गोपाल शर्मा फिरोज़पुरी

युग बदला इतिहास बदला मगर आधुनिक संसार में सभ्य समाज आज भी पुरानी परिपाटी का परित्याग नहीं कर पाया। जन्म-जन्मांतरों से हमारी मानसिकता अभी भी उसी पड़ाव पर खड़ी है जहां सदियों पहले खड़ी थी। परिवार, जिससे मिलकर समाज का निर्माण होता है तथा जिस समाज से विकसित राष्ट्र का निर्माण होता है। वर्तमान वैज्ञानिक युग में भी पुत्र जन्म को ही परिवारों में अहमियत दी जाती है। यह कैसी विडम्बना है यह कैसी परंपरा है जो हमारी मानसिकता कन्याओं के प्रति अवहेलित भावना रखती है। शिक्षित से अति शिक्षित परिवार भी घर में लड़के के जन्म को अहमियत देता है। अभी तक हम सब लोग इसी अवधारणा के साथ जुड़े हुए हैं कि पुत्र ही वंश परंपरा को आगे बढ़ाता है। घर में पुत्री जन्म पर परिवार सीमित रखने की मानसिकता के विरोध में अपने परिवार को खींचता चला जाएगा जब तक कि बेटा उत्पन्न न हो जाए। बेशक इस दु:साहस में पत्‍नी का बच्चे जन्मते देहांत हो जाए। कई ग्रामीण क्षेत्रों में तो लड़की के जन्म देने पर जच्चा की पिटाई तक कर दी जाती है। ससुराल से ज़बरदस्ती मायके की ओर धकेला जाता है। दूसरी शादी करके उसकी सौतन लाने की तैयारी शुरू हो जाती है। पुरुष प्रधान समाज में मूर्ख प्राणी यह मानने को तैयार नहीं होता कि लडक़ा या लडक़ी होने के लिए पुरुष ही ज़िम्मेवार होता है। सोचने वाली बात तो केवल इतनी है कि लड़का ही क्यों? लड़की क्यों नहीं? वंश परंपरा तो पुरुष और नारी के संभोग से ही संभव है। अकेला पुरुष तो वंश परंपरा बढ़ा नहीं सकता। फिर नारी तिरस्कृत क्यों ? कन्या आगमन पर भी इसी प्रकार से बाजे गाजे के साथ स्वागत किया जाना चाहिए जैसे पुत्र प्राप्‍ति पर लड्डू, मिठाइयां बांटी जाती हैं शहनाइयों की धुनें निकलती हैं। एक तरफ़ तो हमारी संस्कृति में देवी है, परमेश्‍वरी है, जगदम्बा है, भगवती है तो दूसरी तरफ़ नारी भ्रूण हत्या क्यों ? यह तो नारी के साथ घोर अन्याय, अत्याचार और महापाप है। लड़कियों ने हर प्रतिस्पर्धा में लड़कों को पछाड़ा है फिर पुरुष की पेट में हत्या क्यों नहीं की जाती ? निखट्टू, नालायक, चरित्रहीन लड़का वंश परंपरा का पोषक कैसे हो गया ? सुशील, सभ्य प्रशिक्षित प्रतिष्‍ठित कन्या क्यों नहीं ? काला, काना, लूला, लंगड़ा वंश का परिचालक है तो सुन्दर, सुडौल, स्वस्थ कन्या क्यों नहीं ? इस प्रकार की सोच, नैतिकता और सभ्यता पुरानी हो चुकी है। युग के साथ-साथ हमारी मानसिकता भी बदल जानी चाहिए। एक वहम एक भ्रम जो हमारी मानसिकता के साथ जोंक की तरह चिपका है जो दीमक की तरह हमारी बुद्धि को चाट रहा है उसका परित्याग करना होगा। पुरुष यदि कुलदीप है तो नारी कुल ज्योति है। उसे भी वंश की आधारशिला मानना होगा बात तो केवल संतोष करने की है।

पुत्र जायदाद के लिए क़त्ल कर देते है जूते मारते हैं, अपमानित करके घर से निकाल देते हैं। यहां तक कि ज़मीन-जायदाद की रजिस्ट्री अपने नाम करवा लेते हैं असहाय बेसहारा माता-पिता पर तरस खाने की बजाए उनको बीमारी के दिनों में मरने के लिए तड़पता छोड़ देते हैं। कई बूढ़े-बुज़ुर्गों को वृद्ध आश्रमों में शरण लेते हुए देखा गया हैं। लड़की कम से कम ऐसा तो नहीं करती। दुख-सुख में शरीक होती हैं आयुपर्यंत मां-बाप की हितैषी बनी रहती है।

