-गोपाल शर्मा फिरोज़पुरी

भारत की सांस्कृतिक विरासत और शिक्षा पद्धति विश्व विख्यात रही है। भारत की नालन्दा यूनिवर्सिटी चौथी शताब्दी से आरम्भ हो गई थी। यह वह विश्वविद्यालय था जिसमें दस हज़ार विद्यार्थी छात्रावास में रहते थे और उनके अध्ययन के लिये दो हज़ार अध्यापक हर वक़्त तैयार रहते थे। इस विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में तीन लाख पुस्तकें थी। यहां विद्यार्थियों को पचास के लगभग विषय पढ़ाये जाते थे। कुमार गुप्त द्वारा स्थापित इस विश्वविद्यायल का आकर्षण था कि देश तथा अन्य देशों के विद्यार्थी यहां खिंचे चले आते थे। यहां इतिहास भूूगोल, खगोल, विज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र, संस्कृत, ज्योतिष, भूगर्भ, आकाशीय पिंड तथा सागर के विषय में जानकारी दी जाती थी।

किसी देश की समृद्धि इस बात से नहीं जानी जाती कि उसमें धन सम्पदा और सोना-चांदी कितनी है बल्कि इस बात से जानी जाती है कि उसमें शिक्षित लोग कितने हैं। कितने लोग नैतिक और सदाचार मूल्य रखते हुये कीमतों कदरों से परिचित हैं। उसकी कितनी आबादी कर्त्तव्य परायण और ईमानदार नागरिकों का धर्म और मर्यादा निभाती है। कितने लोग राष्ट्र प्रेमी और देश के प्रति वफ़ादार हैं। कितने लोग अनुशासन प्रिय हैं जो समाज की भलाई के लिये अग्रसर रहते हैं।

इस संदर्भ में भारत का सिर सदैव ऊंचा रहा है। वर्तमान और भविष्य में भी ऊंचा रहेगा। भारत की स्वतंत्रता के बाद से शिक्षा के अर्थ बदल गयेे है। अब शिक्षा 3R reading writing and arithmetic तक सीमित नहीं है।

शिक्षा का अर्थ बच्चों का सर्वांगीण विकास करना है। बच्चों का शारीरिक मानसिक और नैतिक विकास करना है। बच्चे की हार्मोनियस डिवेल्पमेंट (सामंजस्यपूर्ण विकास) का नाम शिक्षा है। शिक्षा का उद्देश्य बालक को अच्छा सामाजिक प्राणी बनाना है। उसे राष्ट्र की रक्षा और राष्ट्रीय प्रेम के अतिरिक्त विश्वबन्धुत्व की भावना से जोड़ना है। वसुधैव कुटुम्बकम में विश्वास रखना होगा। अच्छे नागरिक की तरह सरकार की सम्पत्ति को नुक़सान नहीं पहुंचाना होगा। नक्सलवाद और आतंकवाद को जड़ से मिटाना होगा। तिरंगे, संविधान, राष्ट्रीय गीत को पूरा सम्मान देना, समाज और राष्ट्र के उत्थान में सहयोग देना शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विभिन्न सरकारों ने शिक्षा को महत्त्व देने के लिये विशेष प्रयत्न किए हैं। जब तक देश के लोग शिक्षित नहीं होंगेे भारत का विकास सम्भव नहीं है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु भारतीय संविधान के निर्देशक सिद्धान्तों में कहा गया है। भारतीय संविधान के चतुर्थ भाग में कहा गया है कि प्राथमिक स्तर तक के बच्चों को अनिवार्य और नि:शुल्क शिक्षा दी जाएगी। 6 वर्ष से 14 वर्ष के छात्र-छात्राएं सभी शिक्षा ग्रहण करेंगे। इसके उपरान्त सन् 1948 में राधा कृष्ण की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन हुआ और भारत में नई शिक्षा प्रणाली को अधिमान दिया गया। इसके थोड़ी देर उपरान्त शिक्षा की उन्नति के लिए लक्ष्मण स्वामी की अध्यक्षता में जो आयोग बना उसका उद्देश्य सभी नागरिकों को शिक्षा से जोड़ना तथा शिक्षा में त्रुटियों को दूर करना निर्धारित किया गया।

तत्पश्चात 1964 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में कोठारी आयोग बनाया गया, इसमें निम्न वर्ग के विद्यार्थियों को नि:शुल्क शिक्षा के साथ छात्रवृत्तियां किताबें देने का प्रावधान बनाया गया।

