-रमेश सोबती

पुराने ज़माने में नारी को पूजनीय स्थान प्रदान किया गया था। स्त्रित्व-मातृत्व एवं देवत्व, इन तीनों को एक श्रेणी में रख कर सम्मान करना भारत की पारंपरिक संस्कृति है। भारत की प्राकृतिक संपदा और महत्व को हमारे पूर्वजों ने स्त्री के रूप में ही रखा, यहां तक कि उन्होंने विद्या के लिए ‘सरस्वती‘ को वन-संपत्ति के लिए ‘देवी-लक्ष्मी‘ को, तथा बल व शक्‍ति के लिए ‘देवी भवानी’ को माना। ये तीनों ही नारी को पूजनीय स्थान पर रखते हैं और हां, भारत के लोगों ने यहां की धरती को माता के रूप में भी माना। लेकिन यह बड़ा कष्‍टदायक विषय है कि वैदिक काल से आज तक के पन्नों को पलटने पर पता चलता है कि नारी की स्थिति में कितने परिवर्तन हुए। यही कि भारतीय नारी एक ओर युद्ध, साहित्य एवं कला आदि के क्षेत्रों में अग्रणीय रही तो दूसरी ओर अपमानिता एवं भोग्य।

‘मनुस्मृति’ में

‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता’

कह कर नारी जाति का सम्मान किया गया। वीर गाथा में आकर्षण का केन्द्र एवं श्रृंगारिक कारण बनी, भक्‍तिकाल में प्रेरणा-स्त्रोत समझी गई, स्वनामधन्य महाकवि तुलसीदास जी ने तमोगुण नारी को त्याज्य एवं सत्वगुणवाली को वंदनीय समझा। इसके स्पष्‍ट प्रमाण महासति सीता जी एवं दुष्चारणि स्वरूपनखा थी। भारत की सभ्‍यता में विशेषकर संस्‍कृति में नारी को देवी माना गया लेकिन यह धारणा आगे चलकर कैसे खंडित होती गई और भारतीय नारी को किन-किन समकालीन समस्याओं से जूझना पड़ा इस का विश्‍लेषण भारतीय भाषाओं मे बृहद रूप में हुआ है। चूंकि महिलाएं भुक्‍तभोगी और पीड़ित हैं इसलिए वे अपनी समस्याएं बड़ी संजीदगी से कहानियों, कविताओं एवं उपन्यासों द्वारा बड़ी अच्छी तरह से अभिव्यक्‍त कर पाईं हैं और आज के समकालीन साहित्य में पुरुष के हर तर्क का उत्तर बड़ी सटीकता से तर्कयुक्‍त हो कर देने तथा अपनी व्यथा को व्यक्‍त करने में सक्षम हुई है।

साहित्य एक माध्यम है अभिव्यक्‍ति का। यहां पर हमें महिला-साहित्यकारों के व्यापक अनुभव संसार से गुज़रना अभीष्‍ट है। उपन्यास सामाजिक यथार्थ का अविकृत दर्पण होता है तो कविता में वैयक्तिक स्थितियों, प्रेमपरक अनुभूतियों को सुपुष्‍ट ढंग से व्यक्‍त किया जाता है। नारी पुरुष के सुख-दु:ख, हर्ष विषाद के साथ उस के स्वप्नों, अकांक्षाओं, कुंठाओं और सृजन चेतनाओं को अत्यंत सरल और सहज शब्दावली के माध्यम से पहचाना जा सकता है। कहानी लेखन के क्षेत्र में कहानीकार नारी निरंतर-गहन, समाज-सापेक्ष, सृजनात्मक-सक्रियता नारी के व्यापक सरोकार को रेखांकित करती है और मध्यवर्गीय स्त्री के अंर्तविरोधी संघर्षों को उजागर करती है। नारी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से नारी के तथाकथित कुरूप सत्य को इतना व्यापकता दी है कि पुरुष प्रधान साहित्यकार कहीं-कहीं बौखला-सा गया है। उपन्यासों में कृष्णा सोबती, रजनीपनिक्कर, नासिरा शर्मा, शशिप्रभा एवं मृदुला आदि। कविताओं में डॉ. सुनीता आदि और कहानियों में मैं चित्रा मुदगल का विशेष उल्लेख करूंगा।

मुझे अच्छी तरह याद है कि बातचीत के दौरान अपनी कृतियों की व्याख्या करती हुई चित्राजी एक प्रश्‍न के उत्तर में कहती हैं कि मेरी प्रत्येक कृति अनुभव से रची-पकी उपजी है और अपने समय के यथार्थ से मुठभेड़ करती जड़ताओं और विसंगतियों के प्रतिवाद में पूरी ताक़त से मुखर हुई है। निजी परिवेश के दबाव निश्‍चित ही मेरे भीतर के असंतोष, नियात्पने के शून्य और द्वंद्व के बीच झूलते धकियाते इस बात के लिए विवश करते हैं और निजी परिवेश से अतिक्रमण करने को बाध्य करते हैं। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के निरंकुशताओं के प्रति मेरी कृतियां मुझे सचेत करती हैं। हमारे देश की महिलाएं दोहरी सेंसरशिप से जूझ रही हैं, सेल्फ़ सेंसरशिप और दूसरी सोशल सेंसरशिप। वे अपने होने को दूसरों की दृष्‍टि से परिभाषित करती हैं। कभी परम्परा आत्म-निर्णयी नहीं होने देती तो कभी मूल्य और मान्यताएं उन की स्वतंत्र सोच को प्रतिबंधित करती हैं बल्कि पनपने ही नहीं देती तो कभी दोहरे मापदण्डों वाले रूढ़ संस्कार उन्हें स्त्रीत्व के पारंपरिक ढांचे में बलिदान हो जाने को विवश करते हैं। साहित्य में स्त्री चेतना का संघर्ष आधी आबादी की समता का संघर्ष ही नहीं है उस के नारी स्वीकारे जाने का संघर्ष है। नारी यानि कि मनुष्य के समान।

