-ज्योति खरे

स्त्रियां स्वभावतः ही धार्मिक प्रवृत्ति की होती हैं और व्रत-उपवास, पूजा-अर्चना सभी धार्मिक कार्यों के अंतर्गत ही आता है। स्त्रियों के ज़्यादा व्रत रखने के पीछे कदाचित् ये मान्यता है कि इससे परिवार पर आने वाली विपत्तियां टल जाती हैं।

बचपन से ही स्त्रियों को ऐसे वातावरण में पाला जाता है कि उनकी मानसिकता ही भाग्यवादी हो जाती है तथा दुर्भाग्य को दूर करने के लिए व्रत-उपवास रखना उनके लिए किसी रामबाण से कम महत्त्व नहीं रखता यथार्थ में कटु परिस्थितियों का सामना कर पाने में जब स्त्रियां अपने आप को असमर्थ पातीं हैं तो व्रत-उपवास, पूजा-पाठ आदि का सहारा लेने लगती हैं। कदाचित् इसके पीछे यह भावना छिपी हुई रहती है कि व्रत रखने से भगवान् खुश होंगे तथा वही किसी भी विपत्ति को टाल सकते हैं।

कई परिवारों में तो ज़्यादा व्रत रखने वाली महिलाओं को अतिरिक्त सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है तथा उन्हें बहुत ही कर्त्तव्य-परायण समझा जाता है। ऐसे माहौल में रहने वाली स्त्रियां व्रत रखने लगती हैं ताकि लोग उन्हें अन्य सामान्य महिलाओं से श्रेष्ठ समझें। कई एक उदाहरण में तो व्रत रखकर समय को काटना जब दुष्कर लगने लगता है तब समय बिताने के लिए कोई फ़िल्म देख ली जाती है या परनिंदा पुराण शुरू हो जाता है। कितना हास्यप्रद लगता है इस तरह व्रत रखकर समय बिताना तथा व्रत के सही प्रयोजन की अवहेलना करना, साथ ही व्रत करके भाग्य बदलने, संतान प्राप्ति या मृत्यु टालने जैसी किंवदंतियां भी प्रचलित हैं। जो इस भ्रांति को और बढ़ावा देती हैं। कई व्रत तो ऐसे हैं जिनमें पति की दीर्घायु की कामना की जाती है, कुछ व्रत विशेषकर भाइयों के हित के लिए किए जाते हैं। पर बहनों के हित के लिए या महिलाओं की भलाई को ध्यान में रखकर कोई व्रत नहीं रखा जाता। कुछ व्रत तो एक-दो दिन तक बग़ैर पानी पिए रखे जाते हैं ये अलग बात है कि व्रत धारण करने वाली स्त्री कितनी गंभीर बीमार ही क्यों न हो जाए।

दरअसल स्त्रियों को शुरू से ही यह बताया जाता है कि पुरुष के बग़ैर उसका कोई अस्तित्त्व नहीं, उसकी सत्ता को स्वीकारे बिना उसका कोई मान नहीं। साथ ही हमारे समाज में विधवाओं की दयनीय स्थिति भी किसी से छिपी नहीं है। इसलिए स्त्रियां पुरुष के असमय काल-कवलित हो जाने की आशंका मात्र से ही बहुत भयभीत हो जाती हैं। तथा खुद को पुरुष के बिना सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक रूप से काफ़ी कमज़ोर समझने लगती हैं तथा भविष्य असुरक्षित महसूस करके इस स्थिति को टालने के लिए ही व्रत रखने लगती हैं।

जब स्त्री अपने पति या भाई के लिए व्रत रखती है तो वे भी इससे अत्यधिक प्रसन्न होते हैं कि हमारी मंगल कामना के लिए व्रत रखा जा रहा है। पुत्र के प्रति सहज ममता से वशीभूत होकर भी स्त्रियां व्रत रखती हैं पर शायद पुत्री के लिए कोई व्रत नहीं होता। हालांकि इस प्रश्न पर यह तर्क दिया जा सकता है कि बच्चों के लिए किए जाने वाले व्रत के अंतर्गत बेटा और बेटी दोनों ही आते हैं पर इस कथन की सत्यता संदिग्ध है। खुद स्त्री अपने लिए कोई व्रत नहीं रखती न ही उसका पति या पुत्र उसके लिए व्रत रखता पाया गया है।

कई बार तो किसी व्रत को महिलाएं अन्य को देखकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी करती आ रही हैं। यह व्रत क्यों और किसके लिए किया जाता है, उन्हें यह भी नहीं मालूम होता। वैसे हमारे यहां व्रत के नियम भी परिस्थितियों के अनुसार लोचदार बनाने का नियम है। जैसे ज़्यादा प्यास लगने की स्थिति में घुटने के बल बैठकर पानी पिया जा सकता है। शहरों में तो आधुनिकीकरण के कारण स्थिति कुछ हद तक ठीक है पर गांव में अभी भी व्रत-उपवास की बहुत मान्यता है वहां जो स्त्री व्रत करके भूखे-प्यासे नहीं रह सकती उसकी अन्य स्त्रियां मिलकर भर्त्सना करती हैं बस लाचार होकर उसे भी इस कुप्रथा को अपनाना पड़ता है। छोटी-सी उम्र से ही लड़कियां अच्छे घर-वर की कामना लेकर व्रत करना शुरू कर देती हैं। इनमें से कितनों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, विचारणीय प्रश्न है?

हालांकि विज्ञान की दृष्टि से व्रत रखना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक बताया गया है पर शायद ही कोई स्त्री होगी जो इस विचार से व्रत रखती हो अंततः यह कहना ही औचित्य पूर्ण होगा कि अपने भाग्य को सौभाग्य बनाने के लिए ही स्त्रियां अधिकतर व्रत रखती हैं।

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