1968 में शिक्षा नीति पर एक प्रस्ताव प्रकाशित हुआ जिसकेे उद्देश्य के तहत राष्ट्रीय विकास के प्रति शिक्षा को कार्य कुशल तथा आचरण से समृद्ध बनाने का संकल्प लिया गया। देश के युवक-युवतियों को शिक्षा के माध्यम से समाज को उन्नत करने का बीड़ा उठाने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

सन् 1986 में शिक्षा की राष्ट्रीय नीति में सारे राष्ट्र के लिए एक जैसी शिक्षा लागू की गई। जिसे 10+2+3 की स्ट्रीम में जोड़ा गया। इसमें छात्र-छात्राएं दसवीं, बारहवीं या बी.ए के साथ विभिन्न व्यवसायों का चुनाव करते हैं। यह प्रणाली अब तक विद्यमान है। इस नीति से शिक्षा को व्यवसाय के साथ जोड़ा गया।

शिक्षा सुधार के प्रयत्न हेतु ही 1990 में आचार्य राममूूर्ति आयोग का प्रबन्ध हुआ जो शिक्षा में नवीन प्रयोगों के लिये उद्घाटित हुआ। इसमें प्रौढ़ों को भी शिक्षा के साथ जोड़ा गया। औद्योगिक और कृषि को आधार बनाया गया। 1993 में प्रो.यशपाल समिति का गठन हुआ जिसमें शिक्षा में वैैज्ञानिक ढंग अपनाने का सुझाव दिया गया। राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की विज्ञान कला को प्राथमिकता दी गई।

भारत की आज़ादी के बाद शिक्षा में काफ़ी उत्थान हुआ है।

लाखों इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, अध्यापक, प्रोफ़ेेसर, विश्वविद्यालयों के कुलपति, बड़े-बड़े रिसर्च स्कॉलर और थल-जल और वायु के अनुसंधान करता पैदा हुये हैं, परन्तु पिछले एक दशक से हल्ला मचा हुआ है कि शिक्षा मेें लगातार गिरावट आ रही है। नैतिक मूल्य और व्यवहारिक उद्देश्य छूट गये हैं। यह दुर्भाग्य है कि हमारी शिक्षा पतन की ओर जा रही है, क्या सचमुच ऐसा है? इसका उत्तर नकारात्मक ही है।

यह कहना उचित है कि हमने सिर्फ़ डॉक्टर, इंजीनियर और ब्यूरोक्रेट ही पैदा नहीं करने हैं बल्कि राज मिस्त्री, मैैकेेनिक, प्लम्बर, खेती बाड़ी के माहिर, उद्योग धन्धों से जुड़ने वाले कारीगर और श्रमिक भी पैदा करने हैं। खाली बाबू बनाने वाली नीति कदापि स्वीकार्य नहीं है। हाथ से लोहा कूटने वाले, सड़कों पर तारकोल डालने वाले, मशीनरी से दो हाथ करने वाले लोग चाहिये। परन्तु यह भी सत्य है कि पढ़े-लिखे लोगों की लम्बी लाईन है जो रोज़गार के लिये तड़प रहे हैं। महात्मा गांधी ऐसी शिक्षा को व्यर्थ मानते हैं जो व्यक्ति का पेट न भर सके। एक कथन है –  ”Education which gives no bread is worthless”

आधुनिक काल में शिक्षा पर न्यून बजट भी बेरोज़गारी का कारण है।

वैसे यदि विश्लेषण किया जाए तो आज का बच्चा शिक्षा में अधिक सक्षम है। पांच वर्ष केे बालक-बालिका इन्टरनेेट, कंप्यूटर, लैपटॉप और फ़ोटोग्राफ़ी में बड़ेे माहिर है। संगीतज्ञ तथा गायक हैं। कलाकार हैं, नृत्य में पारंगत हैं। भूगोल और विश्व के नवीन आविष्कारों की जानकारी रखतेे हैं। देश का युवक खेलों में विश्व से आगे है। तो यह शिक्षा का ही प्रताप है।

