-शैलेन्द्र सहगल

वैसे तो सृष्‍ट‍ि का प्रथम सम्बन्ध अपने रचयिता से ही माना जाना चाहिए मगर इन्सान अपनी ज़िन्दगी की स्लेट पर रिश्तों की इबारत लिखते समय जो प्रथम शब्द मुंह से उच्चारित करता है वह उसका अपनी मां से मातृत्व का वो अमर रिश्ता स्थापित करता है जिसके लिए उसकी मां उस पर सदैव अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तत्पर रहती है। आंचल में आश्रय देती है। अपने वक्ष से उसे स्तन पान करवाती है। उसका मैला ढोती है। उसकी अंगुली पकड़ कर उसे चलना सिखाती है। मां की ममता में सना मातृत्व का यह बंधन दूध और रक्‍त से जुड़ा एक ऐसा बंधन है जिससे पुत्र कभी मुक्‍त नहीं होना चाहता। धीरे-धीरे शैशवावस्था अपने घर की नन्हीं सी दुनियां से जुड़ती चली जाती है। उसकी ज़िन्दगी की स्लेट पर रिश्तों की गिनती बढ़ने लगती है। मां-बाप, भाई-बहन, दादा-दादी, चाचा-चाची, ताया-तायी….। धीरे-धीरे होश संभालने से पहले ही वह दुनियांदारी के मक्कड़ जाल में फंस जाता है। हर रिश्ते की कसौटी पर खरा उतरने की परिवार की अपेक्षा उसे एक सामाजिक प्राणी बना देती है जो कई बार समस्त रिश्तों में संतुलन बनाते-बनाते स्वयं असंतुलित हो कर रह जाता है। किशोर अवस्था तक आते-आते घर से बाहर की दुनियां उस पर अपना प्रभाव दिखाने लगती है तो उसकी सोच के घोड़े अनुशासन के अस्तबल से खुल कर बेलगाम अनजानी राहों पर सरपट भागने लगते हैं। बाहर की दुनियां की रूमानियत उसे घर की दुनियां से अधिक भली लगने लगती है। मातृत्व से संतुष्‍ट और पुष्‍ट शैशव विपरीत लिंगी की ओर आकर्षित होता है तो किशोर हृदय में एक ऐसी चाहत का बीज भी प्रस्फुटित हो उठता है जिसको पाने के लिए वह अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तुल जाता है। मातृत्व के बंधन को चुनौती देता है प्रेम का बंधन, इश्क का जुनून। मातृत्व उसे घर का छायादार पेड़ बनाने का हठ करता है तो वह पेड़ पंछी बन खुले आकाश पर उड़ाने भरने वाला स्वच्छन्द पंछी बनने का हठ करता है। बाहर की विशाल दुनियां हो या भीतर की दुनियां, रिश्तों की बेड़ियों में जकड़ा, रिश्तों में बंटा, टुकड़े-टुकड़े में से अपने आप को तलाशता दुनियां की भीड़ में खड़ा स्वयं को एकाकी अनुभव करने लगता है। जिसको प्रेम रोग हो उसे दुनियां में हर तरफ़ अपने चहेते के सिवा कुछ नज़र ही नहीं आता जबकि उसकी बाक़ी रहती दुनियां को उसकी यह उपेक्षा सहन नहीं होती तो टकरावों में दुखांत उसका पीछा करते हैं। अपनी ज़िन्दगी आप जीने का भाग्य केवल दुर्भाग्य पूर्ण लोगों को भी मिल नहीं पाता। अनाथ के पास भी आवारा होने की क्षमता हासिल नहीं है। वह भी प्रवंचनाओं से पीड़ित हो कर अपराध के अधिकार भाव से ग्रसित होकर रह जाता है। अपनी पृष्‍ठभूमि से जुड़ा इन्सान आंगन के पेड़ की भांति परिवार से बंधे रहने को बाध्य है जब कि वो स्वच्छन्द पक्षियों की भांति उड़ने की चाहत को केवल भीतर आक्रोश पैदा करने वाली एक मशीन बनाकर स्वयं को झुलसता देखने को विवश है। देशों और समाजों की स्वतंत्रताओं के लिए आंदोलन चलाए जाते हैं, हिंसा और आतंक के बल पर ग़ुलामी की बेड़ियों को काटा जाता रहा है मगर