-गोपाल शर्मा फिरोज़पुरी

हमारी धरती अजूबों से भरपूर है। पृथ्वी पर गहरे सागर, विशाल पर्वत, छल-छल करती नदियां, सुन्दर सुन्दर झीलें तथा कई प्रकार जल प्रपात बिखेरते झरने विद्यमान हैं। इन प्राकृतिक तोहफ़ों में सबसे महत्वपूर्ण वनस्पति और घने जंगल हैं। इन वनों में फलदार वृक्ष छायादार वृक्ष और सूखे मेवों के वृक्ष हैं जो मानवता के लिये बहुत उपयोगी हैं। खूबसूरत, मनोहर बाग-बग़ीचों और उपवनों को देखकर आदमी हैरत में पड़ जाता है कि कुदरत ने हमें वनस्पति की सम्पदा देकर कितना एहसान किया है। पृथ्वी के प्रारम्भ में जब मानव धरती पर आया तो वह इन जंगलों और वनों पर निर्भर था। वनों से कन्दमूल खाकर गुज़ारा करता था और घासफूस के बिस्तर पर लेट कर अपनी निद्रा को पूरा करता था। पहनने को वृक्षों के पत्ते और छाल उसके काम आते थे। धीरे-धीरे मानव प्रगति करता हुआ पाषाण काल को, पत्थर युग को लांघता हुआ आधुनिक युग का सभ्य मानव बन गया। उसने कृषि करने के ढंग जो पुराने थे उनको नकार कर मशीनी युग में प्रवेश कर लिया।

बेशक मानव इस वैज्ञानिक युग की दहलीज़ पर खड़ा है परन्तु वनों और जंगलों के महत्त्व को दर किनार नहीं कर सकता है। ये जंगल और ये वृक्ष जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों और खूंखार पशुओं का सहारा हैं। इन वनों में सुन्दर-सुन्दर पक्षी – चिड़ियां, मोर, तोते, चहचहाते हैं। हाथी-घोड़े, शेेर-चीते सब विचरते हैं। मानव का विकास तो जंगलों के बिना हो ही नहीं सकता। सुख-सुविधा के जितने भी प्रसाधन हैं वे हमें वनों से ही प्राप्त होते हैं। रहने को मकान से लेकर लकड़ी और भोजन भी वनस्पति पर निर्भर हैं। परमात्मा की बनाई सृष्टि में जीने के लिये पानी और वनों की आवश्यकता है। पानी में रहने वाले जीवों को पानी ही जीने की शक्ति देता है। मनुष्य पशु-पक्षियों तथा अन्य जीवों को वनों की ज़रूरत है। परन्तु अफ़सोस की बात यह है कि इन दोनों प्रकार के साधनों का ग़लत प्रयोग करके हम अपने पांव पर कुल्हाड़ी चला रहे हैं। बेतहाशा पानी बहाकर पानी के स्त्रोतों को मिटा रहे हैं। नदियां तालाब सब सूख रहे हैं हम इनमें गन्दगी फैलाकर पर्यावरण को दूषित कर ही रहे हैं बीमारियों को भी आमन्त्रण दे रहे हैं। बूंद बूंद पानी बचाना हम भूल गये हैं खुले नल बह रहे हैं परन्तु हमें कोई परवाह नहीं। अन्धा धुन्ध वृक्षों की कटाई से हमने अपने लिये आपदाओं और संकटों को बुला लिया हैं। जिन वनों की रक्षा के लिये हमारे ऋषि-मुनि यज्ञ करते रहे वे परम्परा हम भूल गये हैं। उन्हें पता था कि हवन से उठने वाले धुएं से कार्बनडाईऑक्साईड निकलती है जो वृक्षों के भोजन के लिये ज़रूरी है। हमें भली-भान्ति ज्ञात है कि वृक्ष तथा पौधे ऑक्सीजन छोड़ते हैं जिनसे हमारी सांसें चलती हैं। यदि जंगल काटे गये तो क्या ऑक्सीजन का सिलेेंडर पीठ पर लाद कर हम चलेंगे। वृक्षों के अभाव से हम नायाब फलों से वंचित हो जाएंगे। जीवन में कोई आकर्षण नहीं रहेगा। कुदरत हमसे बदला लेगी। सूर्य की प्रचण्ड किरणेें धरती का तापमान उग्र कर देंगी, चमड़ी के रोग और शरीर झुलसने लगेगा।