महज़ बिहार और राजस्थान की उदाहरण देकर यह कह देना कि शिक्षक वर्ग सामान्य ज्ञान से भी वंचित है उचित नहीं है। भारत बहुत विशाल देश है इसमें प्रतिभा की कमी नहीं है। आज भी द्रोण और परशुराम जैैसे गुरु विद्यमान हैं। बी.एड कोर्सों में वहीं शिक्षार्थी लेने चाहिए जो बहुत निपुण और योग्य हैं ऐरे गेरे को कोर्स में प्रवेश नहीं मिलना चाहिये क्योंकि शिक्षण कार्य महान और उत्तम कार्य है, इसके व्यवसाय में जुड़ने के लिए सख़्त मैरिट बनानी चाहिये।

टाउन बेल्ल के एक शिक्षाविद् का मानना है कि जो स्वयं पढ़ने या सीखने के क़ाबिल नहीं होते उनको पढ़ाने के लिए चुना जाता है।

हमारे देश में शिक्षा देने के लिए दो सेेक्टर हैं एक पब्लिक सेेक्टर और दूूूूूसरा प्राइवेट सेेक्टर।

पब्लिक सेेक्टर में सरकारी एलीमेेंट्री स्कूल, रमसा, हाई स्कूल, जमा दो तक स्कूल और कॉलेज तथा विश्वविद्यालय हैं।

अब शिक्षा का क्या दोष, जब सभी अयोग्य छात्र भी अध्यापन का कोर्स करके बेरोज़गार हो जाएंगे। सरकार की नौकरी में आरक्षण और प्रमोशन की नीति भी तो हानिकारक है। आरक्षण के आधार पर डॉक्टर और इंजीनियर प्रमोशन लेंगे तो मरीज़ मरेंगे नहीं तो क्या उनका सही इलाज होगा। नालायक इंजीनियरों के फलस्वरूप बिलडिंगें, पुल और दरिया के बांध टूटेंगे नहीं तो क्या बचेंगे? शिक्षा प्रणाली से सम्बन्धित निजी स्कूल बहुत बेहतर हैं जैसे कॉन्वेंट, मोंटेसरी, डी.ए.वी और आर्य समाज के स्कूल। सब अच्छे घरानों के अमीर बच्चे इन स्कूलों में दाख़िला लेते हैं, सरकारी स्कूलों में तो निम्न परिवारों के बच्चे ही आते हैं। इनका आई क्यू भी कम होता है। प्रकृति में जीनियस, होशियार, मध्यम लेेवल और फिर डफर भी छात्र होते हैं जो प्राय: सरकारी स्कूूलों में मिलते हैं। अब दही से मक्खन निकाला जा सकता है, परन्तु लस्सी से मक्खन नहीं निकाला जा सकता। इससे सरकारी स्कूलों का परिणाम न्यून रहता है, माता-पिता निर्धन और अनपढ़ होने के कारण इनको कोचिंग नहीं दे सकते और न ट्यूशन भर सकते हैं।

भारत की भौगोलिक स्थिति भी भिन्न है कहीं पठार, कहीं मरुस्थल, कहीं पर्वत, कहीं सूखा, कहीं बाढ़ शिक्षा को प्रभावित करती है, कहीं बिल्डिंगें नहीं, कहीं टीचर नहीं, कहीं बच्चे नहीं, इससे भी शिक्षा पर प्रभाव पड़ता है।

फिर जब भारत की 15 करोड़ जनता फुटपाथ पर सोती है, उनको भुुखमरी की समस्या है, तो आप उनके बच्चों को स्कूल खींच भी लायें तो वह पढ़ने में दिलचस्पी नहीं लेंगे।

कहावत है you can lead a horse to the pond, but you can’t make him drink. इस से ड्रॉप आउट्स यानि स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या बढ़ेगी। सरकार के लिए पहले उनके जीवन की रक्षा ज़रूरी है।

शिक्षा एक साधन है साध्य नहीं। शिक्षा आदमी के लिए है, आदमी शिक्षा के लिए नहीं है। भुखमरी सब समस्याओं की जड़ है।

‘भूखे पेट न भजन गोपाला यह लो अपनी कंठी माला।’ भूख से अपराध पनपते है।

पढ़ लिखकर यदि लोग बेरोज़गार रहे तो उनका दिमाग़ अपराधों की ओर बढ़ेगा।

पढ़े-लिखे बेरोज़गार नशे का धन्धा, जाली नोट बनाने का काम, साइबर क्राइम करते हैं तथा नक्सलवादी और आतंकवादी बन जाते हैं। क्योंकि भूखा आदमी क्या अपराध नहीं करता। वह तो मानव बम और नारी बम भी बन जाता है।

