-सुरेन्द्र कुमार अंशुल
अभी-अभी पापा बाहर से लौटे हैं, थके हारे से। मुख पर थकान के भाव फैले हैं आंखों में निराशा। मैं जानती हूं कि ऐसा क्यों है? पापा मेरे विवाह को लेकर चिंतित हैं। हर जगह दहेज़ का दानव अपना मुंह फाड़े खड़ा है। बात सिरे ही नहीं चढ़ पाती। पापा की चिंता का कारण यह भी है कि उम्र दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। पापा की हालत देख मुझ से रहा नहीं गया। बोली, “पापा! आप मेरी शादी को लेकर क्यों परेशान होते हैं? जब होनी होगी, हो जाएगी।”
“तू नहीं समझेगी बेटी! बाप हूं न! कैसे भूल जाऊं कि…?” पापा के चेहरे पर उदासी उभर आई।
“पापा! मेरे कारण छोटे भाई की शादी में भी देरी हो रही है। आप कम-से-कम उसकी ही शादी कर दें। उसकी शादी में मिले दहेज़ को आप मेरे विवाह में उपयोग कर सकते हैं?” मैंने समस्या का हल सुझाया था।
पापा फीकी हंसी हंसे। बोले, “मैं दहेज़ के ख़िलाफ़ हूं बेटी। बेटे की शादी में मैं दहेज़ नहीं लूंगा और दहेज़ आया भी तो उसका उपयोग तुम्हारी शादी में करने की सोच ही नहीं सकता। सोचो, जो तुम्हारी भाभी आयेगी उसके मन पर क्या गुज़रेगी? तुम स्वयं को उसकी जगह पर रख कर देखो? मैं ऐसी भरपाई की बात सोच ही नहीं सकता।” मुझे पापा के थके व उदास चेहरे पर विशेष आभा नज़र आ रही थी। मुझे पापा आदर्श की एक ऊंची मीनार लगे थे।”