घर में शादी की चहल-पहल थी। सावित्री की नज़रें रास्ते पर लगी थी। ‘सुनो जी, मानव, मधु और बच्चे अभी तक नहीं पहुँचे। उन्हें फ़ोन करके पूछ तो लो, कहाँ हैं अब तक?’ सावित्री ने अपने पति दीनानाथ की ओर मुड़ते हुए कहा।

‘दादी जी, मैंने अभी फ़ोन किया था, वे रास्ते में हैं – बस पहुंचने ही वाले हैं।’ इससे पहले दादा जी कुछ कहते, नमन बोल उठा।

‘पता नहीं यह बहू मधु – इसका सिंगार ही नहीं होता। पता है, घर में जेठ की लड़की की शादी है। एक दो दिन पहले आकर काम तो क्या संभालना था, दिन के दिन भी नहीं पहुँच सकती।’ सावित्री अपने आप ही बुड़बुड़ाए जा रही थी।

‘दादी! चाची, चाचा आ गए।’ नमन चहक उठा। उसने चाची से सूटकेस लिया और अंदर रखने चला गया।

‘नमस्ते मां जी।’ सावित्री के चरण स्पर्श करते हुए मधु ने कहा।

‘नमस्ते! बड़ी देर कर दी तुमने?’

‘किसी कारणवश हम पहले नहीं आ सके माँ।’ मानव ने सावित्री के चरण स्पर्श करते हुए कहा।

‘अपने घर की शादी में देर से आने का बहाना नहीं ढूंढ़ा करते। तू तो है ही बहू का पिछलग्गू। जैसा बहू कहेगी वैसा ही करेगा। तुझसे तो कुछ कहना ही बेकार है।’ सावित्री ने समय और अवसर को देखे बिना ही कह डाला।

मानव की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। वह तुरंत वहां से एक कोने में गया, रुमाल से अपने आँसू और चेहरा साफ़ किया। उसने मधु की ओर देखा जो शांतचित्त खड़ी अन्य महिलाओं के साथ बतिया रही थी। मानस और मुस्कान तो पहले ही अन्य बच्चों के साथ घुल-मिल गए और उनके साथ गप्पें लड़ाने में मस्त थे। मानव थोड़ी दूर खड़े अपने पिता एवं अन्य अतिथियों से मिलने के लिए आगे बढ़ गया।

बारात आने में अभी काफ़ी समय था। सभी मेहमान पहुँच चुके थे। मानव अपने भाई अविनाश और भाभी सुमन के पास पहुँचा और देरी से आने के लिए खेद प्रकट किया। मधु भी उनके पास पहुँची और उनके काम में हाथ बंटाने लगी।

‘मधु, तुम इतना सफ़र करके आई हो, हाथ मुँह धोकर तैयार हो जाओ। बारात अभी आने वाली है।’ सुमन ने मधु से कुशलक्षेम पूछने के पश्‍चात् कहा।

‘ठीक है दीदी।’ कहकर मधु ने हाथ मुँह धोया और तैयार हो गई। तब तक बारात भी आ गई थी। समस्त कार्य सुचारु रूप से हो रहा था। सावित्री की दृष्‍ट‍ि एकाएक मधु के गले पर आकर अटक गई। ‘हे भगवान्! इस बहू ने तो हमारी इज़्ज़त का फ़ालूदा बना दिया। न गले में हार, न मंगलसूत्र, न कानों में झुमके, न नाक में नथनी और न अंगुली में अंगूठी। हद कर दी इसने तो! कोई भी पहचान सकता है कि इसने नक़ली गहने पहने हैं।’ उसे गुस्सा तो बहुत आया पर उसको पी गई – दुबारा उगलने के लिए। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई बात उसे आसानी से पच जाए, विशेषकर किसी पर आया गुस्सा। गुस्सा जब मधु पर आया हो तो पचने का सवाल ही पैदा नहीं होता।

एक एक करके सभी रस्में पूरी हो गई। मानव और मधु ने अपने आशीर्वाद और पाँच सौ एक रुपए के सिवा लड़की को कुछ नहीं दिया। उनको ऐसा करते देख अड़ोस-पड़ोस की महिलाएं खुसर-पुसर करने लगी। शहर में रहकर कंजूस हो गए हैं दोनों। सच है जब मर्द औरत के कहने में चलने लगे तो उसे अपनी मान-मर्यादा का ध्यान नहीं रहता।’ एक औरत ने चुग़ली रूपी यज्ञ में अपनी आहुति डालते हुए कहा।

