-निर्मल सिंह भाटिया

 

आज महिलाएं अपने हक़ की बात तो करती हैं, लेकिन अपने फ़र्ज़ों से मुंह मोड़ रही हैं। वह भूल जाती हैं कि परिवार में एवं समाज में उसकी क्या भूमिका है? उसे कौन-कौन से फ़र्ज़ अदा करने हैं।

आज की नारी स्वयं एक बेटी, बहन, पत्नी, मां एवं सास के रूप में अपने कर्त्तव्यों को पहचाने। तभी अधिकारों की बात करनी सार्थक होगी। सर्वप्रथम नारी का शिक्षित होना अति अनिवार्य है तभी वह अपने अधिकारों के प्रति सजग होगी। आज की औरत पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर सुष्मिता सेन, ऐश्वर्या राय, मनप्रीत बराड़ तो बनना चाहती हैं लेकिन मदर टेरेसा की तरह स्वयं दुःख सहन करके दूसरों को सुख दे सके, ऐसी भावना आलोप हो रही है।

क्या औरत ने यह अनुभव नहीं किया कि जिस समय वह केवल घर में ही थी और उस समय घर की चार-दीवारी में ही अपने पारिवारिक फ़र्ज़ों की पालना करती थी, उस समय के बच्चे आज के बच्चों से अधिक आज्ञाकारी और सहनशील होते थे? आज की नौजवान पीढ़ी किस ओर जा रही है? क्या इस संदर्भ में हमने कभी सोचा है? क्या औरत अपने अधिकारों की बात करती हुई यह भूल गई है कि बच्चों की पहली मार्गदर्शक मां है? क्या जिस समाज ने औरत के अधिकारों की बात की है, घर की चार-दीवारी से बाहर निकलकर आज़ादी दिलाने में सहायता की है उस स्वस्थ समाज की सृजना में योगदान देना उसका कर्त्तव्य नहीं बनता?

आज विश्व स्तर पर महिला दिवस मनाए जा रहे हैं एवं कई सैमीनार करके स्त्री को समानता दिलाने की बात एवं अन्य अधिकारों की बात की जा रही है। जिस औरत को बराबरी दिलाने हेतु सारा विश्व व्याकुल हो रहा है, जिसके अधिकारों की बात समाज का हर वर्ग कर रहा है। क्या औरत स्वयं भी अपने अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक है?

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