रिश्तों के भंवर में फंसा व्यक्‍ति केवल उनमें डूब सकता है, मुक्‍त होने के लिए भंवर से लड़ना उसके वश में नहीं। इन भंवरों से लड़ने वाले सदैव डूबे हैं। रिश्तों की कसौटियों का अर्थ केवल अधिकारों के चाबुक से ही निकलता है। अगर रिश्तों को कर्त्तव्‍यों के बोध से जोड़ने की पहल हो तो शायद उसे अग्नि परीक्षा देने की नौबत ही न आए। पदार्थवादी युग में ऐश्‍वर्य से भोगी बने इन्सान के लिए भारी भरकम रिश्तों के बोझ को ढोना कठिन हो गया है। आज रिश्ते स्वार्थ सिद्धि का साधन बना दिए गए हैं। आज हर रिश्ता अपना-अपना अधिकार मांगता नज़र आता है।

वैध रिश्तों की अपेक्षाओं के ताण्डव से कुछ ऐसे रिश्ते पनपने लगे हैं जिन्हें असामाजिक और नाजायज़ रिश्तों का नाम दिया जा रहा है। स्वार्थों ने मिल कर रिश्तों में सेंधमारी की एक ऐसी गुप्‍त लहर चलाई है कि आज रिश्तों की गर्माहट को सर्द बेरुखी ने बर्फ़ बना दिया है। रिश्तों को ढोने की कैफ़ियत से निजात पाने की कूटनीति का सांप हमारी आस्तीन में घुस चुका है वह छुपा हुआ नहीं अपितु हम उसे जानबूझ कर छुपाए हुए हैं ताकि उससे डसवाने के बाद भी हम कसूरवार न ठहराए जा सकें। आज मां और सास, बेटी और बहू के किरदारों के विरोधाभास चिन्तन की चौपाल पर सुलगने लगे हैं। मां जननी के रूप में वंदनीय होकर भी सास के रूप में घृणा योग्य पात्र क्यों बनी ? बेटियां बहू बनने से इन्‍कार करने की ओर अग्रसर क्यों हैं ? एक ही इन्सान के चरित्र की तहें प्याज़ के छिलके की भांति खुलती हैं। रिश्तों को कटार बनाकर हम अपने ही चरित्र का खून करने पर क्यों उतारू हैं ? यह कैसी सनक है कि अपने चेहरे पर दोस्ती का मेकअप करके किसी भले मानस को ठगते हैं और धोखेबाज़ी की बोझिल गठरी को हंसते-हंसते ढोते हैं ? आज खूबसूरती से दूसरे को धोखा देने की होड़ सी लगी हुई है। किसी की बेटी को ब्याह कर जब ससुराल वाले अपहरणकर्ताओं की तरह दहेज़ की फिरौती वसूल करते हैं तो शादी की व्यवस्था के चरमराने के दुखांत को टालना समाज तो क्या राज के कानून के वश में भी नहीं रह सकता। आज विवाह और अपहरण में, दहेज़ और फिरौती में अंतर करना कठिन है। आज लालच ने इन्सान को हैवान बना दिया है जिसके लिए रिश्तों का कोई अर्थ नहीं रह गया है। स्वार्थसिद्धि पर व्यवहारिकता की मोहर भी तो आधुनिक समाज ने ही लगाई है इसलिए व्यक्‍तिगत रूप से उसकी आलोचना भी एक दिखावे से ज्‍़यादा अहमियत नहीं रखती। राम जैसा राजा, सीता जैसी पत्‍नी, लक्ष्मण जैसा देवर और भरत जैसा भाई रामायण में पढ़ने को तो मिल सकते हैं मगर रामायण पढ़ने वाले राम के भक्‍तों के घरों में भी नहीं मिलते।

बिखराव के दौर में जहां प्राचीन परंपराओं का बिखरना जारी है वहीं सामाजिक विघटन के दौर में समाज व परिवार सब टूटने पर आमादा है। संयुक्‍त परिवारों की जगह एकल परिवारों ने ली है जहां समस्त रिश्तों में पारस्परिक संघर्ष अपने चरम दौर में है। मैं और मेरा की रट ने रिश्तों को तार-तार कर दिया है। अधिकार पाने की होड़ में हम समस्त रिश्तों पर अपना वो अधिकार खो चुके हैं जिन पर कभी गर्व किया जा सकता था। रिश्तों से मांग-मांग कर हम ऐसे भिखारी बन