-मुकेश अग्रवाल

विजय दशमी के दिन आसुरी शक्‍त‍ियों के प्रतीक रावण, कुंभकरण एवं मेघनाद के पुतलों का दहन किया जाता है। उत्तर भारत में शायद ही कोई ऐसा शहर होगा जहां पुतलों के दहन के बिना दशहरा मनाया जाता हो। सर्वप्रथम पुतले जलाने की परम्परा कब और किसने आरम्भ की यह कहना तो कठिन है। किन्तु हम सदियों से धार्मिक उन्माद के वशीभूत होकर पुतले जलाने की परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं। जबकि एक सचाई यह भी है कि किसी भी धर्म ग्रंथ में पुतलों को जलाने का उल्लेख नहीं मिलता। हो सकता है किसी समय में पुतलों का दहन उस समय के अनुकूल रहा हो। किन्तु परिवर्तन समय की मांग है। आज के संदर्भ में पुतलों का दहन सर्वथा अनुचित है। यह किसी भी दृष्टि से देश, काल एवं रीति के अनुसार उचित नहीं है। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि पुतलों का दहन प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में समाज को प्रभावित कर रहा है।

एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष दस अरब से ज़्यादा की धनराशि पुतलों को जलाने में स्वाहा हो जाती है। ज़रा सोचिए जो राशि शिक्षा, विज्ञान, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में लग कर देश को उन्नति प्रदान कर सकती थी, अगर वह यूं ही बर्बाद होती रहेगी तो देश हमेशा दरिद्र ही रहेगा। आकंड़े बताते हैं कि हमारे देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें अभी तक बुनियादी सुविधाएं भी हासिल नहीं हैं। करोड़ों लोगों को पीने का साफ़ पानी नहीं मिलता। देश में करोड़ों महिलाएं ऐसी हैं जो गर्भावस्था के दौरान पौष्टिक भोजन के अभाव में ऐसे बच्चों को जन्म देती हैं जिनकी आयु बमुश्किल एक वर्ष होती है। देश में कितने लोग साक्षर हैं हम भली-भांति जानते हैं। सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि कुछ वर्ष पूर्व हुए विकास के मद्देनज़र सर्वे के अनुसार भारत को बहुत पीछे का नंबर दिया गया था। क्योंकि भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां अत्यधिक नेत्रहीन व्यक्ति एवं तपेदिक के मरीज़ रहते हैं। बहुुत अधिक बाल मज़दूरों की संख्या का स्वामी भारत देश है। विश्व बैंक ने दक्षिण एशिया के देशों, जिनमें से भारत भी एक है, की जनता की ग़रीबी के बारे कहा है कि इस हिस्से के करोड़ों लोग इतने ग़रीब हैं कि उन के बारे में किसी भी शब्दकोश में कोई परिभाषा ही नहीं है। लेकिन इन सब बातों को दरकिनार करते हुए हमारे देश में प्रतिवर्ष पुतलों का दहन कर अरबों रुपयों की फ़िजूल ख़र्ची ऐसे की जाती है। मानों राम राज्य अगर कहीं है तो बस भारत में ही है।

धन की बर्बादी से हट कर पर्यावरण की बात करें तो भी पुतलों का दहन किसी भी दृष्टिकोण से तर्कसंगत नहीं है। पिछले कुछ वर्षों से पर्यावरण की दयनीय दशा के परिणामस्वरूप ही पर्यावरणविदों को भी दहन संबंधी परम्परा का विरोध करने के लिए विवश होना पड़ा है। ग़ौरतलब है कि पुतलों के निर्माण में बांस की लकड़ी एवं काग़ज़ का अधिकाधिक प्रयोग किया जाता है। वैज्ञानिक अपने सफल प्रयोगों से प्रमाणित कर चुके हैं कि औसत तापमान में वृद्धि, बाढ़, सूखा आदि प्राकृतिक आपदाओं का एकमात्र कारण पर्यावरण में बढ़ता असंतुलन है। वृक्षों में आई बेतहाशा कमी के परिणामस्वरूप ही दिन प्रतिदिन पर्यावरण की समस्या बढ़ती ही जा रही है। उपग्रह से प्राप्‍त चित्र के अनुसार वनों का बहुत कम हिस्सा शेष रह जाने जैसी गंभीर अवस्था को देखते हुए संबंधित विभाग द्वारा वृक्षारोपण जैसे अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। किन्तु पुतलों के दहन में लाखों टन लकड़ी का अकारण जल जाना पर्यावरण सुधारने के प्रयासों की हत्या करने के समान है। विडम्बना तो इस बात की भी है कि जिन वृक्षों को व्यस्क होने में वर्षों लग जाते हैं उन्हें हम धार्मिक दुराग्रह के कारण चंद मिनटों में जला कर ख़ाक कर देते हैं।