‘भाई साहब नौकरी करते हैं और यह महारानी ब्यूटी पार्लर चलाती हैं। इतनी कमाई है दोनों की, एक ढंग का ज़ेवर तो बनवा ही सकती थी जेठ की लड़की के लिए!’ दूसरी औरत ने भी चुग़ली यज्ञ में अपनी आहुति डालते हुए कहा।

‘हो सकता है बेचारी की कोई मजबूरी रही हो। घर-गृहस्थी में सौ तरह के काम आ पड़ते हैं।’ एक अन्य ने अपना तर्क देते हुए कहा।

‘बस-बस, तू तो चुप रह। अपना मकान बना लिया शहर में, बिन पैसे के बन गया वो?’ पहले वाली महिला ने उसका तर्क काटते हुए कहा।

‘शहर में मकान बनाना खाला जी का घर नहीं है। मकान बनाने के बाद शायद कुछ खर्च करने की गुंजाइश ही न रही हो।’ तीसरी हार मानने के लिए तैयार नहीं थी।

‘तू तो रहने ही दे। तुझे तो शायद उन्होंने कुछ खिला-पिला रखा होगा, इसलिए उनका पक्ष ले रही हो। क्या घर में खाना भी नहीं खाते वो या खाना भी छोड़ दिया? आदमी इतना तो कर ही सकता है कि भतीजी की शादी में अपनी नाक बचा सके। पर ………. रब बचाए ऐसे चाचा और चाची से।’ कहकर दूसरी वहाँ से खिसक गई।

‘अरे! यह तो अपने गहने भी पहन कर नहीं आई। शायद इसलिए कि कहीं इसे खुद ही शर्म आ जाए और कोई गहना ऐन वक़्त पर देना न पड़ जाए। बहुत चतुर और चालाक है छोटी बहूरानी तो! अपनी सास से भी दो कदम आगे।’ पहली महिला ने चर्चा में और मसाला डाला।

‘चुप कर, सावित्री सब सुन लेगी। अपनी बहुओं की तरह कहीं हमारी भी खटिया न खड़ी कर दे।’ एक अन्य महिला ने पहले वाली को सावधान करते हुए कहा।

पास खड़ी सावित्री यह सब सुन रही थी। उसका पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया था। उसे छोटी बहू और बेटे पर बहुत गुस्सा आ रहा था। वह मंजू की विदाई की प्रतीक्षा कर रही थी। मंजू विदा होकर चली गई। मेहमानों से क्षमा-याचना कर उसने सभी परिवार के सदस्यों को एक बड़े कमरे में बुलाया। सावित्री की आँखों में धधकते अंगारों को देख दीनानाथ को लगा कि ज्वालामुखी बस अब फटने ही वाला है। इसका लावा शायद छोटी बहू पर गिरने वाला है। छोटी बहू मधु के साथ सावित्री की कभी नहीं बनी। वह चाहती थी कि बहू मानव के पास न रहकर उसके पास गाँव में रहे, उसकी सेवा करे। मगर मधु ने उसकी बात नहीं मानी। इस एक बात ने मधु को सावित्री की नज़रों में गिरा दिया। उसके बाद जब भी सावित्री को अवसर मिलता है, वह अपना गुस्सा मधु पर निकालना नहीं भूलती। कई बार तो वह इतना अपमान करती है कि मधु की जगह कोई और होती तो शायद वह भूल कर भी यहाँ कदम न रखती। आज जब सारा घर मेहमानों से भरा है, तब भी वह मधु को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। दीनानाथ को इसका पूर्वानुमान लग गया था, इसलिए वह इस ज्वालामुखी के लावे को शांत करने का कोई उपाय सोचने लगे।

