-मंजुला दिनेश

 

आदिकाल से ही स्त्री-पुरुष संबंधों पर विभिन्न कोणों से विचार मंथन जारी है। यह एक ऐसी गुत्थी है जो समय परिवेश और परिस्थितियों के अनुरूप कभी उलझती और कभी सुलझती रही है। स्त्री को ऐसी अनबूझ पहेली के रूप में प्रस्तुत किया गया जिसे आम आदमी तो क्या देवता भी समझने में सक्षम नहीं। औरतों को शंका आशंका के बीच में रख कर देखा जाता रहा। बहुधा उनके बुद्धि चातुर्य को नकारात्मक दृष्‍टिकोण से देखा-आंका गया, उनके गुणों को अवगुण माना गया।

बदलते समय के साथ औरतों की तरफ़ से पुरुषों की त्रुटियों और अवगुणों को लेकर निंदात्मक स्वर उभरा। महिला आंदोलनों और सजग एवं जागरूक महिलाओं ने पुरुषों के चेहरों पर चढ़े सभ्यता के नकाब को उतार फेंका। परिणामस्वरूप संवेदनशील पुरुष ने शर्मिंदगी महसूस की और परिस्थिति के दबाव में पुरुष ने अपने स्वभाव में बदलाव किया। उसने सौम्य और आधुनिक महिलाओं के अनुरूप ढल जाने की कोशिश की। फिर भी पुरुषों के संदर्भ में औरतों की आम धारणा नकारात्मक ही रही। आज भी वे परंपरागत अवगुणों से मुक्त नहीं हुए हैं।

पुरुषों के बारे में औरतों की आम धारणा है कि वे कठोर मिज़ाज, बेवफा, पेशे के प्रति अधिक चिंतित और सिर्फ देह के आकर्षण तक सीमित होते हैं, उन्हें स्त्रियों की इच्छा और अनिच्छा की फिक्र नहीं रहती। एक शिकायत यह भी है कि पुरुष अपने शरीर और वेशभूषा पर अधिक ध्यान नहीं देते। सौंदर्य और शारीरिक सिंगार आज केवल औरतों की चीज़ नहीं। शहरों में नए खुले सैलूनों में पुरुषों की भीड़ देख कर यह धारणा ग़लत सिद्ध होती है। वे दिन अब गए जब एक छरहरी सुंदर युवती के साथ कोई तोंदियल पुरुष नज़र आता था। जिसकी कमीज़ मुंह फाड़े दिखती थी। आज का पुरुष वेशभूषा, जूतों के डिज़ाइन और क्वालिटी के बारे में चिंतित नज़र आता है। कपड़ों के मामले में रंग, शैली और बनावट को भी पहल देने लगा है।

औरतों की धारणा में पुरुष उन से कम संवेदनशील होते हैं, इसलिए ‘कठोर’ का विशेषण उनके साथ जोड़ दिया गया। कई महिलाओं का अनुभव है कि जब वे अपने पति या मित्र से निजी समस्याओं अथवा चिंताओं पर बातें करती है तो उनका व्यवहार बड़ा रूखा होता है। किंतु पुरुष स्त्रियों की समस्याओं चिंताओं को सुनते समय उन्हें सुलझाने की प्रतिक्रिया से जुड़ जाते हैं, इसलिए उनकी प्रतिक्रिया में आवेग दिखाई नहीं देता और यह भी ज़रूरी नहीं कि वे समस्याओं और चिंताओं को सुनकर समान रूप से दु:खी और उदास हो जाएं। वे निश्‍चित रूप से समस्या निदान और चिंतामुक्ति की सलाह देते हैं जबकि महिलाओं को यह सलाह नागवार गुज़रती है।

