-बलदेव राज भारती
15 अगस्त की रात्रि 10 बजे थे। मैं अपने कमरे में बैठा कोई रचना लिखने में व्यस्त था। अचानक तेज़ हवा के एक झोंके ने बन्द दरवाज़े को खोल दिया। खिड़कियां ज़ोर-ज़ोर से खड़कने लगी। मुझे दूरदर्शन पर देर रात्रि चलने वाले भूतीया धारावाहिक ‘आप बीती’ की याद हो आई। मुझे लगा कि कमरे में किसी प्रेतात्मा ने प्रवेश किया है। अनायास ही मेरे मुख से निकल गया कौन हो तुम? सामने क्यों नहीं आते? ये सभी संवाद ‘आप बीती’ में अकसर बोले जाते हैं तो मुझे बोलने में कोई कठिनाई नहीं हुई। परन्तु थोड़ी देर में मुझे अपनी इस अटपटी हरकत पर हंसी भी आई। एक अंधविश्वास न करने वाला इन्सान कैसे भूत-प्रेत में विश्वास करने लगा? मैं अभी अपनी इस सोच के दायरे से बाहर निकला ही था कि मुझे किसी के खांसने की ध्वनि सुनाई पड़ी। मैंने आसपास देखा। वहां कोई नहीं था। मुझे लगा कि कमरे में कोई है। अचानक बिजली चली गई। मैं कमरे से बाहर निकला। बाहर हल्की-हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी। अचानक ज़ोर से बादल गरजे, दामिनी दमकी। मेरी नज़र कमरे में गई, तो मुझे यह लगा कि कमरे में कोई है। मैंने फिर आवाज़ दी “कौन है वहां? बोलता क्यों नहीं” अब की बार मुझे उत्तर मिला “मैं हूं।”
“मैं कौन?” मैंने पूछा।
“मैं भ्रष्टाचार हूं।”
“भ्रष्टाचार …. ?” मेरा मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। “त …. त …. तुम यहां कैसे आए?” मैंने भय से कांपते हुए पूछा। “अरे, मैं आज़ाद हूं। कहीं भी आ जा सकता हूं।”
“परन्तु तुम मुझसे क्या चाहते हो?” मैंने पूछा।
“अरे तुम मुझे क्या दे सकते हो? तुम तो स्वयं ही बेरोज़गार हो। मैं तो यह कहने आया था कि यदि तुम भी मेरा साथ ले लेते तो तुम्हारी भी नैया पार हो जाती। …. नहीं तो तुम्हें न जाने कैसे-कैसे और भी ताने सुनने को मिलेंगे।”
“ताने …. ? कैसे …. ?” मैंने पूछा।
“अरे उस दिन उस मैडम ने तुम्हें कहा था कि दिमाग़ वालों को ही नौकरियां मिलती हैं। …. कितने आहत हुए थे तुम? अगर तुमने मेरा साथ लिया होता तो तुम्हें यह दिन देखना न पड़ता।”
“दरअसल ग़लती मेरी थी। मैंने भी तो उसके साथ मज़ाक में उसके दिमाग़ पर कटाक्ष किया था। जिसका उसने बुरा मान लिया होगा और प्रतिक्रिया स्वरूप उसने ऐसा कह दिया होगा।”
“तुम अपने मन को तसल्ली देने के लिए कुछ भी सोचो, कुछ भी कहो पर तुम अब टूट चुके हो।”
“जी नहीं, तुमने अब भी ग़लत द्वार खटखटाया है, भ्रष्टाचार जी। मैं तुम्हारे बहकावे में आने वाला नहीं। तुम्हारी वजह से हमारा देश पिछड़ रहा है तुम देश के विकास का रोड़ा हो अगर इस देश में तुम न होते तो हमारा देश कहीं का कहीं पहुंच गया होता।” मैंने अपनी बात को दृढ़ता से रखते हुए कहा।
“अगर मैं इस देश में न होता तो देश चांद पर पहुंच गया होता और तुम अच्छी तरह से जानते हो चांद यहां से चार लाख कि.मी. की दूरी पर है। और इस देश की जनता बेचारी, चार कि.मी. का किराया नहीं दे सकती चार लाख कि. मी. का किराया कैसे देती?”
