हम तो चले थे घर से दर्द को कम करने। कुछ इस क़दर बिखरे थे ग़म राहों में कि खुद दिल बोझिल हो चला। कुछ वीरान आंखें देखी, कुछ उदास सपने, कुछ बिखरे हुए कारवां। ऐसे ज़ख़्म जिनको सहलाने के लिए दोस्ती की, मुहब्बत की ज़रूरत है। आंसुओं को पोंछने के लिए प्यार भरे हाथों की ज़रूरत है। दोस्ती एक इनायत है, इन्सान की सबसे पहली ज़रूरत। प्यार भगवान् द्वारा बख़्शा इन्सानियत का तोहफ़ा, एक खूबसूरत एहसास। मुहब्बत एक ऐसा जज़्बा है जो रूहों तक असर छोड़ता है, ज़िन्दगी जीने लायक़ बनाता है।
प्यार, मुहब्बत, इश्क गुज़रे ज़माने की-सी बातें लगती हैं। शब्द तो सुनने में अब भी आते हैं पर मायने वो नहीं रहे या फिर असलियत से वाक़िफ़ियत हो चली।
आजकल की लड़कियां सयानी हो चली हैं। जानने लगी हैं वो झूठे मजनुओं की दीवानगी। पहले तो खुद बचना सीखा फिर…..। अरे ये क्या ? कुछ तो चल पड़ी उसी डगर पर जो खुद को नागवार गुज़रती थी। कहीं तो सदियों से धोखा खाने का कारण समझ में आ गया तो कहीं भौतिकवादी सोच ने नए रास्ते इख्तियार करने को विवश किया। पर संवेदनशील नारी झूठे कहकहों तले बोझिल होती चली गई। अपनी संवेदनाओं को दबाती ज़माने का मुक़ाबला करती वो तिलमिलाती है। हक़ीक़त से वाक़िफ़ियत करते, जानते, समझते नित नई समस्याओं से घिरती जाती है।
जहां एक ओर अविश्वास कर नारी खुद परेशान है वहीं शक के दायरे में खड़ा पुरुष हैरान है।
आज जबकि महिलाएं पूरी तरह से चारदीवारी से मुक्त हो गई हैं, नारी पुरुष का मेल-जोल स्वाभाविक है। लेकिन उनके रिश्ते स्वाभाविक बन नहीं पा रहे। क्योंकि पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित एक वर्ग इन रिश्तों को सामान्य नहीं होने दे रहा। वहीं दूसरी ओर भारतीय संस्कृति इस को सही नज़र से देखने में अक्षम है।
अपनी संस्कृति की दुहाई देते नैतिक चरित्र को संभालते-संवारते हमारे समाज की असलियत देखने का प्रयत्न हुआ। पूरे चरित्र की तुलना में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए।
झूठ और फ़रेब से लिप्त पूरे का पूरा ताना-बाना उलझा हुआ है। भ्रष्टाचार की जड़ें दूर-दूर तक फैल चुकी हैं। रिश्वत, हेरा-फेरी, बलात्कार, धर्म के नाम पर दंगे। क्या यही है हमारा चरित्र?
नारी शोषण की दिल दहलाने वाली घटनाओं की तादाद घटने की बजाए बढ़ती जाती है। दहेज़ हत्या और कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़े हैरत अंगेज़ हैं। बलात्कार, सामूहिक बलात्कार के अलावा डायन बना कर शोषित की गई नारियों की काफ़ी लम्बी लिस्ट है। क्या यही सिखाती है हमारी संस्कृति? क्यूं देते हैं हम अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता की दुहाई?
यहां यह सब कहने का अर्थ यह नहीं कि पश्चिमीकरण का अंधानुकरण हमें स्वीकार्य होना चाहिए। अपनी सभ्यता को यूं जीर्ण-शीर्ण होने तो नहीं दिया जा सकता। लेकिन वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए हमें उसके साथ चलना होगा। अगर हमें दूसरों से कुछ सीखने को मिलता है तो उससे मुनकर नहीं होना चाहिए। दूसरों की अच्छाइयों को नज़र अन्दाज़ तो नहीं करना है न। दूसरों की निन्दा करने की नीति-सी बनाने की बजाए यह जानना ज़रूरी है कि हमारी अपनी क्षमताएं क्या हैं? हम क्या हैं? हमें वक़्त के आगे घुटने नहीं टेकने हैं बल्कि अपनी संस्कृ्ति की रक्षा हेतु आत्म-साक्षात्कार करना है। खुद को जानना है।
आओ हम फिर से नई मंज़िलें, पुख़्ता रास्ते तलाश करें।
अख़लाक की ज़मीं पर पावन, विश्वसनीय रिश्ते बनाएं,
मुहब्बत के नए फूल खिलाएं।
प्यार के दीप जलाएं।
-सिमरन