज़ खरीदनी थी, सोचा क्यों न तुम्हारी सेवायें ली जाएं?”

उन्होंने इस काम के लिए पैराडाइज़ नाम की एक बहुत बड़ी दुकान को चुना।

वह रैडीमेड कमीज़ें देखते-देखते सिमरत की पसंद भी पूछती रही। वह सिर्फ़ सफ़ेद कमीज़ पर ही हाथ रखता था पर उसकी पसंद के विपरीत, उसने एक रंगदार कमीज़ पसंद की। हल्के क्रीम रंग पर बारीक चैक। दूर से देखने पर कमीज़ क्रीम रंग का ही प्रभाव देती थी।

कमीज़ खरीद कर बाहर निकले तो कहने लगी, “आज तो ‘अल्फा’ में कॉफी पीने का मन हो रहा है।”

सिमरत ने जब अपने मोटर साईकिल को किक लगाई तो सुखजीत ने कहा, “इसे यहीं कहीं पार्क कर दो। आज तो धीरे-धीरे चलते हुए तुम्हारे साथ छोटी-छोटी बातें करने का मन हो रहा है, जो कभी ख़त्म नहीं होती।”

वे धीरे-धीरे चलते हुए बातें करते रहे। ऐसे लगता था कि जैसे वह बादलों की तरह धरती पर उड़ते-उड़ते रिमझिम-रिमझिम हो रहे हों।

अल्फा रैस्टोरेंट में पहुंच कर कॉफी का ऑर्डर देते हुए सुखजीत ने वेटर से कहा, “वो केक भी ले आना।” वेटर मुस्कुरा कर आदेश का पालन करते हुए कॉफी के साथ छोटा-सा केक भी ले आया। वह देख कर हैरान रह गया था। केक पर क्रीम के साथ ट्रिपल एस उकेरा गया था। वह बोली, “मेरे हुज़ूर शायद आप को याद न हो, पर आज तुम्हारा जन्मदिन है और यह कमीज़ इस मुबारक दिन पर मेरी ओर से तुम्हारे लिए।”

सिमरत ने जन्मदिन वग़ैरह कभी याद रखने की कोशिश ही नहीं की थी। पर सुखजीत का यह सब करना उसे अच्छा लगा। कमीज़ पकड़ते हुए उसने कहा, “सुख, तेरा शुक्रिया, पर तुम्हें तो पता है कि मैं रंगदार कमीज़ पसंद नहीं करता।”

“मुझे तो पता है मेरे हुज़ूर पर तुम्हें क्यों नहीं पता कि मैं तुम्हारी सफ़ेद कमीज़ें देख-देख कर तंग आ गई हूँ। ज़िन्दगी में सादगी के साथ-साथ थोड़ी बहुत रंगीनी भी तो होनी चाहिए।”

“सिमरत बेटे।” वह मेहता साहिब की आवाज़ सुन कर चौंक गया। उसने अब भी वही कमीज़ पहनी हुई थी। उसने कमीज़ को हाथ से सहलाते हुए एक तसल्ली-सी महसूस की।

“मैं तुम्हारे साथ बहुत-सी बातें करना चाहता हूं।” मेहता साहिब कुछ देर रुक कर बोले, “कभी भी उनका इन्तज़ार न करना जिन्होंने कभी लौट कर न आना हो और कभी भी उन चीज़ों के लिए न रोना जो तुम्हारे लिए रो न सकती हों।” सिमरत को पता था कि वेद मेहता साहिब अपनी ज़िंदगी के पन्ने उसके सामने झिझकते-झिझकते पलट रहे थे। पर वह तो सब कुछ जानता था कि वह किस तरह ज़िंदगी के हाथों शिकस्त खाकर भी ज़िंदगी से बेमुख नहीं हुए थे।

सिमरत, मेहता साहिब के बारे में सब कुछ जानता था, पर उनकी ज़ुबानी जानने के लिए उसने कई बार कोशिश की थी पर मेहता साहिब ने अपने अतीत को न जाने किस ओढ़ाव से ढांप रखा था कि उसकी एक झलक भी नहीं दिखाई दी थी। सिमरत ने एक बार फिर कोशिश की, “सर, आपका परिवार कहां रहता है?”

