-दीप ज़ीरवी

भारत भूमि की विराट कैनवस है जिस पर समय के चित्रकार ने अपनी तूलिका से समय-समय पर विभिन्न रंग बिखेरे हैं। कहीं महाभारत का समरांगण तो कहीं गोकुल, कहीं वृन्दावन। कहीं दक्षिण के पठार, कहीं हिमालय को छेड़ कर निकलती शीतल बयार, समय के चित्रकार की यह अनुपम कला कृतियां ही तो हैं। मेरे भारत के कण-कण में अनन्त ऊर्जा है अथाह शक्ति के स्त्रोत विद्यमान हैं। भारत का जल, थल, नभ अतुलित है, बल अपरिमित है, जल जादुई असर रखता है। भारत के अमृत तुल्य जल ने भीम बहादुर वीर जवानों को भी पाला है जो अपनी देह से बम बांध कर टैंकों के आगे लेट जाने का साहस कर जाते और शत्रु के छक्के छुड़ा देते, शत्रु को मुंह की खानी पड़ती और इस जल ने यमुना में बहते हुए, भगवान श्री कृष्ण की महारास भी देखी और चनाब के पानियों में तो जैसे इश्क ही बहता है, प्रेम ही बहता है, आशिक प्रियतम प्यारे यहीं पर अपनी अस्थियों को प्रवाहित किये जाने की मांग करता है। “*इह मेरे ‘फुल्‍ल’ झनां (चनाब) विच्च पाने*” पंजाब की प्रीत कहानियां चनाब के किनारे जन्मी पली बढ़ी और हर घर तक पहुंची। गावों चौपालों में सुनी, सुनाई जाने लगीं।

यदि पीढ़ियों पुरानी प्रीत कहानी, आज के लोगों को सपने सी लगती है तो इसमें दोषी नई पनीरी नहीं है, कदाचित् हो भी किन्तु सही ढंग से जीना हम भूलते जा रहे हैं। जीने के स्थान पर हम पलने लगे हैं। जीने के रंग-ढंग परिवर्तित होते जा रहे हैं। जीवन गति तेज़, तेज़ और तेज़ होती जा रही है। मानवीय रिश्तों में से मिठास उड़न छू होती जा रही है। कारण खोजने पर पता चला कि मानवीय रिश्तों में से स्वाभाविक मिठास के उड़न छू हो जाने का कारण है सहज प्रीत की रीत को जन साधारण द्वारा अपने मानस से हटा देना, अपने जीवन में धन वैभव आदि का होना ही सब कुछ होने के तुल्य मान लेना। जबकि यह हर आदमी जानता है कि धन बहुत कुछ तो है, सब कुछ नहीं। “सहज प्रीत” ही वास्तव में जीवन की मिठास है और इसी ‘सहज प्रीत’ की कहानी हर दिल की रानी बननी चाहिए तभी दुनियां स्वर्ग बनेगी। आज की जवानियों के दिलों में पहले वाली जवानियों की भांति दिल फ़रेब सहज प्रीत की पनीरी नहीं पनपती। आज प्रीत, प्यार, इश्क, मुहब्बत को इश्तिहारों की तरह ब्यान करना एक रिवाज़ सा हो रहा है।

आज देह-सुख की प्राप्‍ति के लिए ही कुछ लोग प्रेम, प्यार, इश्क शब्द को आवरण की तरह इस्तेमाल करते हैं। कुछ लोग कहने को तो प्रीत को देह सुख का पूरक नहीं कहते किन्तु उन के मन में बैठा चोर इसी ताक में रहता है कि कब देह-सुख प्राप्‍त हो। यहां देह-सुख का भाव स्पष्‍टत: काम सुख से है।

कुछ कथित प्रीतम प्यारे; दिलबर; दिलदार, प्यार को एक पहचान न मान कर कब्‍ज़ा मानते हैं। वह ‘भोले पंछी’ यह नहीं जानते कि सहज प्रीत में कब्ज़े के लिए कोई कोना खाली नहीं होता क्योंकि कब्ज़े की चाह जब पूरी नहीं होती तो अशांति जन्म लेती है परन्तु सहज प्रीत तो शांति, सुख, चैन की धाय मां होती है। अशांति इन प्रतीकों में कहीं भी नहीं समाती। सहज प्रीत के आंगन में ईर्ष्‍या के लिए बेदख़ली का हुक्मनामा ही रखा मिलता है।