ग्लोबल वार्मिंग का भूत नंगा होकर नृत्य करेगा। सारी जनता त्राहिमाम् त्राहिमाम् करेगी। सागर तप्त होकर उछलेंगे। कहीं सुनामी आएगी तो कभी तूफ़ान 400 मील की रफ़्तार से दौड़ेेंगे। कहीं भूकम्प आएंगे तो कभी मूसलाधार वर्षा से तबाही मचेगी। धरती के जीव तिलमिलायेंगे। प्रकृति का सन्तुलन बिगड़ जायेगा। हर प्राणी दु:ख संताप और कष्ट झेलेगा। कहीं भुखमरी होगी तो कहीं अकाल पड़ेगा। समरण रहे कि जंगल वर्षा करने में भी सहायक हैं। वनों के कटाव से ज़रख़ेेज भूमि भी मरुस्थल बन जाएगी। ज़रूरत से ज़्यादा वनस्पति का काटना और प्रयोग करना मानवता के लिये कितना घातक है, यह हमारे वनस्पति के विशेषज्ञ संकेत दे चुके हैं। वनों को काटना आत्मघात माना जाएगा। इसी कारण एक बार चिपको लहर चली थी जिससे लोग वृक्षों से चिपक कर ठेकेदारों को वृक्ष नहीं काटने देते थे। इस प्रकार की लहर सारे भारत में चलनी चाहिए ताकि वन जीवन को बचाया जा सकेे। वनों के अनगिनत लाभ हैं जो गिनाये नहीं जा सकते। हमें नये पौधे लगाने की मुहिम को तेज़ी से लागू करना चाहिए। डूबते हुये पर्यावरण को बचाने का यही एक मात्र हल है। बड़े-बडे़ शहरों और महानगरों में प्रदूषण की समस्या क्यूं खड़ी हुई है। दूर दूर तक भी कोई छायादार वृक्ष नहीं, सड़कें वृक्ष विहीन हैं, ऊपर से कारखानों का स्याह धुआं, मोटर गाड़ियों का काला धुआं वातावरण को गन्दा कर रहा है। कार्बन ही कार्बन सांसों की बीमारी को उत्पन्न कर रही है। इस कार्बन ने ताजमहल की सुन्दरता को नष्ट कर दिया है। कार्बन के कारण आकाश में फैली ओजोन की पट्टी पतली पड़ रही है। आकाशीय पिण्डों में उथल-पुथल मच रही है। आकाश गंगा निर्बल होकर टूट रही है। वैज्ञानिक दुहाई दे रहे हैं, चेतावनी दे रहे हैं कि संसार में धरती का ताप क्रम इतना बढ़ जाएगा कि गर्मी को मनुष्य और जीव-जन्तु सहन नहीं कर पायेंगे। पर्वतों से बर्फ़ के तोेंदे और ग्लेशियर पिघल कर बाढ़ की समस्या उत्पन्न कर देंगे। ध्यान रहे कि नदियों पर बाढ़ का आक्रमण, वनों की कटाई के कारण बनता है। बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल की बाढ़ ने कितनी तबाही मचाई, कितने घर बहे, कितनी सम्पत्ति नष्ट हुई उसकी भरपाई आज तक दुर्लभ है। कहीं गंगा उछलती है तो कहीं सतलुज, ब्यास और रावी नुक़सान पहुंचाती हैं। वनस्पति को तहस नहस करना और वनों को नुक़सान पहुंचाना कदापि हितकर नहीं हो सकता। उन्नत समाज के लिये वनों का संरक्षण अत्यावश्यक है। आधुनिक संदर्भ में सृष्टि के विकास और राष्ट्र की प्रगति के लिये ज़्यादा से ज़्यादा पौधे उगाये जायें और अनहोनी से, आपदाओं से छुटकारा पाया जाये।

One comment

  1. This actually answered my problem, thanks!

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