दीप ज़ीरवी

सुनो…..यह मत करो…. वह करो….. यह मत पहनो …. वह पहनो ….. यहां मत जाओ …. वहां जाओ…. उससे बात मत करो ….. इससे बात करो ….लड़कों के साथ मत बतियाओ ….बचपन अभी पूरी तरह विदा नहीं हुआ होता कि नसीहतें शुरू ….. बचपन अभी पूरी तरह विदा नहीं होता कि परिवार भर की वर्जनाएं रुकावटें लगनी शुरू हो जाती हैं। सिर्फ़ लड़कियों पर लगने वाली बंदिशें, रुकावटें, नसीहतें केवल लड़कियों के लिए आरक्षित हैं। (शापदार)

यह विडम्बना की पराकाष्ठा है कि अव्वल तो लडक़ी को पैदा ही नहीं होने दिया जाता अल्ट्रा-साऊंड का दैत्य ही उसे निगलने को लालायित रहता है। जिसके बचपन को भेदभाव का ग्रहण लगा होता है उसकी जवानी आने से पहले ही उसको बंदिशें मिलनी आरम्भ हो जाती हैं। यह माना कि ज़माने की हवा बदली-बदली-सी है। विश्‍वसनीयता का ग्राफ धीरे-धीरे गिरता जा रहा है। परिवेश में वैचारिक प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। किन्तु यह समाज है क्या ? हम और आप ही तो हैं। ‘समाज’ नारी पुरुष का संगम ही तो है। यदि मर्यादा का पाठ नारी के लिए मां के दूध-सा ज़रूरी है तो फिर पुरुष के लिए विशेष छूट क्यों ? लड़के और लड़की में भेदभाव क्यों ? क्यों लड़के को भी शालीनता का पाठ गंभीरता से नहीं दिया जाता।

बाक़ौल साहिर :

मर्दों के लिए हर ऐश का हक

औरत के लिए रोना भी गुनाह …..क्यों ?

कथित तौर पर लड़का-लड़की एक समान है किन्तु वास्तव में लड़के की गठरी में केवल अधिकारों का जमावड़ा ही रहता है और कर्त्तव्‍यों को लड़की का मुक़द्दर बना डाला जाता है। लड़कों को कई एक विशेषाधिकार केवल इसलिए देना क्योंकि वह लड़के हैं यही, लड़का-लड़की समानता को लड़का-लड़की की कथित समानता में बदल डालता है।

आज हम कितनी डींग हांक लें कि नारी पुरुष हर क्षेत्र में बराबरी पर खड़े हैं किन्तु सत्य कुछ और ही है। हम ही घर के चूल्हे से इन में भेद के बीज अपने हाथों बो डालते हैं। यहां लड़की को बताया जाता है कि उसका काम खाना बनाना है और सबको खिला कर खाना है किन्तु लड़के को उसकी अपनी थाली तक सिंक में रखकर नहीं आने देते उल्टे यह कहा जाता है-रहने दे बेटे, तेरी बहन उठा लेगी।

यदि लड़के इतना-सा काम कर देंगे तो घिस तो नहीं जाएंगे। शर्म की बात धर्म का मर्म केवल लड़की को सिखाया जाता है और लड़के….? लड़के को यह सब सिखाने की बात तो दूर, बताने में भी कम ही मां-बाप रुचि दिखाते हैं। नतीजा उच्छृंखलता से भरपूर युवा ही समाज को मिल पाते हैं।

लड़कियों को बचपन से ही ससुराल जाने के लिए ही तैयार किया जाता है। ससुराल में जाकर कैसे रहना है, उठना है, बोलना….वगैरह…लेकिन लड़कों को ऐसा कुछ नहीं सिखाया बताया जाता है। नतीजा लड़के स्वयं को यूसुफ समझते हैं और हर लड़की को जुलैखा समझते हैं। खुद को रांझा और हर लड़की को हीर समझते हैं….

आधुनिक परिवेश में बढ़ती कामुकता और गिरती नैतिकता के चलते धर्म के रिश्ते, दूर के रिश्ते, पास के रिश्ते, खून के रिश्ते तक कलंकित कर डालते हैं उच्छृंखल युवक(बेशक पांचों अंगुलियां एक-सी नहीं होती उड़द की दाल की सफेदी भी होती है)।

शादी से पहले उचित-अनुचित ढंग से अनेकों लड़कियों का दैहिक शोषण करने वाले भी शादी के लिए कुंवारी कन्या की चाह करते हैं। शादी के बाद यह रांझे अपनी बीवी तक ही सीमित नहीं रहते। पत्‍नी की सहेलियों, बहनों, भावजों पर भी डोरे डालने की चेष्टा करते हैं। साली को आधी घरवाली बताने(मानने) वाले यह भूल जाते हैं कि उनकी अपनी बहन भी किसी की साली है और उनकी साली भी किसी की तो बहन है।

होली के हुड़दंग में यह मनचले ‘बटेऊ’ अपनी सालियों, सलेहजों को टटोलने से भी नहीं चूकते। बटेऊ होने का अधिकार इन कुछ सरफिरों का सिर फेर डालता है। ससुराल में इन का आचरण आचार संहिता से मेल नहीं खाता।

कदाचित इस सब के लिए दोष इन का नहीं उनका है जिन्होंने इनको शालीनता का पाठ ही नहीं पढ़ाया सिखाया। जिन्होंने इन युवकों को अनुशासन का पाठ तब नहीं पढ़ाया जब यह बच्चे थे। कोमल कोंपलों को सही दिशा देना अपेक्षाकृत आसान होता है।

आवश्यकता इस बात की है कि बचपन को(हर बचपन को)बिना भेदभाव के सही-सही दिशा निर्देश दिए जाएं। उनको अनुशासन एवं आत्मानुशासन का महत्त्व बताया जाए।

शर्म-धर्म का मर्म लड़के और लड़की के लिए एक-सा महत्त्वपूर्ण है, था और रहेगा भी।

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