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मैं मुक़म्मल हूं, संपूर्ण हूं
हर लिहाज़ से
हर परवाज़ पे
हर दिशा में
हर दशा में

अपने आप में कोई व्यक्‍ति संपूर्ण नहीं होता। लेकिन औरतों की संपूर्णता को कई बातों में ढूंढ़ा जाता है। मदर टेरेसा और लता मंगेशकर दो ऐसी महिलाओं के नाम हैं जिनसे अधिक संपूर्णता मुझे कभी किसी महिला में नज़र नहीं आई। औरत पत्नी बनने पर या फिर मां बनने पर ही मुक़म्मल बन पाती है ऐसा माना जाता है। पर मुझे कोई भी पत्नी, कोई भी मां इनसे ऊपर नज़र नहीं आई। यदि इनसे हटकर हम इंदिरा गांधी, किरन बेदी या कल्पना चावला की बात करें तो मुझे नहीं लगता कि उनकी मुक़म्मलता मां होने में है। औरत अपने आप में एक मुक़म्मल जहां है। औरत के होने से ही यह दुनिया खूबसूरत है। यह औरत ही है जो सुगंधित वातावरण का सृजन करती है। उसे मुक़म्मल होने के लिए दुनिया के बने हुए मुहावरों या पाएदानों की ज़रूरत नहीं है। आज उसकी परवाज़ दूर क्षितिज के उस ओर तक है। उसके परों में अब वो ताक़त है कि वो अकेली ही उड़ान भर सकती है। आज सुनीता कई दिनों अंतरिक्ष में अकेली रह सकती है। अब उसे अपना आत्मसम्मान सबसे प्रिय है भले ही इसकी क़ीमत उसे अकेले रहकर ही क्यूं न चुकानी पड़े।

“क्यूं फ़ैसला किए जाते हो मैं मुक़म्मल हूं कि नहीं, हुनर अपने साबित करने को तमाम उम्र बाक़ी है अभी”

ज़िन्दगी के मायने इतने आसान नहीं हैं। लोग समझते हैं ज़िन्दगी का अर्थ है कि टाई वाई लगा ली, पत्नी को साथ लिया और घूमने निकल दिए-हो गए मुक़म्मल—-!!! ज़िन्दगी का अर्थ है कुछ नया करने की आकांक्षा, कुछ बदलने की हिम्म‍त। कोई प्यास, कोई तड़प कि जो है जैसा है उससे कुछ अलग चलने का साहस। ज़िन्दगी का मतलब शादी करना और बच्चे पैदा करना फिर बच्चों की शादियां करना और फिर उनके बच्चों के पैदा होने की आकांक्षा और फिर उन बच्चों की शादियों की फ़िक्र नहीं हैं। यही ज़िन्दगी की सा‍र्थकता नहीं। कहां से खोज लिए ज़िन्दगी के ये मायने। शादी ज़िन्दगी का एक हिस्सा मात्र तो हो सकता है पर ज़िंदगी का उद्देश्य केवल यही नहीं। खुद अपनी और अपने बच्चों की ही फ़िक्र नहीं। कुछ लोगों को तो दुनिया जहां के लोगों की शादी की फ़िक्र रहती है। आस-पड़ोस के, नाते रिश्तेदारों के सभी अविवाहितों की फ़िक्र। भगवान् ने भी इनको क्‍या कार्य देकर भेजा है। अरे भले लोगो दूसरों का इतना फ़िक्र करने की बजाए उतने ही समय में कोई भला काम कर लेना था। नसीहतों के बाण चलाने को भगवान् ने तुम्हें स्वतंत्र छोड़ रखा है। नसीहत सुनिए- बिना शादी के तुम मुक़म्मल नहीं हो सकते – – प्यार के भाव से वंचित – – सुखों के सागर से दूर – – -अरे—अरे—

दासतां मुझ को वफ़ाओं की सुनाते क्या हो, मैंने भी देखी है ये दुनिया मगर जाने दो

हो सकता है कि शादी व्यक्‍ति को मुक़म्मल बनाती ही हो। पर शादी मुक़म्मल होनी भी तो लाज़िम है। इसके लिए शादी के मायने समझने भी ज़रूरी हैं। अब कितने प्रतिशत लोग शादीशुदा होने पर मुक़म्मल हो पाते हैं यह भी तो सोचने का विषय है। अब अगर अविवाहिताओं को सुखी विवाहित जीवन के बारे में समझाना हो तो परम सुख प्राप्‍त दम्‍पति ढूंढ़ कर लाने होंगे।

शादी का अर्थ है दो लोगों का, दो परिवारों का आपस में सम्बन्ध। शास्त्रों के मुताबिक़ मां-बाप कन्यादान करते हैं- कन्यादान का अर्थ कन्या का दान नहीं बल्कि कन्या- का आदान होता है। मां-बाप द्वारा वर को कन्या का आदान करवाया जाता है। कन्या द्वारा चुने वर को कन्या सौंपी जाती है पूरी इज़्ज़त के साथ। इसके लिए बाक़ायदा स्वयंवर का प्रावधान रखा गया है। शास्त्रों में जो कन्या को इज़्ज़त दी जाती है वो हमारे समाज में कहीं देखी नहीं जाती। यहीं से शादी के अधूरे होने का सिलसिला शुरू होता है। शादी से पहले वर कन्या को पूरा मान सम्मान देने का, समाज में उसकी मान-मर्यादा बढ़ाने का वचन देता है और वधू भी पति की मान-मर्यादा बढ़ाने जैसे वचन देती है।

