दो सालों के बाद जब मित्ती ने पहली आवाज़ दी मैं उस समय भी सुलग रहा था। अभी भी मेरी हाथों की लकीरों पर उसका नाम था। मित्ती के चेहरे पर भी अभी तक मेरी ही परछाई थी परन्तु मैं तो सुबह का स्वप्न था जो अर्धनिद्रा वाले के लिए सच होने जैसा भ्रम था। अपने सिर के ऊपर की छत कुछ दूर खिसका कर वह बाहर आई तो उसकी गोद में एक बच्ची थी। मैंने झट से पहचान लिया। यह वही बच्ची थी जिसने मुझे डैडी कह कर संबोधित करना था। उसके नैन-नक़्श भी वही थे जो हमने अपनी बेटी के सोचे थे। उस बच्ची की रगों में दौड़ रहा शायद मेरा ही खून था पर मित्ती मेरी बीवी नहीं थी और मैं अपनी ही बेटी का बाप नहीं था। हम जहां मिले वह नो मैन्ज़ लैंड जैसी ही कोई जगह थी।

‘तुम्हारा क्या हाल है?’

‘मैं ठीक हूं … और तुम?’

‘मैं भी ठीक हूं।’

अकल्पित चुप से, परेशान से हो कर हमने एक दूसरे की ओर देखा फिर खिलखिला कर हंस पड़े। यह वही हंसी थी जिसे हम हमेशा हंसना चाहते थे। यह वही हंसी थी जो अब दीमक की रोगी थी। मित्ती की गोदी में सोई बच्ची उठ पड़ी। मित्ती ने थोड़ा सा घुटना हिलाया और फिर बेमतलब घास का तिनका तोड़ कर दांतों में दबा लिया।

‘मित्ती, … तुम खुश तो हो न?’

‘हां, … और तुम?’

‘ … मैं भी।’

स्वर बेपेंदे थे। जो अर्थ चाहिए थे दोनों ने निकाल लिए और जो अर्थ अनचाहे थे, हमने पांव की मिट्टी की तरह झाड़ दिए।

‘तुम मुझे याद करती रही हो न।’

‘नहीं! … और तुम?’

‘ … मैं भी नहीं।’

दो साल पहले सो गई शरारत ने आंखों में करवट ली। मैं उसकी ओर देख कर मुस्कुराया। वह फिर हंसी। कहानियों वाली राजकुमारी के हंसने से मुंह से फूल झड़ते थे। मित्ती की हंसी में कुछ उसी तरह का चमत्कार था।

दो साल पहले, दिन के चढ़ने जैसी यही हंसी संध्या का सूर्य बनकर डूबी थी। उस समय कई दिन भयंकर तूफ़ान चलता रहा था। बाद में बहुत बारिश हुई थी। शायद हम दोनों ही तूफ़ान से डर गए थे। हम दोनों को ही लगा, … छत चाहे मक़बरे की ही हो, बारिश से बचा सकती थी। बादल अभी भी थे। घबराहट में हमने अपने सिर के ऊपर छतें तान लीं थीं।

दुःखी मन से हमने एक दूसरे की तरफ़ देखा, हम एक छत के नीचे नहीं थे। हमारी आंखों के सामने बेमौसमी फ़सल होती तो सूख जाती, सपने तो कांच के थे …, टुकड़े-टुकड़े होकर आंखों में चुभ गए थे। अंदर से लहू-लुहान हो गए थे हम दोनों।

बिछड़ने के समय मित्ती ने मेरा हाथ दबा लिया था और फिर उसका हाथ मेरे हाथ में से ऐसे फिसला था जैसे मछली गहरे पानी में उतर रही होती है। वह अपनी बहनों के गले लग कर फूट पड़ी थी और फिर मेरी ओर झुकती हुई धीरे से बोली थी, ‘अब एक छत के नीचे आने से तो रहे परन्तु मुझे भूल ही मत जाना।’

मैं मित्ती के जाने के बाद बहुत रोया था, … फूट-फूट कर रोया था। खुदा की सब नियामतों में से मैंने सिर्फ़ यह छोटी-सी लड़की ही मांगी थी और वह भी नहीं मिल सकी थी।

अब की बार की मुलाक़ात अचानक नहीं थी पर कुछ ऐसी थी जैसे मलाई-बर्फ़ वाला भइया किसी बच्चे को बहलाने के लिए अपने चाकू से मलाई बर्फ़ उसके हाथ के पीछे की ओर लगा दे या ख़त लिखने के बाद अचानक याद आई बात जैसी बड़ी ज़रूरी या प्रेमिका को पत्र लिखने के बाद ख़ाली रह गए पन्ने को भरने की ख़ातिर लिखी बातों जैसी फ़िजूल।

मित्ती ने एक बार लिखा था, ‘तुम ऊंची एड़ी वाले जूते क्यों पहनते हो? … तुम तो पहले ही बहुत लंबे हो। … बात मेरी करो।’ मैंने जवाब दिया था, ‘पिस्तिए कहीं लंबी मत हो जाना, तुम मुझे छोटी सी ही प्यारी लगती हो।’ यह मुलाक़ात भी इन बातों जैसी ही थी, बड़ी बेमतलब परन्तु लगा बीत जाने के बाद हुई इस मुलाक़ात की जुगाली उम्र भर की जा सकती थी।