बेघरों और बेरोज़गारों को घर देना ज़रूरी हैं तब जाकर हम न्यू इन्डिया, मेक इन इन्डिया के बारे में सोच सकते हैं।

प्राइवेट स्कूलों वाले इस समस्या को थोड़ा बहुत लाभ पहुंचा रहे हैं, चाहे कम वेतन ही देते हैं परन्तु बेकार से बेगार भली के नाम पर बेरोज़गार अध्यापक उनसे जुड़ जाते हैं।

सरकार भी तो कई बार ठेके पर अध्यापक रखते हैं जो उचित नहीं है, इससे उनका मनोबल टूटता है।

शिक्षा स्तर के गिरने का कारण यह भी है कि अध्यापकों की अन्य कार्यों में ड्यूटी लगाई जाती है जैसे जनगणना, चुनाव और बाढ़ को रोकने के लिए। इससे पढ़ाई पर असर पड़ता है।

वैसे तो सभी सरकारी अदारों में बहुत त्रुटियां हैैं परन्तु ज़्यादा हो हल्ला शिक्षा विभाग पर ही पड़ता है।

सरकारी अस्पतालों में मरीज़ कौन दाख़िल करवाता है। पंजाब रोडवेज़ की बसों में कौन बैठता हैैै। सभी डीलक्स कोच और एयर कंडीशंड बसों में सवारी करते हैं। पुलिस विभाग और सैन्य विभाग कौन रिश्वत के बगै़र काम कर रहा है। माना कि शिक्षा विभाग में कुछ त्रुटियां हैं, परन्तु सरकार की ओर से भी तो बजट में अवहेेलना की जाती है। सारे बजट का 3 प्रतिशत ख़र्च करके शिक्षा का उत्थान नहीं हो सकता।

वर्ड बैंक से उधार लेकर अनुसूचित वर्ग को अनाज, पैंशन, किसानों की कर्ज़ माफ़ी, अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग की पानी, बिजली की मुफ़्त व्यवस्था, गैस सिलेंडर, लैपटॉप, साइकिल मुफ़्त बांटे जा रहे हैं। बोझ तो दूसरे वर्ग के लोगों पर बढ़ता है। सरकार उनको कार्य धन्धों में लगाने की बजाए भिखारी बना रही है। इसकी बजाय शिक्षा का बजट बढ़ाती तो शिक्षा की दुर्दशा नहीं होती। मैं तो कहता हूं कि प्राइवेट स्कूलों में अच्छा परिणाम दिखाने वाले स्कूलों की कुछ न कुछ आर्थिक सहायता करनी चाहिए।

शिक्षा में गिरावट सरकारी नीति के कारण भी आ रही है। कभी पांचवी तक किसी को फेल नहीं करना, कभी आठवीं तक, तो अध्यापक क्या करें? जिनकी नींव कच्ची रह जाती है वह नक़ल से ही आगे चलकर काम लेंगे। यहां एक और चिंतन का विषय है कि शिक्षा में अध्यापक शिष्या के सम्बन्धों में गिरावट आ रही है। होता तो अन्य महकमों में भी है यह अपराध, परन्तु गुरु शिष्या का रिश्ता पवित्र है। इसमें दुष्कर्म नहीं होना चाहिए। रिज़ल्ट की बात करें तो कौरवों और पांडवों को द्रोणाचार्य शिक्षा देते थे। केवल एक अर्जुन 105 विद्यार्थियों में से उत्तीर्ण हुआ था। फिर भी वह महान गुरु माना जाता है। इसलिये रिज़ल्ट का डंडा उनको नहीं मारना चाहिए। अगर पांच सात बच्चे भी साल भर में विशेष व्यक्ति बना दिये तो यह उनकी उपलब्धि माननी चाहिए। अध्यापक पद खाली पड़े रहते हैं, यह भी शिक्षा में गिरावट का कारण बनता है। अध्यापकों का वेतन अन्य उसके लेेवल के कर्मचारियों से अधिक होना चाहिये। ताकि वे अपने आप को विशिष्ट व्यक्ति समझ सकें। खेलों में प्रवीण तथा लेखक अध्यापकों को कुछ सहूलतें देकर प्रोत्साहित किया जाए। संगीत तथा कला के प्रेमियों को भी उचित स्थान मिलना चाहिए। शिक्षा में त्रुटि यह भी है कि छात्र जिस विषय में ज़्यादा रुचि रखते हैं उनका ध्यान न रखकर सारे विषय उन पर लादे जाते हैं। इग्लैंड, अमरीका में छात्र यदि ड्राईंग या चित्रकला में माहिर हो तो उसेे केवल उसी विषय में परिपक्क किया जाता हैं। विज्ञान और गणित वाले विद्यार्थी को उन विषयों में पारंगत किया जाता है। हमारे यहां मैथ साइंस में फेल तो उसे फेल माना जाता है।