प्यार से प्यारे को, प्यारा प्यार करे परन्तु सिर्फ़ प्यारे के प्यार पर ही सांप की भांति कुण्डली मारकर न बैठ जाए, प्यारे को प्यार करने के साथ-साथ हर वह व्यक्‍ति भी प्यार पाए जो प्यारे को प्यार करता है। ऐसा करने से प्रीत का कैनवस विशाल से विशाल तर होता जाता है। असल में प्रीत का कैनवस है ही इतना विराट कि चींटी से कुंजर तक को अपने भीतर आत्मसात् कर लेने की क्षमता रखता है।

देखे-अनदेखे, अपने-बेगाने, इन्सान-हैवान, पशु-पक्षी, बालक-युवा, वृद्ध किसी के प्रति सहज प्रीत का होना असंभव नहीं। सभी सहज प्रीत की कशिश महसूस कर सकते हैं। मानवीय संबंधों में प्राण प्रतिष्‍ठा करने वाला तत्व यही सहज प्रीत है। लैंगिक आकर्षण सहज प्रीत में हो ही न या हो ही यह ज़रूरी तो नहीं है। सहज प्रीत के आंगन में आने वालों के लिए पहलौठी शर्त यही है कि वह समान सोच के धारणी हों। यही पहलौठी शर्त ही सहज प्रीत के कैनवस को और विस्तृत कर जाती है। जब सहज प्रीत की राह के राही को समान सोच के धारणी हमराही मिल जाते हैं तो लैंगिक पवित्रता भी रखी जा सकती है और प्रीत की डोरी भी अपनाई जा सकती है।

लैंगिक आकर्षण बेशक अपूर्णता की खाई भरने के लिए पूर्णता की तरफ़ लगाई जाने वाली दौड़ है सृष्‍टि का नेम है किन्तु विश्‍वास की यह ऊंचाई जिसे सहज प्रीत कह कर पुकारा जाता है प्रीत का, प्रेम का माउंट एवरेस्ट है। इसमें इसकी ज़रूरत ही नहीं रहती।

सहज प्रीत की माउंट एवरेस्‍ट पर चढ़ना हर किसी के बस का रोग नहीं। इस एवरेस्ट पर से देखने पर सारी दुनियां अपनी दिखती है कोई भी बेगाना नहीं दिखता। काम वेग की बौनी-बौनी पहाड़ियों पर से चढ़ने उतरने वाले इस ऊंचाई के बारे में बात कर सकते हैं, अंदाज़े लगा सकते हैं परन्तु रास्ते की कठिनाई देखकर घबराते हैं।

देखा जाए तो समाज में रहने बसने वाले हर एक प्राणी की यह चाह होती है कि कोई उसे केवल उसके लिए चाहे, उस की देह के आवरण के भीतर छिपे तत्व के लिए, मन के लिए, रूह के लिए सम्मान भाव रखे। यह चाहत सहज प्रीत की ‘स्वाति बूंद’ के लिए मन चातक की (हूक) कूक ही तो है।

सहज प्रीत की स्वाति बूंद जिसकी हर मन के चातक को प्यास है, तलाश है यदि मानव कामेच्छा व लैंगिक आकर्षण जैसी तंग सोचों की पट्टी आंखों पर न बांधे रखे तो उसे गैर ज़रूरी बूंदों व स्वाति बूंद में भेद करना सरल हो जाए। कामेच्छा व लैंगिक आकर्षण वाली पट्टियों के बंधे होने के कारण आम आदमी स्वाति बूंद को पहचान नहीं पाता वह बूंदे व्यर्थ चली जाती हैं। बन्दा कभी सोच भी नहीं सकता कि सहज प्रीत की एक स्वाति बूंद कितने मनों को ढाढ़स दे सकती है।

लैंगिक आकर्षण मानवीय सोच का एक बिन्दु पर केन्द्रीयकरण है व सहज प्रीत का विस्तार तो ओंकार तुल्य है। इस में मां, बहन, प्रेमिका, पत्‍नी, पुत्री, जीव-जन्तु, सजीव, निर्जीव, विश्‍व ब्रह्मांड, हर वह वस्तु जिस की हस्ती है (प्रत्यक्ष अथवा ख्‍़याल में) प्यारी जा सकती है। सहज प्रीत की रीत का चलन मानव हित में है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*