आज मैं मुद्दत के बाद मक़बरे से बाहर आया था। रौशनी देख कर मेरी आंखें चौंधिया गईं थीं। मैं अपने मक़बरे की छत देखने का आदी था। नीला अंबर बहुत अन्जान लगता था। लगा, … खुली हवा भी रास नहीं आएगी। मक़बरे की छत से नीचे जाने से पहले मैंने सभी सांसे इसी माहौल में लीं थी। एक मीठी-सी कंपकंपी आई। बीता मौसम फिर मेरा दोस्त बन गया।

‘तेरे उसका स्वभाव कैसा है? … अच्छा है न?’ मैंने इस तरह पूछा जैसे यही प्रश्न बाक़ी रह गया था।

मित्ती का चेहरा थका हुआ था जैसे अनचाहा बोझ ढोने के बाद हो जाता है।

उस पल ख़ाविंद उसके सामने आ गया। वह उसको वफ़ा की मूर्ति मानकर हर शाम बेगानी सीढ़िया चढ़ जाता था। वह गुम सी हुई मुस्कुराई और फिर बोली, ‘वह बहुत अच्छे हैं … कुछ भी नहीं कहते, … कभी ग़ुस्से नहीं हुए।’ एक दिन हंसते-हंसते बोले, ‘… तुम्हें अभी कुछ नहीं कहना, … सात सालों बाद कहूंगा।’

‘सात साल ही क्यों? … चार या पांच क्यों नहीं?’ उसकी मुस्कुराहट चेहरे पर फैल गई, ‘बस वैसे ही जैसे मैं तुम्हें सात समन्दर पार से मिलने आई हूं। हवा की सांय-सांय में सात सुर हैं। तेरी आंखों में सतरंगी झूला है औ …।’

‘… पर मेरी आंखों में तो एक ही क़ब्र है।’

उसकी मुस्कुराहट लुप्त हो गई, ‘तुम कैसी बातें करने लग पड़ते हो।’

‘बस ऐसे ही मुंह से निकल गया।’ मैं गिर रही पत्तियों वाले फूल की तरह हंसा, ‘पर सात, सात साल…।’

वह भी मेरे जैसी ही हंसी, ‘कर्कश बोल अब मेरे बदन से फिसल जाते हैं परन्तु सात साल बाद …।’

मुझे अपनी पत्नी का ख़्याल आ गया जो इस समय मक़बरे के दमघोटू माहौल में बैठी होगी। धूप का धुआं पूरे मक़बरे में फैल चुका होगा। अब शायद उसका दम भी घुट रहा हो। मित्ती के देश में तो शायद लोग मक़बरे को रौशनदान और खिड़कियां भी लगा लेते होंगे। ‘वह देश भी इसी देश जैसा है। वहां भी लोग मक़बरे में रहते हैं,’ मित्ती पोहली के फूल जैसा हंसी, उसकी हंसी में बहुत कांटे थे। वह बोली, ‘जानते हो? … हमारी ही तरह वे लोग भी नहीं जानते कि जहां वे रहते हैं वो घर नहीं। बस अपनी तरह वे भी रह ही लेते हैं। … पर तुम अपनी भी तो कोई बात करो कि मेरी ही सुनते रहोगे?’

एक रात पत्नी मेरे साथ आकर लेट गई थी। मुझे अर्ध निद्रा में लेटे को उसने बांहों में ले लिया। मैंने उसे अपने साथ सटाते हुए धीरे से कहा था, ‘मित्तू, … तुम मुझे छोड़ कर तो नहीं जाओगी न? … मैं सच में तुम्हें बहुत प्यार किया करूंगा।’

पत्नी की बांहों का कसाव ढीला हो गया था। उसके ठण्डे बोलों ने रात को भी शीत कर दिया था। उसने कहा, ‘मैं मित्ती नहीं हूं।’ … और मेरी नींद उड़ गई थी।

पत्नी ने अपने ख़्वाबों की चुनाई शादी से काफ़ी पहले की शुरू की हुई थी। उसने चुनाई उसी पल रोक दी। कुछ रातें तो वह दूसरी चारपाई पर सोती रही और फिर अचानक एक रात उसे ख़्याल आया कि मेरे और उसके बीच की ख़ाली जगह में मित्ती होती है। उस रात के बाद वह फिर कभी अलग नहीं सोई।

‘बीवी और ख़ाविंद के बीच की ख़ाली जगह पर हमेशा प्रेमिका होती है। मैं तो फिर भी वहां ही रहूंगी। … मैं तो अब कहां जाऊंगी।’ मित्ती ने मेरी बात सुन कर ठण्डा श्वास लिया। उस पल उसको अपनी सेज याद आ गई, जहां उसके और उसके पति के बीच में भी एक प्रेमिका थी, जहां रात के अंधेरे में वह पति के साथ सोई प्रेमी का तन भोग लेती थी। उसी कालिमा का लाभ लेकर वह भी उसे प्रेमिका मान लेता था। वह उदासी में बोली, ‘हर बिस्तर में इसी तरह होता है परन्तु तुम समझौता क्यों नहीं करते? … उस बेचारी का क्या क़सूर?’