भारत की शिक्षा नीति में बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ की सोच तो अच्छी है, परन्तु नारी सुरक्षित कहां है। असुरक्षा की भावना बनी रहती है। बिहार के शैल्टर हाउस का उदाहरण आपके सामने है जिसमें कमसिन लड़कियों के देह व्यापार की पोल खुली है। हमारे यहां हर पांच मिनट के बाद रेप हो जाता है। नारी सशक्तिकरण का दावा भी खोखला है। शनिदेव के मन्दिर में स्त्रियों को तेल चढ़ाने और पूजा अर्चना की पाबन्दी है। केरल के अयप्पा  मन्दिर में 10 वर्ष से 50 की नारी को प्रवेश नहीं दिया जाता। नारी न घर में, न बाज़ार, न दफ़्तर में सुरक्षित है तो शिक्षा के मायने क्या हुए। पंचवर्षीय योजनाओं में बढ़ चढ़कर शिक्षा पर नवीन विधि का लेखा जोखा होता हैं परन्तु बजट की कमी के कारण सभी योजनाएं विफल हो जाती हैं।

हम शिक्षा का मतलब केवल बच्चों के पाठयक्रम के परिणाम से लेते हैं। शिक्षा का क्षेत्र सीमित नहीं है। हरी क्रांन्ति, मकैनिकल टैक्नालॉजी, एटम एनर्जी, कम्प्यूटरीकरण, संचार व्यवस्था सभी शिक्षा का ही तो चमत्कार है। शिक्षा के क्षेत्र में भारत पिछड़ा नहीं है। भारत के डॉक्टरों, इंजीनियरों, वैज्ञानिकों तथा शिक्षकों की मांग बढ़ी है। भारत के नवीन बजट 2019 में भी नई शिक्षा नीति, नारी नारायणी, स्फूर्ति रोज़गार योजना पर बल दिया गया है। जिसका उद्देश्य नवीन भारत का निर्माण करना है। नीतियां तो अच्छी हैं, परन्तु ये केवल काग़ज़ों के पन्नों तक ही सीमित न रह जाएं। शिक्षा का सुधार अध्यापक पर ही निर्भर है। 

प्राइमरी टीचर से लेकर विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेेसरों को उनके योग्य काम पर वेतन में दो तीन तरक्क़ियां यदि पारितोषिक के तौर पर दी जाएं तो दूसरे अध्यापकों में भी प्रतिस्पर्धा की भावना उत्पन्न होगी। इस तरह शिक्षा में सुधार हो सकता है। भारत सरकार द्वारा शिक्षा के प्रति अभी और कार्य करने की आवश्यकता है। ऊंट किस करवट पर बैठता है यह तो भविष्य ही तय करेगा। परन्तु आश्वस्त रहना चाहिए कि शिक्षा का भविष्य उज्जवल ही होगा। स्मरण रहे कि जर्मनी में सबसे अधिक वेतन अध्यापकों को दिया जाता है। इंजीनियरों, डॉक्टरों, जजों और अन्य उच्च अधिकारियों का वेतन इनसे कम है। जब इन अधिकारियों ने सरकार से उनके बराबर वेतन मांगने की गुज़ारिश की तो सरकार ने उत्तर दिया कि तुम्हारी तनख़ाह उन के बराबर कैसे हो सकती है, वे ही तो जज, बैरिस्टर बनाते हैं। अध्यापक के बारे में कहा गया है ”Teacher is not a common man and a common man can’t be a teacher.” इसलिए अध्यापक बड़ा ही योग्य व्यक्ति होना चाहिए और ऐरा गैरा नत्थू खैैरा यानि कोई साधारण व्यक्ति नहीं हो तभी शिक्षा का सुधार हो सकता है।

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