सभी परिवारजन बड़े कमरे में इक्ट्ठे हो गए। सावित्री ने बात का आरंभ करते हुए कहा, ‘आज छोटी बहू ने तो हमारा जुलूस निकाल कर रख दिया। यह नक़ली गहने पहन कर चली आई, इसको हमारी इज़्ज़त का ज़रा भी ध्यान नहीं आया। लोग तो यही सोचेंगे कि सास ने छीन कर अपने पास रख लिए होंगे। दूसरे, खाली हाथ चली आई शादी में, क्या दिया इन दोनों ने मंजू को? इनसे खरे तो गाँव वाले निकले, जो कोई न कोई उपहार लेकर आए थे। दिमाग़ के साथ साथ घर का भी दीवालिया निकल गया क्या? खैर मुझे क्या, बहू तो फिर भी पराया खून है। बेटा तो मेरा अपना खून है …………. जोरू के ग़ुलाम हो मानव तुम! जहाँ बहू कहती है, वहां पांव धरते हो। इतनी जोरूभक्‍त‍ि भी अच्छी नहीं होती बेटा। मुझे तो डर है कि तुम्हारे साथ रहकर मेरे पोता-पोती भी कहीं बिगड़ न जाएं।’

‘अब चुप भी करो सावित्री! कितना कुछ कह गई हो। शादी वाला घर है, किसी मेहमान ने सुन लिया तो क्या सोचेगा? ………… हो जाती है ग़लती सभी से, इनसे भी हो गई तो क्या पहाड़ टूट गया?’ दीनानाथ ने सावित्री को चुप कराने का निरर्थक प्रयास किया।

‘बस, तुम चुप रहो जी। तुमने ही इनको सिर पर चढ़ाया हुआ है। तुम सह लो ये सब बातें, मैं सहन नहीं करुंगी।’

‘क्या करोगी तुम?’

‘इनसे सब रिश्ते तोड़ लूंगी।’

‘क्यों बात को बेवजह बढ़ा रही हो? बच्चे हैं, इन्हें क्षमा कर दो। जब अविनाश और सुमन को इनसे कोई शिकायत नहीं तो तुम क्यों अपना पारा चढ़ा रही हो?’

‘नहीं …….. नहीं। मैं आज इस बात का फ़ैसला करके रहूंगी कि ये मेरे साथ रिश्ता रखना चाहते हैं या नहीं?’

‘माँ मुझसे या मधु से जो भी भूल हुई है, उसके लिए मैं हाथ जोड़कर क्षमा मांगता हॅूं। प्लीज़…. माँ! हमें माफ़ कर दो। कोई बेटा भला अपनी माँ से रिश्ता तोड़ सकता है। नहीं न, तो हम कैसे तोड़ सकते हैं माँ?’ मानव ने सावित्री के चरणस्पर्श करते हुए कहा। सावित्री मुँह फेर कर खड़ी हो गई और उसकी ओर बिना देखे बोली, ‘यह ढोंग करने की आवश्यकता नहीं। मुझे ढोंग से नफ़रत है।’

घर के शेष सदस्य केवल सुन रहे थे। सावित्री की बात काटने का साहस किसी में नहीं था। मधु आगे बढ़ी और बोली, ‘माँ जी, अगर आपकी बात पूरी हो गई हो तो हमें जाने की आज्ञा दीजिए। हमें आज ही शहर पहुँचना है।’

‘नहीं बहू, तुम लोग आज कैसे जा सकते हो?’ दीनानाथ जी बोले।

‘बाबू जी, कल हमें डॉक्टर ने अस्पताल में बुलाया है। वहाँ जाना बहुत ज़रूरी है। वरना बहुत देर हो जाएगी।’

‘डॉक्टर …………. अस्पताल ………… देर ? मगर क्यों?’

‘बाबू जी ………..!’ मधु ने कहना आरंभ किया तो मानव बीच में ही बोल पड़ा, ‘बाबू जी, कुछ भी नहीं ………. बस वह तो ………. यह पगली मेरी बहुत चिंता करती है न ………… इसलिए इतना कुछ सुन गई माँ से। कुछ नहीं ……….. कुछ भी तो नहीं हुआ है मुझे।’ मानव बोलना कुछ चाहता था, बोल कुछ और गया। बोलते-बोलते उसका गला रुंध गया था। पिछले कुछ दिनों में वह बहुत ही भावुक हो चला था। घर के सभी सदस्य आश्‍चर्यचकित थे कि मानव को हुआ क्या है?