फिर भी कुछ लोगों की नज़रों में विजयदशमी का पर्व पुतलों के दहन के बिना भले ही अपूर्ण माना जाए, किन्तु इतना तो सुनिश्चित होना ही चाहिए कि क्या पुतलों का दहन अपने उद्देश्यों की पूर्ति कर रहा है? वस्तुतः पुतले जला कर हम समाज को बुराइयों से छुटकारा दिलाने का स्वप्न संजोते हैं। काश! ऐसा संभव हो पाता। किन्तु कितने दुःख की बात है कि बरसों से पुतले जलाने पर सुरसा के मुख की तरह समाज में बुराइयां बढ़ती ही जा रही हैं। रावण का पुतला जलाते समय लाखों, करोड़ों लोगों का केवल एक ही मत यह होता है कि रावण को माता सीता के अपहरण की सज़ा युगों के बाद भी मिल रही है। किन्तु आज के सभ्य कहे जाने वाले समाज में तो एक-दो नहीं बल्कि लाखों रावण मौजूद हैं। सतयुग के रावण ने तो सीता का केवल अपहरण ही किया था। किन्तु आज के रावणों की सच्चाई कौन नहीं जानता? देश में छोटी-छोटी बच्चियों से लेकर वृद्ध महिलाओं तक का अपहरण ही नहीं बल्कि बलात्कार होता है। महिलाओं को नंगा करके पीटना और घुमाना अब सामान्य घटना बन कर रह गई है। 21वीं शताब्दी में विकास का दावा करने वाले देश भारत में आज भी न जाने कितनी ऐसी महिलाएं हैं जो पेट की आग बुझाने की ख़ातिर वेश्यावृति हेतु विवश है। प्रतिदिन सैंकड़ों युवतियां अरब की मंडियों में भेड़-बकरियों की तरह ख़रीदी बेची जाती है। ग़रीबी से तंग आकर अपने दुध मुंहें बच्चे को मात्र दो सौ रुपये में बेच देना या फिर सपरिवार आत्महत्या कर लेने की ख़बरों से भी जिनका कलेजा नहीं पसीजता, वे किस मुंह से रावण को जलाते हैं या जलता देखना चाहते हैं? इतिहास गवाह है कि रावण को सीता के अपहरण के कुकृत्य से बचाने के लिए मारीच, विभीषण, माल्यवान, मंदोदरी आदि ने रावण को सीता को सम्मान के साथ वापिस भेजने की सलाह दी थी। किन्तु आज समाज में कितने ऐसे व्यक्‍त‍ि हैं जो दहेज़ प्रथा, भ्रूण हत्या, अपहरण आदि सामाजिक बुराइयों का खुले-आम विरोध करने की हिम्मत रखते हैं? शायद ….. इक्का-दुक्का ही। यानी कि हम रावण समाज से गए-गुज़रे हो गए।

इसके अतिरिक्त एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि रावण को मारने का अधिकार केवल उस व्यक्ति को होता है जिसमें राम के गुणों को आत्मसात करने की क्षमता हो। हम श्रीराम के गुणों की तो बात ही क्या करें। रावण जितना भी चरित्र एकत्रित नहीं कर सके हैं हम। अनाचार, अत्याचार एवं भ्रष्टाचार के मामले में रावण को कहीं पीछे छोड़ चुके हैं। फिर भी बेशर्मों की तरह हम प्रतिवर्ष रावण का पुतला जलाना नहीं भूलते।

यदि कुछेक धार्मिक परम्परा की दुहाई देकर विजयदशमी के पर्व पर पुतले जलाना अनिवार्य समझते हों तो पुतला जलाएं, अवश्य जलाएं मगर रावण का नहीं बल्कि ग़रीबी, भूखमरी, बेरोज़गारी, अशिक्षा आदि सामाजिक बुराइयों को भी अवश्य भस्मीभूत करें। काग़ज़ी पुतलों को जलाने से आज तक न तो किसी समस्या का समाधान हुआ है न होगा। इस कलयुग में जो शख़्स राक्षस रावण के पुतले जला कर स्त्रियों के सम्मान की रक्षा का स्वप्न देखते हैं उनके बारे में किसी कवि ने ठीक ही कहा है।

आदमी, आदमी को छल रहा है, बरसों से यही क्रम चल रहा है।

हर चौराहे पे होता है सीता-हरण, मुद्दतों से जबकि रावण जल रहा है।

 

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