“इस सब के पीछे तुम्हारा हाथ है। तुमने ही लोगों में बेईमानी जैसी बीमारियां लगाई। अब जाकर हमारे प्रधानमंत्री ने घोषणा की है कि भारत आने वाले वर्षों में चांद पर यान उतारेगा।” मैंने कहा।
“मैं ऐसे प्रधानमंत्री को ही बदल दूंगा, जो चांद पर जाने के सपने देखता हो या दिखाता हो। तुम शायद नहीं जानते चांद पर जाने का देश की जनता पर कितना कुप्रभाव पड़ेगा?”
“यह माना कि तुम देश की अधिकतर जनता की रग-रग में समाए हो। परन्तु प्रत्येक व्यक्ति तुमसे कितनी नफ़रत करता है, शायद तुम यह नहीं जानते।”
“तुमने अभी देखा ही क्या है? भारत में होने वाले प्रत्येक घोटाले का जनक मैं हूं। इस धरती पर लक्ष्मी का गुणगान और सरस्वती का अपमान मेरे कारण ही होता है। मैं चाहूं तो बिना पैरों की घोड़ी को भी रेस जिता दूं। मैं एक निरक्षर को साक्षर बना दूं। और एक साक्षर को डॉक्टर बना दूं। नीचे से लेकर ऊपर तक के सभी विभागों में मेरे बिना पत्ता तक नहीं हिलता। यदि तुम ईमानदार व सदाचारी होने का भ्रम पाले हो तो मुझे तुम्हें बेईमान और भ्रष्टाचारी सिद्ध करने में तनिक भी समय नहीं लगेगा।”
“भ्रष्टाचार जी! इस धरती पर जिसने जन्म लिया उसका मरण भी निश्चित है तुम्हारा भी अन्त एक दिन होकर रहेगा।”
“भूल कर रहे हो तुम। मैं तो ईश्वर की भांति अजन्मा हूं, निरंकार हूं निराकार हूं। मेरा न तो जन्म हुआ है और न ही मैं मरुंगा। मेरे होते हुए तुम्हें असफलता नहीं मिल सकती।”
“यह तुम्हारा भ्रम है, भ्रष्टाचार। सत्य की जीत होती है। अन्त में सदाचार ही जीतेगा तुम्हारे रास्ते पर चलने वालों को जेल की सलाख़ें ही नसीब होती हैं। तुम पूर्णता के विरोधी हो और अपूर्णता संसार में अनुशासनहीनता को बढ़ावा देती है। अनुशासनहीनता असंतुलन को बढ़ावा देती है। असंतुलन आन्दोलन का जन्मदाता होता है। …. और आन्दोलन वह शल्य चिकित्सक है जो शल्य चिकित्सा के माध्यम से तेरे जैसी बुराइयों को उखाड़ फेंकता है।”
“तेरे जैसे बुद्धि के ठेकेदार में यही कमी होती है। तुम उपदेश बहुत अच्छे दे लेते हो। आन्दोलन की धमकी दे रहे हो। क्या ख़ाक आन्दोलन करोगे तुम, अपने परिवार के पेट पालने के लिए तुम्हें रोज़ दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं।”
“मुझे संतोष है कि मैं तेरे बहकावे में नहीं आया। अब तू यहां से जा। तेरी दाल यहां नहीं गलेगी। जा किसी और पर दाने डाल।”
“हां-हां जाता हूं। पर तुझे देखता हूं, कब तक तू मेरे बिना चल सकता है।” कहकर भ्रष्टाचार का साया मेरे कमरे से ओझल हो गया। इतने में बिजली आ गई। मैंने अपनी अधूरी रचना को पूरा किया और निश्चिन्त होकर सो गया।