मेहता साहिब ने मुस्कुरा कर कहा, “बस भई यह एक अकेली ज़िंदगी तुम्हारे सामने है। पाकिस्तान से उजड़ कर आए तो कभी कहीं और कभी कहीं भटकते रहे। मेरे पिता जी वैसे भी मुझे ‘उचटपैंड़ा’ कहा करते थे और सचमुच सारी ज़िंदगी मेरे पांव कहीं भी नहीं लगे।” वह बात करके मुस्कुरा दिये और फिर धीरे-धीरे गुनगुनाने लगे, “ज़िन्दगी ने जब भी छुआ फ़ासला रख कर छुआ।”

और फिर वह अपने आप में गुम हो गए पता नहीं वह बीते हुए किन पलों में उलझ गए थे। ऐसी चुप्पी का अर्थ बहुत बार अंदर उठ रहा कोई कोहराम ही होता है। सिमरत को लग रहा था जैसे वह अपने भीतर उतर कर किसी खोई हुई चीज़ की तालाश कर रहे हों या शायद सोच रहे हों कि तुझे कैसे बताऊं बरखुरदार कि मैंने भी किसी के साथ मिलकर ज़िंदगी जीने के सपने लिए थे पर उनकी तामीर नहीं हो सकी। उसके पिता ने किसी दूसरे लड़के को पसंद कर लिया था। वह उस समय फ़ौज में कैप्टन था और मैं फाकाहारी बना उचटपैंड़ी ज़िंदगी जी रहा था। मुझे पता लगा तो मैंने चुपचाप अपने आप को सबसे तोड़ लिया। अमृतसर को फतेह बुलाई और दिल्ली चला गया।

सिमरत को चुप्पी बोझिल लगने लगी। उसने चुप्पी के पानी में एक और पत्थर फेंका, “सर, आपने पढ़ाई कहां से की?”

वेद मेहता चौंके। अपने आपको संयत करते हुए कहने लगे, “हां बरखुरदार, बी.ए. तक मैं अमृतसर में ही पढ़ा हूं। एम.ए. दिल्ली से की पर ज़्यादा दाना-पानी शायद हैदराबाद का ही लिखा था। अब तो जवानी से बुढ़ापा आ गया है यहां रहते हुए।”

“सुखजीत का परिवार भी यहां काफ़ी देर से रह रहा था। कभी मुलाक़ात नहीं हुई?”

सवाल पूछ कर सिमरत ने सोचा मेहता साहिब ज़रूर सोच रहे होंगे कि ज़िन्दगी भी कितने इम्तिहान लेती है पर उन्होंने बहुत ही संयत स्वर में कहा, “हां सुखजीत की मौत के बाद, उसकी एक सहेली से पता पूछ कर उनके घर अफ़सोस के लिए गया था।” संक्षिप्‍त सा उत्तर देकर मेहता साहिब जैसे बहुत आसानी से आग का दरिया पार कर गए। पर सिमरत आग के उन घूंटों के बारे में भी जानता था जो उन्होंने उस दिन भरे थे।

वे हक्के-बक्के ही रह गए थे एक दूसरे को देख कर। एक मुद्दत के बाद वे एक दूसरे के सामने आए थे। उन्हें लग रहा था जैसे कभी बाढ़ के पानी में बह गया सबकुछ किसी भंवर के घेरे में आकर फिर से उनके सामने आ गया हो। उस दिन जसबीर अकेली, बेहद उदास बैठी थी। धीरे-धीरे बोली, “तुम्हें भी मेरे दुःख में शामिल होना पड़ा वेद।”

“मैंने तो पहले भी चाहा था, सुखजीत की बातों से जान लिया था कि वह तुम्हारी बेटी है पर पुराने ज़ख़्मों को कुरेदने का हौसला नहीं था। अब यह दुःख ही ऐसा था कि मुझ अकेले से झेला ही नहीं गया।” उन्होंने एक आह भरी। “मुझे भी पता लग गया था कि सुखजीत के प्रोफैसर वेद मेहता, तुम ही हो। पहले सुखजीत की बातों से भी अंदाज़ा लगाती रहती थी, फिर उसकी क्लास की तस्वीर देखी तो सब कुछ स्पष्‍ट हो गया। सोचा, हम एक दूसरे से बिछुड़ कर भी दूर क्यों नहीं हो सके? पति की मौत के बाद ही संभलना मुश्किल था वेद, पर सुखजीत तो मुंह के बल गिरा गई।” उसने एक लम्बा सांस लिया, “आज तुम आए हो, मुझे बहुत ढाढ़स मिला है। पता नहीं क्यों मैं हर दुःख में तुम्हें याद करती रही हूं और इससे मुझे सचमुच ही हमेशा बहुत श्‍ाक्‍त‍ि मिलती रही है।” वेद ने रुंधे गले से, मुस्कुराते हुए कहा, “शुक्र है, तुम ने मुझे दुःख में तो याद रखा।”

