-गोपाल शर्मा फिरोज़पुरी

परम्परायें रीति रिवाज़ और मेले त्योहार किसी देश की सांस्कृतिक विरासत होते हैं परन्तु यदि यह सब अन्धविश्वासों और रूढ़ियों से ग्रस्त हो जाए तो मानवता के लिये घातक बन जाती है। हमारी परम्पराओं में जात-पात और ऊंच-नीच ने विकट रूप धारण कर लिया है। इस ऊंच-नीच ने सिर्फ़ नारी जाति को ही प्रताड़ित नहीं किया बल्कि पुरुष वर्ग भी इससे दण्डित हुआ है ख़ास कर शादी ब्याह के मामले में जात-प्रथा की व्यवस्था ने काफ़ी नुक़सान पहुंचाया है। अनुसूचित वर्ग के लोगों को कुओं से पानी भरने नहीं दिया जाता था, मन्दिरों में प्रवेश की मनाही और छुआछूत ने निम्न वर्ग को बहुत दर्द दिया।

शादी की बात करें तो जो उच्च वर्ग का पुरुष भी किसी नीच जाति से विवाह कर लेता था तो उसे समाज से निष्कासित कर दिया जाता था। उसका हुक्का-पानी बन्द किया जाता था। वह विस्थापित होकर कहीं और चला जाता था। उसे चांडाल कह कर पुकारा जाता था। रही नारी की बात वह तो हमेशा ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ी रही है। उसे कई वर्षों तक अनपढ़ रखा गया है। उसको राजे महाराजे और अहलकारों और जैलदारों ने लूटा है। राजे महाराजों ने कई स्त्रियों से विवाह किए हैं समर्थ लोगों ने भी इस विधि को आगे बढ़ाया है। सती-प्रथा, पर्दा-प्रथा, दहेज़-प्रथा के नाम पर उसके साथ अत्याचार हुआ है। अनमेल विवाह के खूंटे के साथ उसको बांधा गया है। उसकी पुकार किसी ने नहीं सुनी। विधवा होने पर उसके सिर को मुंडवाया गया है।

यह परम्परायें धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं परन्तु अभी इसमें समय लगेगा। जैसे हमें आज़ादी दो सौ वर्ष के संघर्ष के बाद मिली थी।

अब भारत आज़ाद है। हमारा एक संविधान है। संविधान के अनुसार देश चलता है। सरकारें संविधान का पालन करती हैं। संविधान के अनुसार नागरिकों को मौलिक अधिकार दिए गये हैं। आर्टिकल 15 के मुताबिक़ नर तथा नारी को समानाधिकार दिए गये हैं। ऊंच-नीच, छुआछूत को समाप्त किया गया है।

किसी बालिग़ लड़की या लड़के को किसी भी जाति में विवाह करने की छूट है। फिर भी धर्म के समुदाय और धर्म के ठेकेदार इसे नहीं मानते। यहां मौलवी और धर्माचार्य संविधान से ऊपर हैं, जो हुक्मनामे और फ़रमान जारी करते हैं। कभी नारी के कपड़ों पर कटाक्ष किया जाता है, तो कभी तीन तलाक़ और हलाला जैसे निर्देश दिए जाते हैं। कई समुदायों में नारी बाल नहीं कटवा सकती, माथे की बिंदी नहीं लगा सकती, साड़ी नहीं पहन सकती, टॉप और जींस नहीं पहन सकती अभी भी परदा और बुर्का लाज़िमी है। विवाह के क्षेत्र में नारी स्वतंत्र नहीं है जात-पात का भूत उसको बड़े-बड़े दांत निकाल कर डरा रहा है।

समाज में कई ऐसे प्रेमी-प्रेमिकाओं ने रेलगाड़ी के आगे कूदकर आत्महत्या की है जिन्होंने अन्तर्जातीय विवाह किया है। कईयों ने ज़हर निगला हैं और कईयों को तो उनके ही अभिभावकों ने जान से मार दिया है। संविधान उन्हें अपनी मर्ज़ी का शौहर चुनने की आज़ादी देता है, परन्तु गुस्साई भीड़ का कहर उन पर टूट पड़ता है। पुलिस प्रशासन जब तक जागता है तब तक उनका राम नाम सत्य हो जाता है। ये पाबन्दी लड़कियों पर ही क्यूं है? इसका उत्तर कोई क्यूं नहीं देता। क्या उसे अपनी ज़िन्दगी में अपनी इच्छा अनुसार विवाह बन्धन में बंधने का अधिकार नहीं। फिर वो क्यूं ज़ुल्म की चक्की में पिस रही है? लड़के जिस मरज़ी ऊंची या नीची जाति में विवाह कर लें, माता-पिता स्वीकार कर लेते हैैं, इसलिये कि वह आंखें दिखाता है, जान से मारने की धमकी देता है। अलग रहने के लिये धन-माल और गहने अपने क़ब्ज़े में कर लेता है और माता-पिता उसके आगे घुटने टेकते हैं।

नारी की अवहेलना तो भगवान राम ने भी कर दी थी जिसने धोबी के उलाहना देने पर भगवती सीता को घर से निकाल दिया था जबकि वह गर्भवती थी।

