-ओम प्रकाश कादयान
‘धर्मपाल! अपने स्कूल में सौ से अधिक बड़े व भारी वृक्ष खड़े हैंं। अगर इन में से दस-पंद्रह पेड़ बेच दिए जाएं तो क्या फ़र्क़ पड़ता है?’
मुख्याध्यापक ने अपने स्कूल लिपिक से वृक्ष कटवाने के बारे में उसकी सलाह जाननी चाही।
लिपिक ने सलाह देने से पूर्व मुख्याध्यापक से वृक्ष कटवाने का कारण पूछा – ‘सर, वृक्ष कटवाने की ज़रूरत कहां पड़ गई? वृक्षों के कारण तो विद्यालय हराभरा लग रहा है। छायादार वृक्ष हैं।’
‘अरे भई, ज्य़ादा छाया भी किस काम की? गर्मियों में तो ठीक है मगर सर्दियों में तो ये पेड़ सुनहरी-सुहानी धूप को रोक लेते हैं। फिर जेब भी तो कई दिनों से ख़ाली पड़ी है।’
‘मगर, सर वृक्ष कटवाने व बेचने से पहले हमें वन विभाग की अनुमति लेनी पड़ेगी।’
‘उस की चिन्ता तू मत कर। तू तो बस वृक्ष बेचने की व्यवस्था कर। थोड़ा बहुत पैसा स्कूल में लगा देंगे ताकि उसके सहारे हमारी जेब गर्म हो जाए फिर तेरी जेब भी तो कई दिन से ढीली पड़ी है।’
‘मगर वन विभाग की मंज़ूरी के बगै़र…..ये तो सीधी आफ़त मोल लेने…..।’
‘अच्छा, ये बताओ, परसों रात को तेज़ आंधी आई थी तो जगह-जगह कितने वृक्ष उखड़े पड़े थे?’
‘सर, आंधी तेज़ थी। वृक्षों का काफ़ी नुक़सान हुआ है। भारी-भारी वृक्ष गिर गए, कई जगह रोड जाम भी हो गए।’
‘तो क्या वह आंधी हमारे स्कूल के दस-बारह वृक्षों को नहीं गिरा सकती?’
‘ठीक है सर, मैं आप का इशारा समझ गया। अच्छी योजना है।’ यह कह कर लिपिक वृक्ष बेचने व कटवाने के लिए चल पड़ा। अब वृक्षों का क़त्लेआम होना निश्चित् था।