चुके हैं कि रिश्तों को देने के लिए आज हमारे पास कुछ बचा नहीं है। आज के व्यवहारिक युग में मेहमान एक मुसीबत से बढ़ कर माना जाता है। इसलिए अवकाश में भी हम निर्जन पहाड़ों के एकांत वास पर तो जाना चाहते हैं मगर हमारे बच्चे आज अपनी छुट्टियां काटने मौसी, फूफी और नानी के घर जाना पसंद नहीं करते। रिश्तों में पहले वाली पारदर्शिता आज नहीं रही। स्वार्थों की कुटिलता, व्यवहारिकता गर्द बन कर रिश्तों पर पसर गई है। आज सब कुछ पा लेने की होड़ में हमें जहां कुछ भी खोना गवारा नहीं वहीं हम सब कुछ पाते-पाते सब कुछ खोते जा रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि खोट की दुनियां में भले लोग नहीं रहे, रिश्तों को मानने वालों की आज भी कमी नहीं है। झूठ की इस दुनियां का बोझ आज भी कुछ भले मानस कंधों पर है। जफा की आंधियों में भी वफ़ा के चिराग़ जलते हैं। अच्छाई और बुराई का संतुलन बिगड़ा है, ख़त्म कुछ भी नहीं हुआ है और न होगा। मातृत्व पर सर्वस्व न्योछावर करने के इतिहास को डबवाली अग्‍निकांड के दौरान आग की लपटों से लिख वहां की मांओं ने दोहराया है। जैसे एक पहलू वाला कोई सिक्का आज तक नहीं बना वैसे ही केवल बुराई के बल पर दुनियां कभी नहीं चली। रिश्तों के आर-पार की सघन समीक्षा करने से यह तथ्य बार-बार उजागर हुआ है। बदलते युग के साथ बदलते रिश्तों की चाहतें, उम्मीदें और सरोकार भी बदलते रहते हैं। रिश्तों की भावुकता का प्रवाह कम हुआ है, थमा नहीं है। हमारे देश में आज भी मां-बहन और बेटी को हम पारिवारिक सम्मान का प्रतीक मानते हैं और उस को ठेस पहुंचाने वाले को नेस्तनाबूद करने के लिए तत्पर हो उठते हैं। शिक्षा और जागृति के संग सामाजिक परिवर्तनों के साथ रिश्तों को अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व बनाने की छूट भी किसी हद तक मिली है। आज हमारी शिक्षित बेटियां स्वयं परिवर्तन में अपनी भूमिका निभा रही हैं तो उनके दृष्‍टिकोण में बदलाव आना लाज़िम है। घर की चौखट से बंधी औरत आज किसी हद तक आज़ाद है। आज वह संबंध बनाने में संकोच नहीं करती। अपनी पसंद के बारे में सुचेत हो गई है। कुछ लोग रिश्तों में आए परिवर्तन को खुली हवा के झोंके का नाम देते हैं तो कुछ लोग इस खुली हवा को रिश्तों में ख़राबी पैदा होने का कसूरवार ठहरा रहे हैं। दुनियां में इंसान स्वतंत्र रूप से नहीं आ पाता। जिस कोख का सहारा लेता है उसके परिवार के अनेक रिश्तों में जकड़ा जाने के बाद ही दुनियां में आंख खोलता है। इसलिए वह जीवन पर्यन्त रिश्तों में उलझा, रिश्तों में फंसा, उनको निभाता हुआ जीता है और जीवन के अन्तिम पल तक उस चक्रव्यूह में फंसा दम तोड़ देता है। जन्मजात रिश्तों से बंधा इंसान जब कहीं भावनात्मक रिश्ते स्थापित करता है तो दोनों प्रकार के रिश्तों में भयानक टकराव की स्थिति में पिस कर रह जाता है। रिश्तों की परतों में छुपा वो स्वयं हाड़-मांस के एक पुतले के सिवा कुछ भी नहीं जो स्वतंत्र रूप से जीने के लिए भाव शून्य होकर एक भी कदम आगे बढ़ा सके। अपने दादा-पड़दादा की गोद में खेलने का ऋण वह अपने पुत्र, पौत्र और पड़पौत्र को अपनी गोद में खेलाकर