शादी का अर्थ ही है अपने से बढ़कर दूसरे को मान देना, इज़्ज़त देना, समाज में एक दूसरे का गौरव बढ़ाना चाहे पति हो या पत्नी। लेकिन हमारे सामने ऐसे पति-पत्नी कहां हैं, कितने हैं।

एक सिद्ध पुरुष कहीं बता रहे थे। शादी का अर्थ है दोनों पति-पत्नी ऐसा जीवन जिएं कि समाज से सुख समृ‍द्धि तो हासिल करें पर समाज को कोई कष्ट न पहुंचाएं बल्कि समाज को कुछ सार्थक दे पाएं एक मधुमक्खी की तरह। मधुमक्खी जब फूलों से मधु एकत्र करती है तो फूलों को कोई कष्ट नहीं देती। बल्कि वहां बीज बन जाता है। यानि कुछ दिया ही और मधु एकत्र करके भी समाज को मिठास देती है। पति-पत्नी को भी समाज में कुछ सार्थक देना होता है। शादी एक दूसरे को मज़बूत करने के लिए है, कमज़ोर करने के लिए नहीं।

एक दूसरे को मुक़म्मल मान-मर्यादा देने वाले और समाज के लिए सा‍र्थक काम कर पाने वाले दम्पति शायद उंगलियों पर गिनने लायक़ भी नहीं और यह जो एक प्रतिशत से भी कम लोग हैं शायद वही मुक़म्मल लोग हैं।

अब या तो कुछ अविवाहित लोग हैं जिन्होंने कुछ सा‍र्थक क़दम उठाए हैं या ये कुछ लोग – अब इनमें से अधिक मुक़म्‍मल कौन है इस बारे में पता करना अभी बाक़ी है। हालांकि अविवाहित लोग भी सभी सार्थक नहीं हो पाते।

अविवाहिताओं की बहुत-सी ऊर्जा तो तीक्ष्ण बाणों की भेंट चढ़ जाती है। बेसिरे सवालों के सामने टूट जाते हैं उनके लफ़्ज़। अब समाज और क्या चाहता है उनसे— पहले ही तो छीन ली है मासूम हंसी उनसे। हर काम करने के बाद हर क़दम उठाने के बाद भी समाज के सवालों के निशाने उन्हीं पर रहते हैं। यहां सुखविन्द्र अमृत का एक शेयर याद आ रहा है।

चल रही हूं छुरी की धार पे फिर भी वे खुश नहीं रफ़्तार पे

एक सत्य यह भी है कि अकेली औरत की मुश्किलें हमारे समाज में बहुत हैं। समाज का रूप दिन-ब-दिन घिनौना होता जा रहा है। आज चाहे विवाहित स्त्री हो या अविवाहित बेख़ौफ़ होकर आज कहीं नहीं चला जा सकता। लेकिन कुदरत की हर खुशी, हर मुक़म्मलता, स्‍नेह, प्यार के लिए तुम्हें केवल और केवल अपने मन की खूबसूरती और मज़बूती की ही ज़रूरत है अन्य किसी चीज़ की नहीं। किसी शायर ने कहा है-

जब जी चाहा खुद के अंदर झांक लिया मैंने, कुदरत मेरे अपने ही अंदर बसी थी।

ऐसा कोई काम कर जाओ कि ज़िंदगी सार्थक हो। हर खुशी तुम्हारी अपनी ताक़त पर निर्भर है। सारे रास्ते तुम्हारे लिए हैं। जब नए रास्ते बनाने ही हैं तो कोई भी ताक़त तुम्हारे रास्ते नहीं रोक सकती। और सत्य यह भी है कि कुछ पाने के लिए कठिनाईयों से जूझना ही पड़ता है और बहुत-सा सफ़र अकेले तय करना ही होता है। ज़िन्दगी बहुत मुश्किल-सी चीज़ है। पर इसे जीना और हंस कर जीना ही शूरता है। कांटों पर चलते हुए भी यदि फूलों की सुगंध अपनी सोच में बसाने का हुनर तुम्हें आ जाए तो ज़िंदगी आसान हो जाएगी।

इंतज़ार में हैं आज हम कि कब मिलेंगे पर, कब मिलेगी परवाज़ हमें। यक़ीन है एक न एक दिन बेख़ौफ़ परवाज़ मिल ही जाएगी। इस समाज को तारीख़ तुम्हारे हवाले करनी ही होगी। वर्ना यह खुद ही तुम्हारे नाम हो जाएगी। केवल अविवाहित ही नहीं सभी लड़कियों से कहना चाहती हूं- लोगों का तो रहने ही दो। ऐसे ही पल में ही दिल ढेरी कर देना, मन मार देना तुम लोगों को शोभा नहीं देता। चलो अभी तो बहुत दूर चलना है। वे सारी चीज़ें हासिल करनी हैं जो हमें मिलती नहीं।

तुम प्रेम मुहब्बत की मूर्तियां हो, स्‍वयं अपनी कहानी खुद बनो। अपनी मन मर्ज़ी की तान छेड़ो। अपने साज़ों पे अपनी धुन गाओ। आसमानों जितनी परवाज़ भरो। हर साज़ को अपना नाम दे दो।

-सिमरन

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