‘बहू, क्या बात है? क्या हुआ है मानव को? क्या छुपा रहे हो तुम?’ किसी अनिष्‍ट की आशंका से दीनानाथ का दिल बैठा जा रहा था।

‘माँ ………. बाबू जी! आप दोनों हमारे साथ चलिए। हमें आपका साथ चाहिए। प्लीज़ ……….. माँ जी।’ कहते हुए मधु ने सावित्री के चरण पकड़ लिए।

‘अब यह कौन-सा नया नाटक है तुम दोनों का? तुम औरों को बहका सकते हो अपने नाटक से, मुझे नहीं। मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती ………… नहीं रह सकती ………….. नहीं रह सकती।’ सावित्री का गुस्सा अभी उतरा नहीं था।

‘हमारे साथ न सही, अपने पोते-पोती के साथ तो रह ही सकते हैं आप। उन्हीं के लिए चलिए।’

‘माँ, कोई न कोई तो बात है। तुम मान जाओ न माँ।’ अविनाश ने सावित्री को मनाने का प्रयास किया।

‘हां, माँ जी! कौन सी स्त्री है जो ब्याह-शादी में सजना संवरना नहीं चाहेगी। ज़रूर कोई बात है, इनसे पूछ तो लो।’ सुमन बोली।

‘माँ, इनसे पूछे बिना आप इतना कुछ कह गई। इनको आपने अपनी सफ़ाई में कुछ भी कहने का अवसर नहीं दिया।’ अविनाश ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा।

‘अरे, जो स्त्री अपने पति के जीते जी अपना मंगलसूत्र उतार दे। उससे किस सफ़ाई की आशा कर सकते हैं।’

‘बस माँ! मंगलसूत्र ………. एक धागा – जो किसी भी सुहागन के सुहाग का प्रतीक है। जानती हो ……….. आज इसके गले में क्यों नहीं? क्योंकि इसने अपने सभी गहनों के साथ मंगलसूत्र को भी बेच दिया। अपराधी है यह, इसको इस अपराध की सज़ा मिलनी ही चाहिए।’ मानव ने अपना मौन तोड़ते हुए कहा।

‘गहने ….. मंगलसूत्र, सब बेच डाले? मगर क्यों?’ दीनानाथ जी ने हैरान होते हुए पूछा।

‘क्योंकि …….. मुझे कैंसर है और यह पगली …… यह पगली समझती है कि ऑप्रेशन कराने से मैं ठीक हो सकता हूँ।’ मानव को न चाहते हुए भी बताना पड़ा। घर के सभी सदस्य यह सुनकर सन्न रह गए। उनके पाँव के नीचे से तो जैसे ज़मीन खिसक गई हो।

‘कैंसर ………… तुम्हें? नहीं …….. नहीं। कह दो कि तुम झूठ कह रहे हो।’ घर के सभी सदस्यों के साथ साथ सावित्री का पाषाणहृदय भी काँप उठा।

काश यह झूठ होता माँ जी।’ मधु ने अपनी आँखें पोंछते हुए कहा।

‘लेकिन बेटा, तुमने हमें पहले क्यों नहीं बताया?’ दीनानाथ ने पूछा।

‘बाबू जी, मानव ने तो मुझसे भी यह सब छुपा लिया था। अपनी सारी बचत घर पर और बच्चों के लिए ख़र्च कर दी। एक दिन जब मैं अस्पताल गई तो डॉक्टर भटनागर मिल गए और मुझसे कहने लगे कि मानव का ऑप्रेशन जितनी जल्दी होगा, सफलता के अवसर उतने ही अधिक होंगे। मुझे दुख के साथ आश्‍चर्य भी हुआ कि इन्होंने मुझसे इतनी बड़ी बात छुपाई। मंजू की शादी में कोई विघ्न न पड़े और आप लोग शादी से पहले परेशान न हों इसलिए आप लोगों को कुछ बताया नहीं। ऑप्रेशन के लिए चार-पाँच लाख रुपए की आवश्यकता थी इसलिए मैंने गहने गिरवी रखने का निर्णय लिया। परंतु गिरवी रखने के उपरांत भी वांछित राशि नहीं मिल पा रही थी। अतः मैंने मंगलसूत्र और गहने बेच डाले। अब आप ही बताइए माँ जी, वह मंगलसूत्र किस काम का जो सुहाग की जान बचाने के काम न आए।’

‘बेटी, मुझे माफ़ कर दे। मैं तो नाम की ही सावित्री हूँ। असली सावित्री तो तू है, जिसने अपने पति के प्राणों की रक्षा के लिए अपने गहने तो क्या मंगलसूत्र भी बेच दिया। ईश्‍वर तेरे पति‍ की रक्षा अवश्य करेंगे।’ सावित्री की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी। उसने अपने आंसू पोंछे और मानव, मधु और बच्चों के साथ शहर जाने की तैयारी करने लगी।

 

 

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