-शैलेन्द्र सहगल
एक सम्मानजनक जीवन जीने का चाहवान व्यक्ति राज्य के कानून व समाज की प्रथाओं की ज़ंजीरों में इस कद्र जकड़ा हुआ है कि लाख चाहने पर भी कुरीतियों की प्रथाओं को तोड़ने की अपेक्षा उनका बोझा ढोने पर विवश है। लोक लाज और प्रथाओं की चक्की में एक आदमी किस तरह से पिस रहा है यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति अपनी बेटी के लिए योग्य वर जुटाते हुए बाखूबी दे सकता है। शादी का पावन बन्धन लेन-देन के जिस चक्रव्यूह में फंसा है उसे तोड़ पाना एक आम आदमी के वश में है ही कहां? सुयोग्य वर की तलाश आरम्भ करते ही उसे इस बात का एहसास हो जाता है कि शादी के कारोबार में इन रिश्तों का केवल व्यापार होता है। वैवाहिक विज्ञापनों पर एक उड़ती नज़र डालने से ही इस बात की सहज पुष्टि हो जाती है। बेटा डॉक्टर है तो अभिभावक यही चाहते हैं कि डॉक्टर बहू आकर उनके घर की कमाई को दोगुणा कर दे। बेटा प्रोफ़ेसर है तो अभिभावक प्रोफ़ेसर बहू को ही अधिमान देते हैं। प्रथम परिचय के अवसर पर वे यही कहते हैं कि जिसने (कमाऊ) बेटी दे दी उससे भला दहेज़ की उपेक्षा ही क्यों रखी जाए ? एेसे वाक्य सुनते ही कन्या के मां-बाप को वर पक्ष की ओर से ठण्डी-ठण्डी हवा के झोंके आने लगते हैं। हृदय से गदगद होकर वे यह कहना भी नहीं भूलते कि उनके पास भी तो सिवाए बेटी के देने के लिए कुछ नहीं है। इसके बाद ही रिश्ते को आगे बढ़ाने की बात शुरू होती है। सबसे पहले इसके लिए लड़के और लड़की को रोकने की रस्म निभाने के लिए ‘रोका’ किया जाता है। वर पक्ष विनम्र भाव से यह कहने की औपचारिकता करना नहीं भूलते कि अगर लड़की को लड़का पसंद है तो भले ही एक ‘गुड़’ की भेली के साथ सवा रुपया लड़के की झोली में डाल कर स्वीकृति की मुहर लगा दें। वर पक्ष से यह सुन कर एक हलकी ठण्डी हवा का झोंका और लेते हुए कन्या पक्ष वाले अपनी व अपने संबंधी की नाक रखने लिए किसी बढ़िया होटल में बुलाकर वर पक्ष के प्रत्येक मेहमान की शगुन सहित आवभगत करते हैं। रोके की इस प्रथा को ढोने की विवशता में ही कन्या पक्ष का अगर 10-20 हज़ार रुपया ‘उड़’ जाता है तो वर पक्ष को भी 5-10 हज़ार का ख़र्च सहना पड़ता है। ‘रोका’ शादी के रिश्ते की वो नींव है जिस पर पूरी इमारत खड़ी होती है। इस रस्म के उपरान्त वर पक्ष अत्यन्त संकोच के साथ एक औपचारिक वाक्य बोल कर प्रथाओं की ओट में लालच परोसना आरम्भ कर देता है कि उनकी अपने लिए तो कोई भी मांग नहीं है पर आए-गए का आदर सत्कार अवश्य भली-भांति कर दिया जाए ताकि समाज में उनकी नाक बची रहे। कन्या के अभिभावकों को ‘संबंधियों की बात सिर माथे लेनी पड़ती है।’ उसके बाद वर की अभिलाषा से पर्दा उठता है कि उसके मित्रों की भांति उसका विवाह भी किसी बढ़िया होटल या मैरिज पैलेस में आयोजित होना चाहिए। बारात छोटी लाए जाने की उम्मीदों की ज़मीन भी वर पक्ष के इस कथन से सरकने लगती है कि पहले-पहले विवाह के शुभ अवसर पर अब किसको इग्नोर किया जाए ? वर पक्ष का यह सवाल रूपी सांप कन्या के पिता के बजट को डसने लगता है तो ठंडी हवा के झोंकों की जगह उसे ठंडे पसीने आने लगते हैं। उसके