-निधि

आज स्त्री का मनोबल बहुत बढ़ गया है। घर के साथ-साथ उन्होंने कार्यक्षेत्र में भी प्रवेश कर लिया है। अब कोई कार्यक्षेत्र ऐसा नहीं है जहां स्त्री ने अपनी छाप न छोड़ी हो। किरण बेदी जहां पहली आई.ए.एस.ऑफ़िसर हैं, वहीं कल्पना चावला अन्तरिक्ष पर जाने वाली पहली भारतीय महिला। वहीं इन्दिरा गांधी व मदर टेरेसा हमारे लिए प्रेरणा स्रोत हैं।

स्त्री के इतने सफल होने के बाद, इतना आगे बढ़ जाने के बाद क्या स्त्री की स्थिति बदल गई है? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना शायद अभी भी हमारे लिए मुश्किल है। सामान्यतः नौकरी पेशा स्त्रियों को ध्यान में लायें तो पायेंगे कि उनका जीवन किन कठिन परिस्थितियों से गुज़र रहा है। जहां उन्हें अपने आपको साबित करने के लिए अपने पति के कंधे के साथ कंधा मिलाकर चलने के लिए व पति के साथ ज़िम्मेवारियों का बोझ उठाने के लिए घर से बाहर कार्य करने के लिए आना पड़ता है सारा दिन बॉस की झिड़कियों व ऑफ़िस के असीमित काम के बोझ के तले दबना पड़ता है पर उसका काम यहीं ख़त्म नहीं होता। जहां उसे ऑफ़िस की सारी ज़िम्मेवारियां पूरी करनी होती हैं, वहीं ऑफ़िस से पहले और बाद में घर के कामों का खाता भी चालू रहता है। जहां वह बाहर कार्य करके पति की ज़िम्मेवारियों के भार को हलका करने की कोशिश करती है वहीं वह घर की ज़िम्मेवारियों को भी बखूबी निभाती है ताकि शिकायत का कोई मौक़ा न रहे। पति के साथ-साथ सारे परिवार की सेवा करना भी उसका फ़र्ज़ है। इन सारे फ़र्ज़ों को, कर्त्तव्यों को, निभाते हुए क्या उसकी स्थिति में कुछ परिवर्तन आया है? नहीं। क्योंकि जिस प्रकार वह पति पर घर के बोझ को कम करने में उसका पूरा सहयोग देती है, उसी तरह पारिवारिक ज़िम्मेवारियों या यूं कहें कि घरेलू कार्यों में उसे किसी का सहयोग नहीं मिलता। अपने पति का भी नहीं क्योंकि घरेलू कार्यों में पत्नी को सहयोग देना पति अपनी मर्दानगी के ख़िलाफ़ समझते हैं। कुछ एक स्त्रियों को ही पति का सहयोग मिलता है। शेष तो सारी ज़िंदगी ऐसे ही गुज़ार देती हैं। वह आज भी वहीं खड़ी हैं, जहां कल खड़ी थीं और पता नहीं कितने बरसों तक यहीं खड़ी रहेंगी। आज भी नारी को वह सम्मान नहीं मिला जो कि उसे मिलना चाहिए, जिस पर उसका या यूं कहें कि सिर्फ़ उसी का हक़ है।

इस नकारात्मक रवैये को देखते हुए कभी-कभी हमारे मन में यह ख़्याल आता ज़रूर है कि उसने घर से बाहर पैर ही क्यूं रखा। इससे अच्छा तो उसका सिर्फ़ घर पर ही रहना था। क्यों वो दो नावों पर सवार हुई? यही सब देखते हुए मेरे मन में एक दुविधा-सी उत्पन्न हो जाती है। यह समझ नहीं आता कि क्या सही है और क्या ग़लत। क्या एक नौकरी पेशा स्त्री की ज़िंदगी ठीक है या एक गृहिणी की।

एक गृहिणी जो कि सारा जीवन घर परिवार संभालने में लगा देती है। घर का सारा काम करना, बच्चों-बूढ़ों सब की सेवा करना और अपने पति की ओर भी पूरा ध्यान देना ये सब उसके फ़र्ज़ होते हैं। घर पर रहते-रहते भी उसका जीवन कोई सरल नहीं होता। आज बदलते दौर में नारी की स्थिति पूरी तरह बदल गई है। उसने कहां-कहां तक अपने सफल मुक़ाम हासिल किये हैं। हर क्षेत्र उसका स्वागत कर रहा है पर दूसरी तरफ़ एक गृहिणी तो पूरी तरह घरवालों पर ही आश्रित होती है। वह स्वयं कोई निर्णय नहीं ले सकती उसे घरवालों की पूछताछ व रोक-टोक का अभ्यस्त बनना पड़ता है। वह सारा दिन घर में चक्की की तरह पिसती है। उसके बारे में तो दूसरों की यही राय होती है कि घर पर इतना क्या काम होता है। उसकी थकावट के बारे में कोई फ़िक्र नहीं करता। वो किसी की बेटी, किसी की पत्नी या किसी की मां बनकर रह जाती है। उसका अपना कोई अस्तित्त्व बन ही नहीं पाता। उसकी ज़िंदगी तो घर की चार दीवारी में ही सिमट कर रह जाती है। इसी प्रकार के विचार उसके ज़हन में घर कर जाते हैं। यहां एक अजीब बात देखने में आती है यदि हम घर रहने वाली गृहिणी की तुलना कामकाजी महिला से करें तो घरेलू महिला अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने का प्रयत्न करती है। उसके ऐसे नकारात्मक रवैये का शिकार किसी कामकाजी महिला को बनना पड़ता है। वह अपने तर्कों के ज़रिये अपने आपको एक कामकाजी महिला से उत्तम साबित करने की कोशिश करेगी। वह दूसरों को ऐसा एहसास करवायेगी कि वह उसकी अपेक्षा कुछ नहीं है और यह सब कुछ बनावटी होता है। एक गृहिणी की सोचने और दिखाने की प्रतिक्रिया में बहुत ही अन्तर होता है। वास्तव में आज महिलाओं के लिए तमाम रास्ते खुलने के कारण उसके दिल में कहीं न कहीं यह कसक रहती है कि उसके लिए कोई विकल्प क्यों नहीं। इन सबके चलते मेरा मन यह समझ ही नहीं पाता कि इस पुरुष प्रधान समाज में किस स्त्री की स्थिति परिस्थितियों के अनुकूल है। एक गृहिणी की या एक कामकाजी स्त्री की। क्या वो कभी अपनी मंज़िल पा सकेगी या यह दुविधा हमेशा रहेगी।

 

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