-दीप ज़ीरवी
हां जी, आज मैं भी बहू मत की बात ही करूंगा। निस्संदेह बहुएं जो सोचती हैं, कहती हैं, करती हैं उचित ही करती हैं। है न?
अब देखिए न, खूसट (?) सास को इतना तजुर्बा हो तो हो पर वो बातें कहां मालूम जो पढ़ी-लिखी (!!) बहू को मालूम हैं। ये किट्टी पार्टियां, ये सिनेमा, शॉपिंग ज़रूरी (!) हैं। ऐसे में बूढ़ों की देखभाल की सिरदर्दी कौन झेले, ये ननद के नखरे, देवरों की अकड़ कौन झेले। अब बहुएं सही ही तो करती हैं जो ससुराल आते ही घर में दीवार खड़ी कर देती हैं। अब ये बात और है यदि इनके मायके में ऐसा हो जाए तो यह अपनी भाभी को पानी पी-पी कर कोसती भी हैं। एकदम सही करतीं हैं यह ससुराल में आकर, पूरे ससुराल का सम्मान लेकर करना भी क्या है सिर्फ़ पति-परमेश्वर ही तो ज़रूरी है इनके लिए और कहीं कहीं वो भी?! …
अब आप ही सोचिए यदि वह दक़ियानूसी (?) सुसंस्कृत विचारों वाले सास-ससुर की सेवा संभाल ही करनी है, यदि सास के कहे अनुसार ही चलना है तो फिर पढ़ने लिखने से क्या लाभ! अब यदि कोई बहू, सास के पूरी उम्र के तजुर्बों को आत्मसात करने लगे तो लोगबाग क्या कहेंगे!
फिर भी आश्चर्य होता है उन गिनीचुनी बहुओं पर जो आज भी सास को मां, ससुर को पिता, देवर-जेठ को भाई, ननदों को बहन का-सा सम्मान देती हैं। यह बहुओं की विलुप्त प्रायः प्रजाति है शायद इसी के लिए प्रायः वंदनीय है, प्रायः दर्शनीय है।
शायद ये वो बात जानती हैं व उस बात का मर्म पहचानती हैं जिस बात का उनको नहीं पता जिन्होंने पति व पति-परिवार का जीवन नर्क कर रखा है कि आज सास-ससुर को अपमानित कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करने वाली तब क्या इस लेख जैसे ही किसी लेख को पढ़कर ऐसे ही आनन्दित होंगी जब उनके यहां उन जैसी ही बहुएं आ चुकी होंगी उनके साथ उन जैसा ही व्यवहार करने में उनको भी चार हाथ पीछे छोड़ेंगी। यदि हां तो हम पुनः एक ऐसा ही लेख तब भी लिखेंगे।
तब तक के लिए आज्ञा