उतारता है। पिता का वारिस बन कर पुत्र को विरासत सौंपने वाला इन्सान रिश्तों के एक अटूट सिलसिले को ही आगे बढ़ाता है। तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिस्थितियों का उस पर सदैव असर रहता है। जब यह स्थितियां बदलती हैं तो रिश्तों में भी बदलाव आता है। ज़िन्दगी रिश्तों के माध्यम से सफ़र करती है। जब आदमी मृत्यु को प्राप्‍त होता है तो उसके तमाम रिश्ते स्मृतियों के रूप में उस के चहेतों के हृदय में बस जाते हैं।

नई शताब्दी में प्रवेश करते हुए आज रिश्तों के तार पुन: छेड़ने की आवश्यकता है। भीड़ में फैली अजनबियत और एकाकीपन से निजात पाने के लिए हर अकेले को दुकेले होने की तलब होती है। जहां रिश्तों की पहुंच न हो वहां दोस्तियां जन्म लेती हैं। जहां दोस्तियां दुश्‍वार हों वहां दुश्मनियों को जंग का मौका मिल जाता है। जिस का कोई रिश्तेदार न हो वह अनाथ कहलाता है, अकेला अनुभव करता है और बंधन मुक्‍त होने से आवारा हो जाता है। वंचना की पीड़ा से छटपटाते हुए अपनेपन से भरे किसी रिश्ते के बंधन में बंधने को बेताब होता है। सभ्यता की समृद्धि के लिए संबंधों का सार्थक विकास अनिवार्य है। रिश्तों के कमज़ोर होते अहसासों को पुष्‍ट करके इन के आधार को मज़बूत करना आज की स्थितियों का तकाज़ा है। अगर हमारे आपसी रिश्तों में संदेह के फैलते ज़हर को रोकना है तो आपसी विश्‍वास की बहाली आवश्यक है जिस के लिए रिश्तों को कर्त्तव्‍यों की कसौटी पर खरा उतरने के लिए इन्सान को स्वयं में कुछ आत्म संशोधन करना होगा। पाने की, छीनने की वृत्ति का परित्याग करके देने की, त्याग करने की भावना को प्रफुल्लित करना होगा। पति-पत्‍नी में आज ‘वो’ खड़ा संदेह की चिंगारी सुलगा रहा है। पति-पत्‍नी के आपसी रिश्ते में आई संदेह की दीवार जहां गिराए जाने की आज आवश्यकता है वहीं सास-बहू का रिश्ता भी दहेज़ की ज्वाला में धधकता दिखाई दे रहा है। दहेज़ की आग को बुझाने के लिए सामाजिक और धार्मिक नेतृत्व को संयुक्‍त फायर ब्रिगेड सक्रिय करनी होगी। पत्‍नी के विवाह पूर्व प्रेम संबंधों व पति के विवाहोपरांत के नाजायज़ संबंधों के बावेलों ने पति-पत्‍नी के रिश्ते को कचहरी भटकने के लिए छोड़ रखा है, दाव पर लगे रिश्तों को बचाने, संभालने और संवारने की अत्यावश्यकता है अन्यथा सामाजिक व्यवस्था को नाजायज़ संबंधों से मिली चुनौती का सामना करना ही कठिन हो जाएगा। रिश्तों को निभाने की पहल करने वालों के लिए यह ढोने वाला बोझ लगना बंद हो जाएगा।

रिश्तों को फूलों की भांति खिलने का अवसर दिया जाए तो इनका गुलदस्ता तेज़ भागती ज़िन्दगी के तनावों से राहत ही नहीं देगा अपितु एकता की महक से एक स्वस्थ समाज की रचना में सहायक होगा। रिश्तों को कांटा समझेंगे तो उसकी चुभन भी हमीं को महसूस होगी और अगर उसे फूल की तरह लेंगे तो वह भी हमें महक ही देगा। जल्दबाज़ी में संदेह के सांप को दिमाग़ की पिटारी से निकालेंगे तो वह हमारी ही खुशियों को डस कर हमारी ज़िन्दगी को शमशान बना देगा। अत: रिश्तों से महक और चुभन पाने का चुनाव हमें स्वयं ही करना होगा।

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