-डॉ. मनिन्दर भाटिया

भारतीय सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में विवाह-व्यवस्था का भारी महत्त्व है। विवाह केवल दो प्राणियां के मिलन का ही साधन नहीं है, वरन् उसका व्यापक और स्थायी महत्त्व प्रकृति और पुरुष के मिलन में है, शिव और शक्ति के सामंजस्य में है। भौतिक और सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों को समक्ष रखकर आर्य संस्कृति में विवाह की व्यवस्था की गई है।

विवाह स्त्री और पुरुष के बीच ऐसा रिश्ता है जो निभाया जाता है। अलग-अलग परिवार और संस्कारों में पले दो अलग सेक्स के लोग एक साथ गृहस्थ धर्म निभाते हैं। संतान को जन्म देते हैं, परिवार को बढ़ाते है और समाज को आगे बढ़ाते हैं।

आधुनिक युग में विवाह के प्रति पारम्परिक दृष्टिकोण निरर्थक हो गया है। दो आत्माओं का पवित्र मिलन, जन्म-जन्मांतर का सम्बन्ध, स्त्री-पुरुष का स्थायी बन्धन जैसी विवाह की परम्परागत धारणाएं धूमिल हो चूकी हैं। आज विवाह एक समझौता अथवा मैत्री सम्बन्ध के रूप में स्वीकृत है। यान्त्रिक-युग की व्यस्तता में विवाह सम्बन्धी उन सभी परम्पराओं को निभाने का न तो किसी को अवकाश है और न ही इसकी आवश्यकता ही समझी जाती है।

सम्प्रति बौद्धिक युग में ‘विवाह’ एक विवाद का विषय बना हुआ है। भारतीय समाज में आज सभी प्रकार के वैवाहिक दृष्टिकोण विद्यमान हैं। कुछ लोग ‘प्रेम विवाह’ और ‘सिविल-मैरिज’ जैसे विवाहों को तरजीह देते हैं। उनका मानना है कि सारी ज़िन्दगी हमने जिसके साथ व्यतीत करनी है, कम से कम हम उसे अच्छी तरह से जानते तो हैं वो हमारी पसंद का तो है। इन्हीं बातों को मद्देनज़र रखते हुए ही प्रेम विवाह का चलन चल पड़ा। इस प्रकार माता-पिता द्वारा निश्चित किए जाने वाली विवाह परम्परा का आज की नयी पीढ़ी द्वारा तिरस्कार किया जाने लगा।

किन्तु ‘विवाह के प्रति दृष्टिकोण’ को लेकर नयी पीढ़ी के सामने भी एक प्रश्न-चिन्ह लग गया। कुछ नवयुवक एवं युवतियां प्रेम विवाह का कुपरिणाम देखकर परम्परागत दृष्टिकोण के प्रति विश्वास व्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं। उनका मानना है कि आज कल के माता-पिता भी शादी तय करते समय लड़के या लड़की की पसंद को ध्यान में रखते हैं। फिर उनको अपने विचारों का आदान-प्रदान करने और एक दूसरे को समझने का पूरा मौक़ा दिया जाता है। ऐसे में उन्हें घरवालों की मर्ज़ी से शादी करने में कोई एतराज़ नहीं होता।

कुछ युवक-युवतियों का मानना है कि जब दो परिवारों का आशीर्वाद नवदम्पति को मिलता है तो उसका अर्थ बहुत व्यापक हो जाता है। दोनों के बीच परेशानी या तनाव के हलके से बादल को भी दूर करने कि लिए परिवार के लोग उपस्थित रहते हैं। दूसरी तरफ़ जब अपनी मर्ज़ी से घरवालों को नज़र अंदाज़ करके शादी की जाती है तो शादी के बाद दम्पति को सारी परेशानियां अकेले ही सुलझानी पड़ती हैं। जब सिर पर परिवार के बड़े बुज़ुर्ग का साया होता है तो कई समस्याएं खुद ब खुद समाप्त हो जाती हैं। इसलिए आज कल का युवा वर्ग अपने घरवालों के प्रेम और साथ को खोना नहीं चाहता। इसलिए आज के युवा तय शुदा शादी को ही तरजीह देते हैं।

सांरांश मेें कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण विश्व की तुलना में भारतीय अभिभावक अपने बच्चों के लिए काफ़ी कुछ करते हैं। यही वजह है कि आज का युवा वर्ग उनसे अलग नहीं होना चाहता। विशेषकर प्रेम विवाह के कारण तो बिलकुल भी नहीं। इस प्रकार युवा वर्ग की इस बदली सोच से हम इस बात का अनुमान तो अवश्य लगा ही सकते हैं कि भारतीय संस्कृति की जड़ें हैं ही इतनी मज़बूत कि बाहरी प्रभाव का असर काफ़ी दिनों तक नहीं रहता। दूसरे पारिवारिक समर्थन और सहयोग से ऊंची से ऊंची उड़ान भरना भी आसान होता है।

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