सोचे बजट की उड़ती धज्जियां उसकी नींद और चैन छीन लेती हैं। उसके आश्चर्य की उस वक़्त कोई सीमा नहीं रहती जब संबंधियों के लालची न होने पर भी उसका बजट रस्मों-रिवाज़ों के हाथों ही लम्बा खिंचता चला जाता है। सैंकड़ों की बात सैंकड़ों में नहीं सिमटती। रस्मों के हाथों बेबस हुआ बाबुल मन मसोस कर रह जाता है। ऊपर से संबंधियों की ‘मिलनियों’ की लम्बी सूची और तमाम रिश्तेदारों के नौगे नागों की भांति उसके ज़ेहन पर रेंगने लगते हैं। संबंधियों के रिश्तेदारों के आने-जाने, विवाह से पूर्व ही पड़ने वाले तीज़-त्योहारों पर होने वाले ख़र्चों से बेबस बाबुल की झुकी कमर टूटने लगती है। एकांत में बैठ कर बाबुल को इस बात का अहसास होने लगता है कि बेटियों के जन्म पर मां-बाप का मुंह क्यों लटक जाता है। संबंधी लालची तो लगते नहीं फिर उसका विवाह का बजट अमरबेल की तरह क्यों फैलता जा रहा है यही सोच-सोच कर उसका हृदय सिकुड़ता है। बड़ी बारात की ख़ातिर ‘मेल मेहमानों’ की सूची पर ‘कट’ लगाने की तजवीज़ रखते ही उसकी बीवी बिफर पड़ती है, ‘क्यों जी जिन लोगों को सारी उम्र शगुन देते आए हैं उनकी बारी देने की आई तो उन्हें सूची से काट दें? यह नहीं होगा और फिर जिनके विवाहों में गए हैं उन्हीं को नहीं बुलाएंगे तो वे क्या सोचेंगे ? बाबुल की फिर बोलती बन्द हो जाती है। लड़की को पहनने को गहना-गट्टा और कपड़ा तो देना ही होगा। लड़की को देना और दामाद को भूल जाना भी तो सम्भव नहीं। हलका दिया तो भी दोनों नाराज़ और कम दिया तो संबंधियों की बेइज़्ज़ती। ले-दे कर बचा दहेज़, दहेज़ में पलंग, ड्रेसिंग टेबल, अलमारी, सोफ़ा सेट जैसी चार चीज़ें ही तो बच जाती हैं, इसलिए देनी ही भली। बजट और बढ़ जाता है। बेटी भले ही दामाद से ब्याहनी है पर उसे रहना तो सास-ससुर, देवरों व ननदों के बीच ही है न, इसलिए उन्हें भी तो खुश करना ज़रूरी है। सास को सोने का सेट, ससुर को सोने की अंगूठी, देवर को सोने की अंगूठी तो ननदें ही बेचारी बुरी होती हैं, उन्हें भी तो अंगूठियां देनी पड़ेंगी जैसे-तैसे बेटी की डोली तो विदा करनी ही होगी। अरे भाई राजे-महाराजे बेटियों को घर नहीं बिठा पाए तो भला आम आदमी उसे कैसे घर बिठा सकेगा। ख़ैर डोली विदा होते ही ससुरालियों का प्रथम भोज, बेटी की बाबुल के घर पहली फेरी उसके बाद पहली लोहड़ी, पहली दीवाली, पहला करवा चौथ अर्थात् हर तीज़ त्योहार पर बेटी के सुख की ख़ातिर संबंधियों की इज़्ज़त रखने के लिए बढ़िया उपहार तो देने ही होंगे। एक साल त्योहारों का चाव पूरा होते ही नवासों के जन्म पर ‘जम्मनियों’ का सिलसिला शुरू हो जाता है। संबंधियों को निरंतर देते रहने के बदले भी गिले-शिकवों और तानों के अतिरिक्त कन्यादान करने वाले महानुभावों के हाथ कुछ नहीं लगता। एक बेटी के बहू बनने का सफ़र इतना महंगा हो चुका है कि उसका ख़र्च वहन करते-करते ही उसका रामनाम सत्य हो जाता है। विवाह के बाद भी बाबुल की वो लाडली, जनक की जानकी को ससुराल में सुख ही मिलेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। उसका पति परमेश्वर एक मानव निकलेगा या दानव ? इस आशंका के भय तले आतंकित