अब राजेश मिश्रा को ही देखो जो अपनी बेटी साक्षी को अनुसूचित वर्ग के अजितेश के साथ विवाह करने पर उसे संरक्षण नहीं दे रहा। उसने अपनी जान को ख़तरा जानकर हाई कोर्ट से गुहार लगाई है। जब प्रशासन को चलाने वाले अभिजात्य विवाद में फंसे हैं तो संविधान तो गया न भाड़ में।

आधुनिक संदर्भ में युवा वर्ग यदि जात-पात की बेड़ियां तोड़ कर समाज को बदल रहे हैं तो इसकी सराहना होनी चाहिये। हमेशा युवा ही आने वाले भारत की शक्ति हैं। यह समाज के लिये हर्ष की बात होनी चाहिये।

परन्तु इस पहलू का दूसरा पक्ष भी है, हमारे धर्म शास्त्र कहते हैं- ”ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं कुलम्, त्योर्मैत्री विवाहश्च न तु पुष्टविपुष्टयो” अर्थात् जिसका धन एक समान हो कुल और जाति एक हो उनकी ही मित्रता और विवाह निभ सकता है, इसके अतिरिक्त नीच जाति का विवाह उनकी ही जाति में होना चाहिये।

इसके लिए तर्क है कि कई बार ऐसा हुआ है कि विवाह करके दूल्हा-दुल्हन को विदेश ले जाता है और वहां पर जाकर बेच देता है। इस तरह विश्वास घात भी हो सकता है जिससे मां-बाप को शंका बनी रहती है।

दूसरा तर्क यह है कि मां-बाप ने कितने कष्टों से लड़की को पाला होता है, शिक्षा के लिये पानी की तरह पैसा बहाया होता है, यदि लड़की माता-पिता के परामर्श के बिना भागकर शादी रचा ले तो मां-बाप को शाॅक तो लगेगा ही। औलाद का यदि हक़ बनता है कि अपनी ज़िन्दगी का फ़ैैसला खुद करें। तो यह कर्त्तव्य भी तो बनता है कि बूढ़े मां-बाप की सेवा करें। घर से भाग जाना कहां की अक्लमंदी है।

तीसरा तर्क यह है कि विवाह करा लेना कौन-सा बहादुरी का कार्य है, सबसे पहले अपने कैरियर के बारे में सोचना चाहिये। कोई जज, वकील, तहसीलदार, डी.सी, स्पेस और भूतल की खोज करने वाला बनना चाहिये। शादी तो बाद में होती रहेगी। अगर ऊंची पोस्ट होगी दूल्हा भी योग्य मिल सकता है।

शादी ज़रूरी नहीं, कुंवारे रहकर भी देश और समाज की सेवा की जा सकती है। इश्क केे तूफ़ान में डूबकर कई बार पछताना भी पड़ता है। कई वीरांगनाओं ने ऐयर फोर्स और नेवी में भर्ती होकर कुंवारे रहने की क़सम खाई है।

अब ज़रा यह भी तो सोचिए कि बच्चों में प्यार-व्यार की नौबत आई क्यूं? मोहब्त का बुख़ार चढ़ा क्यूं?

वास्तव में यह हमारे घरों के माहौल का परिणाम है। हम बच्चों को चैक नहीं करते कि वे स्कूल, कॉलेज जा रहे हैं कि नहीं। जब वे पढ़ने बैठते हैं, तो कोई अश्लील साहित्य तो नहीं पढ़ रहे। कभी उनका मोबाइल चैक किया कि वे किस-किस को फ़ोन करते हैं। क्या घर में गुरबाणी, रामायण या गीता पाठ होता है कि बच्चे कुछ सीखें। घर में कौन आता जाता है, उस पर सन्देह किया कभी? बच्चों की हरकतों पर ध्यान दिया कभी? आंखें मूंद कर उसकी बातों पर विश्वास कर लेना ठीक नहीं।

पिता के पास उसके पास बैठने केे लिए समय नहीं है, लड़की भी आपके प्यार की भूखी है। मां को घर के कामकाज से फुरसत नहीं। भाई उसे बुलाकर राज़ी नहीं। कहीं उसके साथ बाज़ार नहीं जाता।

नतीजा यह निकलता है कि आपके घर जो लड़का उसके सम्पर्क में आता है। वह उसकी ओर खिंची चली जाती है चाहे वह किसी भी जाति का हो।

नारी एक लता की तरह है जैसे उसके पास चन्दन का वृक्ष हो या कंडियाली थोर का वह उससे ही लिपट जाती है। वह टूट तो सकती है परन्तु उसको छोड़ती नहीं। यही हाल लड़की का है वह प्यार में मर तो सकती है परन्तु साथी को त्यागती नहीं। क्योंकि ”इश्क न पूछे दीन धर्म नूू इश्क न पूछे जातां। इश्क दे हाथों गर्म लहूू विच डुबियां लख बारातां”।

निष्कर्ष यही निकलता है कि ज़माना बदल रहा है हमें ज़माने के साथ अपने आपको बदलना होगा।

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