यह बात तो आंखें मूंद कर भी मानी जा सकती है कि लड़का सारी आयु खुला-खुला जीवन व्यतीत करता है जबकि लड़की मायके से ससुराल तक सारी उम्र घुटा-घुटा और बुझा-बुझा सा जीवन व्यतीत करती है। अावारागर्द बेटा मां-बाप को आंखें दिखाकर अपनी हर इच्छा पूर्ण कर लेता है और इसके विपरीत सुशील बेटी अपनी अत्यावश्यक ज़रूरतों के लिए भी तरसती तड़पती रहती है। बेटे के लिए कई प्रकार की योजनाएं बनाई जाती हैं पढ़ाई में ना चले तो बिज़नेस की, व्यापार की, विदेश भेजने की। जबकि बेटी के योग्य होने पर भी उसके स्तर के अनुसार व्यवसाय चुनने की छूट मध्यवर्गीय परिवारों और कई सुपर अभिजात्‍य परिवारों में नहीं है। वह तो केवल मन मसोस कर रह जाती हैं क्योंकि हमारी, तुम्हारी और किसी अन्य की मानसिकता केवल यहां तक सीमित होकर रह गई है कि बेटी को तो ससुराल भेज ही देना है, इस पर ज्‍़यादा धन लुटाने की क्या ज़रूरत है। फिर दहेज़ का हौवा एक ऐसा भयानक रिवाज़ है कि सभी उससे तौबा-तौबा तो करते हैं परन्तु उस समस्या को जड़ से काटने का प्रयत्‍न नहीं करते जिससे इस बीमारी का उपचार हो सके। बेहतर तो यह है कि लड़की के अस्तित्त्व की रक्षा हेतु उसे स्वावलम्बी बनाया जाए। उसे आत्मनिर्भर होने दिया जाए। वह अपने पैरों पर खड़ी हो जाए।

व्यावसायिक परिपक्व होने पर विवाह के लिए गाईड बनकर उसकी सहायता की जाए, कोई निर्णय ज़बरदस्ती उस पर थोपा न जाए। आम तौर पर यह देखा गया है कि शादी के मामले में तो उसकी स्वतंत्रता का हमेशा हनन ही किया गया है। मोहरा कोई और है, खूंटा कोई और है वह तो परिजनों के कहने पर कुएं में छलांग लगाती है तो फिर उज्जवल भविष्य की परिकल्पना कैसे की जा सकती है। व्यावसायिक मामलों में तो हम अपनी कन्याओं के साथ बहुत ही अन्याय करते हैं। उसकी रुचि क्या है उसका क्षेत्र क्या है। हम जानकर भी उसे वह कार्य करने की छूट नहीं देते जिससे वह अपना नाम रौशन कर सकती है। खेल और खिलाड़ी बनने पर समय की कोई सीमा नहीं होती। जितना अभ्यास करोगे उतनी ही परिपक्वता आएगी। परन्तु खेल के मैदान पर देर हो जाने पर शंकित नज़रों से देखा जाएगा कहीं किसी लडक़े के साथ इसका चक्कर तो नहीं। उसके बाल, उसकी ड्रैस वही होनी चाहिए जो घर वाले चाहते हैं। स्कूल, कॉलेज का ट्रिप हो या कहीं सैर को निकले तो घर वालों की आज्ञा के बिना बाहर जाना वर्जित है। बालिग होने पर भी एक लड़की के साथ ना समझ बच्ची जैसा ही व्यवहार किया जाता है। उसकी इच्छा है मॉडल बनने की, उसकी चाहत है नृत्यांगना बनने की, वह चाहती है कवयित्री बने, पर कौन देगा उसे मौक़ा। हर मानसिकता यहां पर अटक कर रह गई है कि यह लड़की गई काम से, चरित्र से हाथ धो बैठेगी कहीं उल्टा-सीधा हो गया तो समाज में मुंह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहेंगे। चल जाकर घर के काम देख सीना पिरोना सीख, सिलाई-कढ़ाई में लगा ले दो-चार महीने जो तेरे काम आएंगे। रसोई में दाल-सब्ज़ी पर भी अपने हाथ आजमा। ससुराल में तेरे साथ तेरी मां तो नहीं जाएगी। इतनी लम्बी-लम्बी छलांगें न लगा। ज्‍़यादा उड़ाने न भर। घर की शोभा लड़की के चार दीवारी में रहने से ही है। इस प्रकार एक लड़की का जीवन ठुस्स होकर रह जाता है।