सांसें गिन रही बेटी बहू बनने के लिए जब तैयार हो रही होती है उस दौर में उसका भावी पति उससे यह अपेक्षा भी रखता है कि वह उससे फ़ोन पर मनुहार ही न करे अपितु उसके कहने पर उससे मिलने रेस्तरां में भी आए। विवाह और वैवाहिक जीवन की क़ामयाबी के लिए भले ही ऐसा किया जाना ठीक लगता हो मगर इस में कच्चे रिश्ते के टूट जाने का भय भी बराबर समाया रहता है। जहां लोक लाज का पालन आज भी आवश्यक लगता है आधुनिक दूल्हे राजा उसे तो मानना नहीं चाहते। बैटर-अण्डर स्टैन्डिंग के लिए वे लोक लाज के दायरों को लांघने के लिए सदैव तत्पर नज़र आते हैं पर जहां लोक लाज व प्रथाओं के नाम पर लड़की के पिता का अच्छा ख़ासा आर्थिक शोषण होता है वहां पर वे एक रहस्यमयी खामोशी धारण किए रखते हैं। अगर वे वास्तव में चाहते हैं कि उनकी दुल्हन से बैटर क्या बेस्ट-अण्डर स्टैन्डिंग हो तो वे शादी के पावन बन्धन में से दहेज़ के उस दानव को सदा-सदा के लिए हटा दें। जो नौजवान बिना दहेज़ के दुल्हन को हृदय से अपना लेते हैं दुल्हन उनके आगे पूर्ण रूप से आत्म-समर्पण करती है। दूल्हा जो दहेज़ नहीं लेता वो अपनी दुल्हन के मायके में वास्तव में जंवाई राजा बन जाता है। संबंधी-संबंधी एक दूसरे की बलिष्ठ भुजाएं बन सकती हैं। दहेज़ के दानव ने जिस कद्र विकराल रूप धारण कर लिया है उससे भयभीत हो रही बेटियां कहीं बहू बनने से इन्कार ही न कर दें। ऐसी नौबत आने से पहले शादी के पावन बन्धन में से दहेज़ को बेदखल करना होगा। ऐसा किए बिना बेटियों को भय से मुक्ति नहीं दिलाई जा सकती। वैवाहिक जीवन में संबंधियों में उठ रही दहेज़ की दीवार अगर गिर जाए तो रिश्तों के व्यापार को रिश्तों के सच्चे प्यार में बदला जा सकता है। आज 21वीं शताबदी में भी नारी की हालत बदली नहीं है।
‘दो-दो कौर रोटियां मिलती और धोतियां चार
नारी तेरा यही मूल्य तो करता है संसार’
आज भी अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी, आंचल में दूध और आंखों में पानी।
कितने अफ़सोस की बात है कि शादी में दहेज़ का कारोबार अत्यंत चतुराई से लोक लाज और प्राचीन प्रथाओं को निभाने के नाम पर बदस्तूर जारी है। दहेज़ की चक्की में पिसते बाबुल का कहीं कोई बचाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा। प्रथाओं के पीछे छुपा दहेज़ का लालच तांडव निरंतर जारी है। दहेज़ की बलिवेदी पर नित्य बेटियों को चढ़ाया जा रहा है फिर भी इस दानव का आकार दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। समाज पर इस का शिकंजा भी कसता ही जा रहा है। इस के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए, धर्मभीरु भारतीयों की मानसिकता को बदलने के लिए धर्म का उपयोग करना होगा। धर्म संसद को ही दहेज़ प्रथा समाप्त करने के लिए इसे ‘पाप’ घोषित करना होगा। आध्यात्मिक प्रवचन करने वाले महात्माओं को अपने प्रवचन में इसका समावेश करना होगा। दहेज़ की लानत को अगर समय रहते रोका न गया तो निश्चय ही बेटियां आज नहीं तो कल बहू बनने से इन्कार कर देंगी और विवाह की चरमराती व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो कर रह जाएगी।