‘वह मित्ती नहीं …।’ मैंने उससे आंख चुराते हुए कहा।

‘उसे लेकर भी तो तुम ही आए थे।’

‘उस समय मेरे पैरों के नीचे पावदान लगे हुए थे। अपने पैरों के साथ लेकर आता तो बात और थी।’ बात करते हुए मुझे ख़्याल आया कि हम दोनों श्रापित श्वास ले रहे थे। मैं चाहता तो स्वतंत्र होने के लिए मित्ती के सिर घटिया-सा इलज़ाम लगा सकता था। वह अपने पति को पतिव्रता होने के विश्वास के साथ बहला कर अपने प्रेमी से मिलने आई थी। मित्ती चाहती तो कोई ऐसा ही इलज़ाम मेरे ऊपर लगा सकती थी परन्तु हमारी दोनों की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी। इस तरह का कोई इलज़ाम हमारे ऊपर लग भी नहीं सकता था। हम हर्गिज़ मुजरिम नहीं थे। लंबी उम्र के जो वर्ष हमसे छीन लिये गए थे, उन सालों में से सिर्फ़ इस शाम के धुंधलके को सफ़ेद दिन जैसा एहसास देने के यत्न में थे। हमारे सिर कुछ समय जी लेने का इलज़ाम शायद लग सकता था।

मैंने सोई हुई बेटी के माथे पर आए पसीने को हाथ से पोंछा, ‘इसके सिर से टोपी उतार देते हैं … इसे गर्मी लग रही है।’

मित्ती ने चुपचाप अपनी बेटी के सिर से टोपी उतार दी। कलाई घड़ी की ओर देखते हुए वह उठ बैठी, ‘मैं अब चलती हूं … और कहीं …।’

मैंने झुककर प्लास्टिक का थैला उठाया और उसे पकड़ा दिया। थैली में बच्ची के पोतड़े थे, दूध की बोतल थी और ऊन के गोले में गड़ी दो सलाइयां।

‘फिर कब आओगी?’

‘जितनी देर पैर अपने हैं आऊंगी। मैं तो आती ही रहूंगी।’ वह चलने लगी तो मेरा हाथ बेटी के सिर पर चला गया।

‘इसने तो मुझे कुछ कहा ही नहीं?’ मैं मोह में डूब कर बोला।

‘जिस दिन इसे बोलना आ गया यह बहुत कुछ कहेगी।’

मेरी आंखों में टूट चुके कांच के टुकड़े आपस में जुड़ कर चमके। मैंने धीरे से कहा, ‘यह शायद मुझे डैडी कहेगी।’

मैं बिना सोचे समझे ही बोल गया था। मैंने जल्दी से ज़ुबान काट ली। उसने बेबसी-सी में मेरी ओर देखा। सब्र का बांध तो शायद पहले भी टूटने वाला था। बोलों की आख़िरी लहर तो एक बहाना थी। उसने दुपट्टे का किनारा मुंह में लेकर चबा लिया था और आंसू पोंछती हुई फूलों से विहीन गुलाब की ओर देखने लग पड़ी।

मैं जानता था कि मेरी बेटी मुझे डैडी नहीं कहेगी। वह मुझे डैडी कह भी नहीं सकती थी।

‘तुम अपना ख़्याल रखना, … मेरा ठीक चल रहा है … मेरी फ़िक्र मत करना … सब बढ़िया है … आज कल हमने कार भी ले ली है।’ और वह दाएं-बाएं देखती हुई अपने मक़बरे की ओर चली गई।

उसके जाने के बाद मैं वहीं बैठ गया। मुझे अपने मक़बरे में जाने से बहुत डर लग रहा था। मक़बरे के अंदर वह औरत थी जो हर पल मेरी तसवीर के सामने धूप जला कर रखती थी।

मैंने मित्ती के क़दमों के निशानों की ओर देखते हुए अपने तय किए सफ़र का हिसाब लगाया। बीती उम्र का एक अर्थ यह भी निकला कि गीली लकड़ी की तरह सुलगते रहो। बेचैनी-सी में मैंने पांव की फटी बिवाईयों को घास के तिनके से खुजलाया … निराशा से भरी हुई लाश को पीठ पर उठा कर चलने से लाश को दफ़ना कर कम भार होकर चलना बेहतर है।

पता नहीं चलने और रुकने के अर्थ समुद्र थे या रास्ते की पहचान। डुबकी लगाने के बाद मेरे हाथ में यक़ीन की सिर्फ़ एक ही सीप थी, … अगरबत्ती की खुशबू से भी मक़बरे ने मक़बरा ही रहना था। यह वह पल था जब मेरा दिल किया कि अपने सिर मरने का इलज़ाम लेकर बच गई उम्र लेकर जी लूं।

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