-दीप ज़ीरवी
सुबह उठना, नित्य क्रम निपटाने, खाना-पीना, बच्चे पैदा करना और सो जाना यह सब क्रियाएं करना ही आज पर्याप्त मान लिया गया है। मोटी-ठाड़ी भाषा में इसे ही जीना कह दिया जाता है। यदि यह जीना है तो यह कार्य तो जानवर भी करते हैं फिर उनमें और हम में, हम इन्सानों में क्या भेद रह जाता है।
अपना पेट पालना, अपने वंश की वृद्धि करना, आत्म-रक्षा करना हर जानवर जानता है। लेकिन आदमी तो कर्त्ता की सर्वोत्तम कृति है फिर वह इतने भर में संतुष्ट हो कर रह जाए यह तो विडम्बना की पराकाष्ठा है। है ना ?
तनिक सा अंतर है पलने में और जी भर कर जीने में। क्या है वह अंतर, चलें इसी की विवेचना करने की चेष्टा करते हैं।
वह अंतर है अंतरा मन के जीवनयगण का। किसी शायर ने भी लिखा है कि:-
“ज़िंदगी ज़िन्दादिली का नाम है
मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं।”
अपने आस पास किसी से भी पूछ देखें कि भई क्या हाल है ? लगभग एक सा उत्तर मिलेगा
-कट रही है
-जो समय कट जाय वही ठीक है
-गुज़ारा हो रहा है
– दिन कटी कर रहे हैं।
एक ओर तो हमारे ग्रंथ हमें बताते हैं कि अनेकों यत्नों, अनेक योनियों की दुष्कर यात्रा करने के बाद हमें यह मानव जीवन प्राप्त होता है तिस पर भी हम इस मानव जीवन के मूल्यों का अवमूल्यन करने को आतुर रहते हैं। अपनी दीन हीन दशा दिखा कर सहानुभूति बटोरने को आतुर रहते हैं। विशेषत: महिलाएं इस भाव से ग्रस्त हैं।
साधारणत: प्रत्येक महिला सहानुभूति की आकांक्षी होती है। (कोई माने या न माने) यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि सहानुभूति प्राप्त करने की चेष्टा का एक मुख्य कारण रहता है स्वयं को ध्यानाकर्षण का केन्द्र बनाने की चाह।
सहानुभूति मानव चरित्र का विशेष गुण है किन्तु अति हर चीज़ की बुरी होती है। सहानुभूति की अति होने की स्थिति में व्यक्ति स्वयं को संबल हीन प्राणी मान कर अपनी मूल्यवान आयु को बेकार ही जाने देता है। वह दूसरों की दया पर पलना अपनी नियति मान बैठता है।
नारी प्राय: ‘प’ की पतवार के सहारे ही अपनी जीवन नौका चलाती है।
बचपन में ‘प’ पिता; फिर ‘प’ पति; अंतत: ‘प’ पुत्र एवं पौत्र; यह समस्त ‘प’ नारी की जीवन नौका के पतवार माने जाते हैं।
मात्र नारी ही नहीं वरण् पुरुष भी सहानुभूति प्राप्त कर स्वयं को विशेष स्थिति में महसूस करते हैं। विभिन्न पदों पर कार्यरत पुरुष सहकर्मी महिलाओं की सहानुभूति बटोरने के लिए विशेष उपक्रम करते हैं। सहानुभूति बटोरने के लिए दीन-हीन होना/दर्शाना सर्वप्रथम पग होता है।
यह कृत्रम दीन-हीन दशा जो मात्र दूसरों को प्रभावित करने को ओढ़ी जाती है धीरे-धीरे व्यक्तित्व पर अमरबेल की भांति छा जाती है और प्राणी पलने वालों की भीड़ का अंग हो जाता है।
कदाचित् हम भूल रहे हैं कि हम किन के वंश है। हमारा अपनी जड़ों से कट जाना भी एक कारण है हमारे पलने की उत्तरोत्तर बढ़ती अभिरुचि का। ‘गीता’ के कर्म सिद्धांत से हम विमुख हो चले हैं। आज निष्काम कर्म करना तो दूर सकाम कर्म करने के प्रति भी हम उदासीनता भाव अपना रहे हैं।
छुट्टियों की संस्कृति आज हर मन पर हावी है। अधिकारों की बात हम ज़ोर से करते हैं कर्त्तव्यों की बात सुनते समय हम कानों में अंगुलियां डालकर बैठ जाते हैं।
हम आज में, अब में, वर्तमान में जीने की कला से नितांत अनभिज्ञ हैं।
जो है, जैसे है की धारणा हमारे मन में कहीं गहरे पैठ कर चुकी है। हम चिन्तन कम करते हैं चिन्ता अधिक करते हैं। हम भूत भविष्य की चिन्ता में वर्तमान स्वाहा कर लेते हैं।
ऐसा सिलसिला दिन प्रतिदिन तीव्र होता जा रहा है। कर्महीन, तेज़हीन, ओजहीन व्यक्ति मानवता के नाम पर कलंक है, नरपशु है।
ईश्वर ने हमें मानव देह प्रदान की है तो हमारा यह कर्त्तव्य बनता है कि हम ईश्वर की अनुपम भेंट का सम्मान करें।
हम नितांत अकर्म को ही अपनाएं न बैठे रहें वरन् कर्मशील बनें, ओजमय हों, तेज पुंज बनें, पशुवत पलना छोड़ें, मानवत जीना सीखें। चिंता करना छोड़ कर चिन्तन करें।
एवम् अस्तु!
एवम् अस्तु!
एवम् अस्तु!
Nice post……… मेरे हिसाब से अतिउत्तम