इस प्रकार की पाबन्दियां उसके अपने घर से शुरू हो जाती हैं तो उसे ससुराल में स्वतंत्रता कौन देगा। वह बेचारी तो मायके में भी अपनी इच्छाएं पूरी नहीं कर पाती तो ससुराल में तो और भी ज्‍़यादा प्रताड़ित होती है। पुरुष है कि पति के रूप में तो जैसे वीटो पावर उसके हाथ है नंगा नृत्य करने का लाईसैंस उसके पास आ गया । जुआ, शराब, सिगरेट या इधर-उधर मुंह मार कर इश्क विश्क फरमाने का उसको अधिकार है। उसका दोस्त कोई पुरुष हो या स्त्री कोई कुछ नहीं कहता।

यदि किसी नारी का कोई पुरुष सच्चा सहयोगी भी हो तो उस पर उंगली उठनी आवश्यक है। पुरुष है कि राजसी ज़िन्दगी भोगता है और नारी है कि दासी की दासी। हर एक धर्म समुदाय में पर्दे का प्रतिबंध स्त्रियों पर ही थोपा जाता है। बुर्के में घूंघट में रहने को उसे बाध्‍य किया गया। घूंघट से लेकर पूरे पहरावे की पाबंदिया उस पर लगी। आदमी ने स्त्री को विष कन्या बनाया। उसे वेश्या की संज्ञा दी। बेचा, फरोख्‍़त किया। मगर उस पर किसी ने उंगली नहीं उठाई। नारी ने नर को जन्म दिया। नर से नारायण बनाया। मां-बहन और प्रेमिका बनकर अपना सर्वस्व लुटाया पर फिर भी पुरुष से तुच्छ कहलाई। हमारी मानसिकता का केन्द्र बिन्दू यहां से खिसक वहां तक नहीं पहुंच सका कि नारी केवल बच्चे पैदा करने वाली या भोग विलास की पूर्ति हेतू नहीं है। आज भी बड़े-बड़े फैसले परिवार के पुरुष सदस्य ही निर्धारित करते हैं। बेशक राजनीतिक या व्यावसायिक क्षेत्रों में आरक्षण की रट लगाई जाती है मगर पहले उसे परिवार में वह दर्जा तो मिले जिसकी वह हक़दार है। पुरुष के हर बड़े से बड़े गुनाह को समाज नज़र अंदाज़ कर देता है जबकि लड़की के साथ छेड़खानी, बलात्कार हो जाने पर उसे कोई अपनाने के लिए तैयार नहीं होता। जबकि इसमें वह स्वयं दोषी भी नहीं होती है। केवल अंधे कुएं में कूदने के सिवा उसके पास कोई चारा नहीं रह जाता। पुरुष की मानसिकता को क्या हो गया है कि एक बेक़सूर नारी का हाथ थामते हुए उसका सन्तुलन लड़खड़ाता है। उसका विवेक थर-थर कांपता है। दिखावे की समाज सुधारक संस्थाओं का क्या लाभ है यदि वह जागरूक नहीं हैं। विधवा औरत तो शुभ कार्यों में किसी तरह खुल कर हिस्सा नहीं ले सकती क्योंकि लोग उसे अशुभ और अभागिन मानते हैं। बेशक हम अपने सभ्य होने की दुहाई देते फिरें लेकिन दूसरे पश्‍चिमी देशों की निस्बत अभी हम बहुत पिछड़े हुए हैं।

सारांश में इतना ही कहना चाहूंगा कि नारी को किसी भी रूप में कम न आंका जाए और नारी भ्रूण की हत्या न की जाए नहीं तो प्राकृतिक अवरोध पैदा होगा। स्त्री जन्म दर की कमी से वैवाहिक समस्याएं उत्पन्न होंगी। काश! हमारी लड़कियों के प्रति मानसिकता बदल जाए कन्या उत्पन्न होने पर हर्षो उल्लास हो, संतुष्टि हो तथा दृढ़ विश्‍वास हो कि लड़की बहुत ही बहुमूल्य निधि है।

 

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