“बात यह नहीं है वेद, तुम सुख के समय में भी कभी नहीं भूले थे पर सुख शायद अकेले जिया जा सकता था, इस लिए जी लेती थी पर दुःख तुम्हारे बग़ैर न जिया जाता था और न ही बर्दाशत किया जाता था। जब कर्नल साहिब पैंसठ की लड़ाई में मारे गए तो मेरे लिए यह दुःख झेलना बहुत मुश्किल था। मैंने चाहा भी कि पुराने दोस्तों से तुम्हारा पता पूछूं पर फिर पता नहीं कौन सी शक्‍ति बीच में आ खड़ी हुई। मैंने सोचा इतने समय बाद मैं तुम्हें सिर्फ़ अपने दुःख के समय ही क्यों पुकारूं? अब मेरे पास तुम्हारा पूरा पता भी था पर फिर मन में आया कि जिस के बिना ज़िन्दगी काट दी उसके बिना दुःख भी काट कर देख, पर शुक्र है तुम खुद चलकर आ गए हो, तुम्हारे ढाढ़स बंधाने से मैं नए सिरे से दुःख सहने के काबिल हो जाऊंगी, वेद।”

सिमरत का मन था कि मेहता साहिब उसके साथ खुलकर कोई बात करें पर वह अतीत के पानी में इतना गहरा उतर जाते थे कि फिर वापिस लौटने का नाम ही नहीं लेते थे। सिमरत ने खामोशी तोड़ने के लिए पूछा, “मेहता साहिब, आपने इतनी लम्बी उम्र अकेले कैसे गुज़ार दी?”

वे कुछ देर चुप रहे और फिर मुस्कुरा कर बोले, “बस किसी एक को गंवा कर फिर ढूंढने की कोशिश ही नहीं की। असल में जो हमारे साथ घटित होता है, उस को नियति समझ कर हम अपनी शक्‍ति बढ़ा लेते हैं पर वास्तव में बहुत कुछ गंवा बैठते हैं। अब महसूस करता हूं कि सूरज से इश्क करना बहुत बढ़िया बात है, पर सूरज की ग़ैर मौजूदगी में दीया जलाना भी बहुत ज़रूरी है वास्तव में मैं उन लोगों में से हूं सिमरत, जो एक मोर्चे पर हार कर समझने लगते हैं कि जैसे उन्होंने ज़िन्दगी की जंग हार दी हो पर जंग तो हमेशा जारी रहती है सिमरत बेटे।”

“मैं आपसे बहुत कुछ सीख रहा हूं।”

“सिमरत, सिर्फ़ सीखना ही नहीं, जीना भी है। कुछ लोग सारी उम्र सीखते ही रहते हैं पर जीते नहीं, मैं भी उनमें से एक हूं, दरअसल आदमी एक बहुत बड़ी ताकत है पर उस में यह ताकत तब तक बनी रहती है जब तक कि वह ज़िन्दगी को निर्देश दे सकता है। जब वह उस से निर्देश लेने लगता है तो बेचारा बहुत पालतू बन जाता है। वेद बातें करते हुए साथ में सिप भी लेता रहा। अपनी बात समाप्‍त कर उसने आख़िरी घूंट भरा और आंखें बन्द कर ली। सिमरत को लगा जैसे कोई महातपस्वी दो एक क्षण के लिए प्रवचन करके फिर से समाधि में लीन हो गया हो।”

सिमरत वेद मेहता की पीड़ा को समझता है, इस लिए सोचता है कितनी अथाह सहनशीलता है इस व्यक्‍ति में।

दरअसल सुखजीत की मां को जब सिमरत आख़िरी बार मिलने गया तो वह बहुत ही उदास और चिन्तित थी। सिमरत को उन्होंने बहुत प्यार किया और फिर उसका माथा चूमकर कहने लगी, “बेटे, जिस भेद को मैं सारी उम्र अपने होंठों तक नहीं लाई, आज तुम्हारे साथ तुम्हारी ख़ातिर ही सांझा करना चाहती हूं।” सिमरत उनकी बात सुनकर बहुत हैरान हुआ था। फिर वह धीरे-धीरे बोली, “मैंने भी अपनी सारी उम्र की सांसे किसी एक के साथ जोड़ ली थी पर हुआ ऐसा कि सारी उम्र उसके बिना गुज़ारनी पड़ी। यह बहुत कठिन था पर शायद इतना मुश्किल न लगता अगर वह मेरे साथ कोई गिला शिकवा करता पर उसने तो एक चुप ही साध ली। मैं उसके भले बुरे कहे का जवाब तो दे सकती थी पर उसकी खामोशी का क्या जवाब देती? और इससे भी बड़ी सज़ा यह कि यह पता होने के बावजूद कि मैं उसके जीवन में दुबारा नहीं आ सकती वह मेरा इन्तज़ार करता रहा और इस तरह मुझे मेरी ही नज़रों में एक गुनहगार बना दिया। मुझे यह बोझ सारी उम्र ढोना पड़ा। अब तुम भी कोई ऐसा फ़ैसला करके मेरे अंतिम दिनों को और ज़्यादा बोझिल न बना देना।” वह बोलते-बोलते रुक गई। सिमरत को लग रहा था कि जैसे उसकी आवाज़ आंसुओं से रुंध गई हो। वह अपना स्वर संयत करते हुए फिर से कहने लगी, “देखो इत्तफ़ाक़ कि अपनी सुखजीत ही उनकी स्टुडेन्ट बनी और फिर उन्होंने अपने आप ही बाप बेटी का रिश्ता बना लिया। जब सुखजीत मेरे साथ वेद की बातें करती तो मैं भावुक होकर कई बार सोचती कि सुखजीत को सबकुछ बता दूं पर कभी ऐसा करने का साहस नहीं जुटा पाई। आज तुम्हारे साथ मैं यह सब इसलिए सांझा कर रही हूं कि कहीं तुम्हारी उदासी वेद की तरह अकेलेपन का साथ न ढूंढने लगे।”