पुरुष भी औरतों की तरह घर-परिवार, बाल-बच्चों और संबंधों को लेकर अत्यंत संवेदनशील होते हैं। घर एवं संबंध बिखरने से वे भी टूटते हैं। बच्चों के बड़े होने पर परिवार छोड़ने से वे भी अकेलापन महसूस करते हैं। पुरुष संवेदना के आवेग की नकारात्मक नीति, पुरुषों द्वारा की गई आत्महत्या की कोशिशों में भी देखी जा सकती है। इस तथ्य से पुरुषों की संवेदना की तीव्रता ज़ाहिर होती है। पुरुष अकेलेपन और असुरक्षा की चरम सीमा में यह भयानक फैसला लेते हैं। यह धारणा भी ग़लत है कि पुरुषों को किसी के साथ व सुरक्षा की आवश्यकता नहीं, यह अलग है कि पुरुष अपने अकेलेपन और असुरक्षा को न स्वीकार करते हैं और न ज़ाहिर करते हैं। परन्तु मनुष्य की इस नैसर्गिक भावना का झंझावात उनके अंदर भी उठता है।

औरतों की इस धारणा में सत्यता है कि पुरुष अपनी आलोचना स्वीकार नहीं कर पाते। हालांकि शिक्षा और परिवेश से इस में कुछ बदलाव आया है परंतु पुरुष अपने स्वभाव और व्यवहार पर औरतों की टिप्पणी सहन नहीं कर पाते। किन्तु अधिकांश मामलों में यह प्रतिक्रिया दोतरफा है। स्त्रियां अपनी नाराज़गी उस खास टिप्पणी पर भले न ज़ाहिर करें परन्तु उनके व्यवहार में प्रकट हो जाती है। पुरुष अपनी आदतों को बदलने के प्रति स्त्रियों की इच्छा का प्रतिरोध करते हैं, उन्हें अपना हर व्यवहार तर्कपूर्ण व अनुकूल लगता है। इसी कारण स्त्रियों की टिप्पणी या शिकायत पर वे अपने व्यवहार के बचाव के पक्ष में तर्क और कारणों की बरसात लगा देते हैं।

अपनी श्रेष्ठता के इसी भ्रम के कारण वे महिलाओं के अधिकार के विरोधी भी होते हैं। शिक्षित और आधुनिक पुरुष औरतों के अधिकार के समर्थक केवल बातों में होते हैं। अपने व्यवहार में उनका अहं पुरुष के झुकने या समान स्तर पर आने का विरोध करता है। फिर भी पुरुषों में गुणात्मक बदलाव आया है और वे स्त्रियों के अधिकारों को स्वीकार करने लगे है क्योंकि उनकी भूमिका को वे नज़र अंदाज नहीं कर पाते हैं।

इकीसवीं सदी का भारतीय पुरुष अपने पूर्वजों से अलग एवं स्त्रियों के अधिक अनुकूल है। सहज विकास, शिक्षा के प्रसार और आधुनिक जीवन निश्‍चित ही पूर्व ग्रहों की धुंध साफ़ करेंगे, परंतु शर्त यह है कि दोनों ओर से समझने की ईमानदार कोशिश और पहल हो।

One comment

  1. ये तर्कपूर्ण व संतुलित लेख है। आज की नारी न तो पहले जैसी असहाय है और न पुरुष पहले की भांति बेहद आत्म-मुग्ध। समाज में आ रहे इस बदलाव पर दृश्टिपात करना हो तो दोपहर के समय न्यूज़ चैनलों पर भी सास-बहू के कब्जे को देख कर समझा जा सकता है। वे सीरियलस आखिरकार देखे तो महिलाओं द्वारा ही जाते हैं। उनसे मिलने वाली प्रेरणा के सदके महिला समाज पहले से बहुत ज्यादा जागरुक हुआ है। केवल नारी संवेदना का ही रोना रोने वालों को मेरी विनम्र सलाह है कि दोपहर का वक्त टीवी के साथ बिताया करें, ज्ञान चक्षु खुलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। मंजुला जी को इस लेख के लिए साधूवाद

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