-नवीन कपूर

अभिनव रेल यात्रा (लौह पथ गामिनी) द्वारा अपने शहर वापिस आ रहा था। गर्मियों की ऋतु चल रही थी। अभिनव रेलगाड़ी में अपने औसत आकार के बैग सहित भीड़ के कारण फिलहाल खड़े-खड़े ही सफ़र कर रहा था। तभी अभिनव ने एक बच्चे के रोने की आवाज़ सुनी। आवाज़ बाईं तरफ़ से आ रही थी। दरअसल एक काफ़ी कम उम्र का बच्चा प्यास लगने के कारण रो रहा था। अगला स्टेशन अभी थोड़ी दूरी पर था। उधर वह बच्चा प्यास के कारण रोये जा रहा था। अभिनव ने पानी की थर्मस गाड़ी में अपनी दाईं तरफ़ वाली एक खूंटी (वो खूंटी, जो रेलगाड़ी में बोतल आदि लटकाने हेतु बनाई जाती है) पर टांग रखी थी तो अभिनव ने उस तरफ़ बैठे एक यात्री से निवेदन किया, भाई साहब, कृपया ज़रा अपने पास वाली खूंटी पर टंगी थर्मस पकड़ाएं। उस यात्री ने थर्मस खूंटी से उतार कर अन्य एक-दो यात्रियों के माध्यम से अभिनव को पकड़ा दी क्योंकि रेलगाड़ी के फ़र्श पर भी यात्रियों द्वारा अपने सामान रख दिए जाने के कारण आगे-पीछे जाने हेतु स्थान न के बराबर था। अभिनव ने अपनी थर्मस में से कुछ जल थर्मस के ही गोलाकार ढक्कन में उड़ेल कर उस छोटे बच्चे के माता-पिता से निवेदन किया सुनिए आप अपने बच्चे को पानी पिला दें। पानी जूठा नहीं है। अगला स्टेशन अभी थोड़ी दूरी पर है। ‘जी शुकिया।’ मां द्वारा बच्चे को पानी पिलाया गया तो बच्चे को कुछ राहत मिली। मां ने अभिनव से थोड़ा और पानी मांग कर बच्चे का लाल सा हो चुका (गर्म हवा के थपेड़ों के कारण) चेहरा भी धोया। बच्चे के पिता ने अभिनव के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए, उसे बैठने हेतु थोड़ा सा स्थान तो प्रदान कर दिया तथा अभिनव भी, ‘जी शुक्रिया’ कह कर बैठ गया परन्तु साथ ही उस बच्चे के पिता ने झिझकते हुए धीरे से अभिनव के कान में पूछ लिया, अ वैसे आप कौन होते हैं? अभिनव ने आश्चर्य और थोड़े क्रोध रूपी मिश्रित भावों सहित उस बच्चे के पिता की तरफ़ देखा लेकिन स्वयं पर नियंत्रण रखते हुए सहजता सहित जवाब दिया, मैं इंसान हूं। वो सोच रहा था- कितनी हैरानी की बात है कि बहुत से लोग आज भी बेकार के साम्प्रदायिक विचारों से बाहर निकलना ही नहीं चाह रहे हैं। चाहे पढ़े-लिखे लोग ही क्यों न हों।

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