सिमरत ने आवेश की अवस्था में पहुंची बीजी के हाथ चूमकर एक वादे की तरह उनसे कहा, “बीजी अब मैं आपको कभी भी और उदास नहीं होने दूंगा।”

बीजी ने सिमरत का माथा फिर से चूमते हुए कहा था, “बेटा समझ लो कि मैं नए सिरे से जीने के काबिल हो जाऊंगी।”

सिमरत को कल बीजी एक महान तपस्विनी लग रही थी, उसी तरह सामने बैठे वेद मेहता भी कोई पहुंचे हुए पीर पैग़ंबर दिखाई दे रहे थे। किसी की भी साधना में कोई अंतर नहीं था बस साधना पता नहीं संपूर्णता क्यों हासिल नहीं कर सकी थी?

कल बीजी नसीहत की तरह कह रहे थे, “सिमरत बेटे, अब तुम जब भी हमें मिलने आओ, उनको भी ज़रूर मिलना और मिलते समय उनके पैर ज़रूर छूना। यह बहुत बड़ी इच्छा थी उनकी। कहा करते थे, जब मैं अपने मां-बाप के पैर छूता था तो एक सुकून सा मिलता था, वह मुझे अपनी छाती से लगा लेते और मुझे ऐसा महसूस होता कि ईश्‍वर कोई बहुत बड़ी चीज़ नहीं, फिर वे मुझे कहते, जस्स, जब अपना बेटा भी ऐसा करेगा तो हम भी उसे छाती से लगा कर सोचा करेंगे कि ईश्‍वर तो बहुत छोटी चीज़ है।”

अब सामने बैठे वेद मेहता सिमरत को देवतुल्य आत्मा के समान लग रहे थे। उसने अनायास ही उनके पैरों को छू लिया। वह चौंके जैसे कोई नींद में चौंकता है।

“मेरी तौहीन न करो बेटा यह पैर तो अपना भार उठाने के भी समर्थ नहीं, वैसे भी मुझे माफ़ कर देना सिमरत, अपने पैरों को छूने की इजाज़त मैंने कभी किसी को भी नहीं दी।” “सर अगर आपका अपना बेटा ऐसा करता, तो क्या उसे भी रोक देते?”

वेद मेहता उदासी भरा श्‍वास छोड़ कर जैसे फिर कहीं खो गए। “आप मुझे अपना बेटा नहीं समझ सकते?” सिमरत की आवाज़ सुन, वेद मेहता आंखे खोलते हुए बड़े मोह से उसके चेहरे को निहारते रहे। “आपकी इच्छा थी न कि आपका बेटा ऐसे ही आपके पैरों को छुए।” सिमरत की बात सुनकर वह शायद बहुत पीछे लौट गये थे, उनके चेहरे पर गहरी उदासी उभर आई “पर बेटा….।”

“हां, मुझे जसबीर बीजी ने सब कुछ बताते हुए आपसे मिलने के लिए कहा था और यह भी कहा था कि मिलते समय मैं आपके पैर ज़रूर छुऊं।”

मेहता की आंखों में नमी तैर गई। उनके होंठ फड़फड़ाने लगे। वह कितनी देर हैरान होकर सिमरत को देखते रहे और फिर उन्होंने सिमरत को अपनी बाहों में भर कर उसका माथा चूम लिया। इस स्पर्श से सिमरत को लगा मानों सैकड़ों चिराग़ उसके माथे पर जल उठे हों और एक छोटा सा ईश्‍वर किसी जुगनूं की तरह बहुत दूर टिमटिमा रहा हो।  

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