कविताओं में मैं समकालीन कवित्रि डॉ.सुनीता का नाम लेना आवश्यक समझता हूं। सुनीता की कविताओं में से गुज़रते हुए मुझे एहसास होता है कि वह शांत दृष्‍टिगोचर होती हुई भी भीतर से विकल, उद्दीप्‍त है और उनकी कविता का हर शब्द अपनी कुव्वत से ज्‍़यादा भावनाओं का भार ढो रहा है। डॉ.सुनीता सुन्दर, शांत और थर्रायी कविताएं लिख रही हैं, उदाहरण:-

‘जहां

सब ख़त्म हो गया अचानक

वहीं-उसी छोर पर

पलभर में

नई दुनियां- एक नन्ही-सी कोंपल

हिलाने लगी है हाथ।’

सुनीता की आस्था बेधुरी नहीं है हलकी भी नहीं है इसीलिए नाभिनाल से वह उन्हें जीवन से जोड़े रखती है। जब तक जीवन है तब तक नन्ही कोंपल की-सी यह प्रतीक्षा भी है।

‘नन्हें बच्चे-सा

उसकी उंगली थाम

छोटे क़दमों से

चल पड़ा है एक सपना

या

विश्‍वास की

नन्ही गौरैया

लील गया सब कुछ

अपरिवर्तित है दिनचर्या

फिर भी

सब कुछ बदल गया।‘

प्रेम की इस कल्पना में भरपूर जीवन, भरपूर रोमांच है तो प्रेम में जो अधर धर गया उस के त्रास से भी कैसे बचा जा सकता है, बार-बार वह सामने आता है वर्तमान को विदीर्ण कर डालता है।

उपन्यास के प्रति ऊपरलिखित अपने वक्‍़तव्य में और जोड़ते हुए कहने से नहीं चूकूंगा कि उपन्यास मानव जीवन का गद्य रूप महाकाव्य भी होती है और यह भी कहूंगा कि नारी और समाज का अन्योन्याक्षित संबंध है। नारी समाज का केन्द्र बिन्दु है। अत: मानव समाज को चित्रित करने वाले उपन्यासों में नारी जीवन का चित्रण होना स्वाभाविक है। इस सदी की दहलीज़ पर हिन्दी की महिला उपन्यासकारों के क्रांतिकारी आगमन से हिन्दी कहानी, कविता ने तो मोड़ लिए हैं, उपन्यास विद्या में अदभुत परिवर्तन लाने की हिम्मत की है। लेखिकाओं के बदलते मूल्यों के साथ नारी के बदलते स्वरूप का चित्रण किया है। नारी शोषण, नारी प्रताड़ना एवं अत्याचारों के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी बिगुल बजा दिया हैं। उपन्यासकार श्रीमती मित्रकृत ‘नष्‍टनीड़’ की सुनंदा की समस्या परित्यक्‍ता की समस्या है, आतताई के हाथों बलात्कार कर के सताई जाती है। रजनी पनिक्‍कर के उपन्यास ‘मोम के मोती’ की माया आर्थिक विषमताओं के कारण नौकरी करती है। अदम्य जिजीविषा के कारण ही माया जीवन की विषम परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए अंतत: एक सफल वैवाहिक जीवन जीती है। ‘पानी की दीवार’ और ‘काली लड़की’ उपन्यास बहुत उत्कृष्‍ट हैं। नासिरा शर्मा का उपन्यास ‘ठीकरे की मंगनी’ की नायिका महरुख के लिए मर्दन ज़िंदगी की धुरी है। शशि प्रभा का उपन्यास ‘सीढ़ियां’ की मनीषा एक पढ़ी-लिखी नारी है और डॉ.बन कर अपना जीवन सफल करती है। मृदुलां का उपन्यास ‘चित्तकोबरा’ ममता का ‘बेघर’ उपन्यास अच्छे उपन्यासों की श्रेणी में आते हैं। कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘मित्रो-मरजानी’ की नायिका मित्रो एक स्वतंत्र व्यक्‍तित्व के रूप में उभर कर आती है, इस में मित्रों की वासना की सरिता अविरल प्रवाहित है। ‘डार से बिछुड़ी’ की पाशो अल्हड़ किशोरी जीवन भर भटकती रही, एक देह थी, नि:संग और एक-मन-डाली सुनसान। इन महिला उपन्यासकारों में से अधिकांश ने स्त्री के शोषण को केन्द्र में रख कर अपनी-अपनी कृतियों द्वारा भीषण समस्या से उबरने के उपाए बताएं हैं और इस दिशा में इन की महत्वपूर्ण भूमिका है। समकालीन महिला उपन्यासकारों के उपन्यास समय के सच्चे दस्तावेज़ हैं। इनमें जीवन के कटु यथार्थ को परितार्थ करने का प्रयास किया गया है।

अंतत: इस प्रकार हम देखते हैं कि इन लेखिकाओं ने शोषित नारी समाज को कविताओं, कहानियों और उपन्यासों द्वारा नई चेतना प्रदान कर के नारी को सम्मानित करने का प्रयास किया है ताकि आधुनिक नारी के विशेष आदर्शों को फिर से भारतीय नारी का दर्शन मिले और पूजनीय हो जाए।

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