-बिमला नेगी
स्कूल के प्रांगण में मंदिर है या मंदिर के प्रांगण में स्कूल मैं नहीं जानती। हाँ इसी स्कूल के होस्टल में मैं रहती हूँ। और मंदिर के पास एक कुत्ते-कुत्तिया का जोड़ा रहता है। सुबह-सवेरे कुत्तिया मार्ग के बीचों-बीच बैठकर मानो आने-जाने वाले की हाज़िरी भरा करती है।
प्रतिदिन सुबह 4 बजे मन्दिर की ध्वनि बज उठती तब मैं अपने को एक नयी उर्जा से परिपूर्ण पाती, सबसे दूर एकाकी किंतु प्रफुल्लित। मन में आया सुबह घूम कर आते हैं। घूमने गई सर्वप्रथम ब्राउन रंग की, मोटी-मोटी आंखों वाली कुत्तिया से भेंट हुई। वह मुझे देखते ही ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगी। मैं डर गई और वापिस हो ली। दूसरे दिन वह मुझे देखती रही भौंकी नहीं शायद पहचानने की कोशिश कर रही थी। तीसरे दिन मुझे देखती रही शायद स्वीकार कर लिया कि मैं यहीं की रहने वाली हूँ। मैं डरी नहीं उसके पास से गुज़र गई। अब मुझे निहारते ही पूँछ हिलाने लगती मैं भी ब्राउनी कहकर उसे पुचकार देती किंतु इतना साहस न जुटा पाई कि उसे हाथ लगा पाऊं।
समय गुज़रा, वह होस्टल के पास पार्क था उसमें आने लगी और पुचकारने और ब्राउनी-ब्राउनी कहने पर पास आ जाती मैं उसको सहलाती और रोटी देती। वह पार्क में इधर-उधर घूमकर कोई सुरक्षित स्थान ढूंढ़ रही थी। मैं नहीं जानती थी जानवर भी कितना समझदार होता है वह भी भावी पीढ़ी की सुरक्षा के लिए प्रयत्नशील होता है। पार्क में पेड़ों के पीछे एक गड्डा देखकर वह प्रसन्न हो उठी। वह अपने बच्चों को एक-एक कर मुँह में दबाये उस गड्डे में रखने लगी और चारों बच्चों के साथ रहने लगी जब वह न होती मैं जाकर बच्चों को सहला आती।
चारों बच्चे बड़े ही प्यारे थे। अलग-अलग वर्ण के – एक चितकबरा था, दूसरा माँ के रंग वाला, तीसरा सफ़ेद और पैर काले ऐसे लगता उसने जूते पहन रखे हों चौथा था बिलकुल काला किंतु बड़ा आकर्षक, सुन्दर और चंचल। कोई आया और चुपके से बच्चों को उठाकर ले गया। यह काला पिल्ला जाने कहाँ छिप गया। जब माँ आती और अपनी भाषा में बोलती वह काला पिल्ला दौड़ता हुआ आता पूँछ हिलाता और दूध पीने लगता। माँ उसे देखकर बहुत प्रसन्न होती। अन्य बच्चों के खो जाने का गम, कष्ट उसे था किंतु एक में ही सन्तुष्ट होने का यत्न करती। उसको चाटती दूध पिलाती खेलती। यही नहीं उसे अपने साथ रखने का प्रयत्न करती ताकि भविष्य में उसके प्यार से वंचित न हो सके। किंतु नियति को यह न भाया। आख़िरी पिल्ला भी कोई उठाकर ले गया। ब्राउनी बेचारी परेशान होकर इधर-उधर घूमती कालू को खोजती अपनी आवाज़ में उसे बुलाती परन्तु वह होता तो आता। उसे समझ नहीं आ रहा था कहां खोजे। वह होस्टल के गेट के पास आती ऊॅचा-ऊॅचा रोती। मैं उसके रोने से परेशान हो गेट पर पहुंचती रोटी खिलाती वह नहीं खाती, सहलाती ऐसे देखती मानो पूछ रही हो मेरे बच्चे कहाँ हैं? बता दो। मैं उसे प्यार करती सहलाती और कहती; “ब्राउनी! बताओ क्या करूँ? कहां से लाऊँ तुम्हारे बच्चे? मुझे पता नहीं।” वह कुछ देर वहाँ खड़ी रहती और दूर जाकर रोने लगती। कुछ दिन वह लगातार रोती रही और इधर-उधर भटकती रही। अंत में जैसे उसने परिस्थितियों से समझौता कर लिया हो। शांत बैठी रहती न भौंकती न अच्छी तरह खाती। दस-पन्द्रह दिन बाद दिन में एक-आध बार रोती जैसे मातृत्व उससे कुछ पूछ रहा हो या वात्सल्य के वशीभूत हो ऐसा करने को मजबूर हो रही हो।
वह कहाँ चली गई पता नहीं बहुत समय बाद एक दिन दिखाई दी। अब वह इधर नहीं आती थी। अचानक एक दिन होस्टल की दहलीज़ पर खड़ी वह पूँछ हिला रही थी उसे देखते ही मैं उस तक पहुँच गई। वह एकटक मुझे देखती रही और पूँछ हिलाती रही। मैंने उसे सहलाया और पूछा, “कहां थी इतने दिन?” पूँछ हिलाकर मानो कह रही हो “मैं तो खुशख़बरी सुनाने आई हूँ। मेरे घर रौनक आने वाली है।” वह पेट से थी और बहुत खुश थी। कभी-कभी आती मैं रोटी देती वह बड़े प्यार से खाती। काफ़ी दिन तक वह दिखाई नहीं दी।
हमारे यहाँ एक सहायिका थी मैंने उससे पूछा, “ब्राउनी अब नहीं दिखती न।” उसने बताया उसने पिल्ले दिये हैं बस उन्हीं को सहलाती दुलारती रहती है। मैडम, उसके पास तो टेम नहीं है।” उसकी यह बात सुनकर मैं मुस्करा दी। पूछा “कहाँ दिये हैं?” “स्टेडियम के पास” उसने कहा। “काले पिल्ले की तरह प्यारे-प्यारे हैं” उत्तर सुने बिना ही मैंने कहा, “एक उठा ला न, हम पाल लेंगे।” एक दिन यह बात हुई थी कि दूसरे दिन उसका विलाप शुरू हो गया। किसी क्रूर ने उसके बच्चों को उससे छीन लिया और ब्राउनी फिर से सन्तानहीन हो गई। इधर-उधर घूमती और उन्हें ढूंढ़ती, मिले भी तो कहाँ? वे तो क्रूरता के शिकार हो गए थे।
हृदय विदारक दृश्य तो वह था जब बारात आ रही थी और ब्राउनी रो रही थी उसे उस बारात से कोई सरोकार नहीं था। मानो कह रही हो “तुम तो अपना संसार बसाने चले हो मेरा तो संसार ही उजड़ गया है।” उसके रोने को अपशगुन मान उसे मारा जा रहा था। वाह रे विधाता! तेरा भी कैसा विधान है? अपने बच्चे का शोक मनाने का भी अधिकार नहीं। मैं जानती थी रो-रो कर ब्राउनी पुनः परिस्थितियों से समझौता कर लेगी। किंतु अभी उसकी दुर्दशा देखकर मन से यही आवाज़ निकलती “हद है मानव की क्रूरता की।”