-डॉ. अंजना
प्रतिवर्ष 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर कुछ विचार संगोष्ठियां होती हैं, महिला उत्थान की बड़ी-बड़ी बातें होती हैं और औपचारिकताओं की खानापूर्ति होती है और महिलाएं वहीं की वहीं अपनी परिस्थितियों को झेलती हुई, शोषण की चक्की में पिसती हुई रह जाती हैं।
यह दिन हमारे समक्ष कई प्रश्न छोड़ जाता है जैसे क्या वास्तव में नारी जागृत हो पाई है? क्या इक्कीसवीं शताब्दी के आने से भारतीय नारी ने भी अपने अन्तर्मन में जागरण का अनुभव किया है? क्या नारी को शोषण से मुक्ति मिल पाई है?
‘यत्र नार्यस्तु, पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात जिस घर में नारी की पूजा होती है, वहां देवता वास करते हैं। सुनने में यह श्लोक भावनात्मक स्तर पर बहुत शान्ति प्रदान करता है पर क्या वास्तव में नारी की ऐसी स्थिति है? क्या यह वही भारत है जहाँ सीता के हरण पर सोने की लंका जला दी गयी थी। द्रौपदी के अपमान पर अनेक सैनिकों को मौत की नींद सुला दिया गया था और आज 21 वीं शताब्दी में प्रवेश कर चुके उसी भारत में नारी को ज़िन्दा जलना पड़ता है कभी दहेज़ की आग में, कभी सतीत्व की आग में और कभी संदेह की आग में और कभी सारी ज़िन्दगी अपमान भरी और नरक से बदतर जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ा है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि नारी ने ही कई बार अपने पति का मनोबल बढ़ा कर उसे देश की रक्षा करने के लिए उत्साहित और प्रेरित किया है। एक बार एक राजपूत नारी का पति रण से परास्त होकर घर में आश्रय लेने के लिए आया। पुत्रवधू दुःखी होकर अपनी सास से बोली, ‘माता ऐसे सुहाग से मैं विधवा हो जाती तो अच्छा था।’ सास ने कहा, ‘बेटी मेरी बात मान, तेरा पति रण में लौट जाएगा। जब वह घर आए लोहे की कड़ाही में लोहे की कड़छी चलाते हुए उसे हलवा बनाकर खिलाना।’ जब वह राजपूत घर में पहुँचा, सास के आदेश का पालन पुत्रवधू ने कर दिया। लोहे की कड़ाही में लोहे की कड़छी ज़ोर से चलने लगी। सास बोली बेटी ग़ज़ब कर दिया तेरा पति तलवार की चमचमाहट से घबरा कर तेरे घर में आश्रय लेने आया है अगर वैसी ही तलवारों की टंकार इस घर में सुनाई दे तो वह कहां जाएगा? पुत्र लज्जित होकर रणक्षेत्र में लौट गया। यह रूप था नारी का, यशोधरा भी नारी थी जिसने गौतम बुद्ध के जाने के पश्चात् आँसू नहीं निकाले थे अपितु उसने कहा थाः-
सिद्धि हेतु स्वामी गए यह गौरव की बात
पर चोरी-चोरी गए यह बड़ा व्याघात।
आधुनिक युग में भी नारी को केवल महिला दिवस मनाकर ही संतोष नहीं करना होगा बल्कि उसे अपने भीतर छिपी शक्ति और सामर्थ्य को पहचानना होगा। अपने अस्तित्त्व की रक्षा के प्रयत्न स्वयं करने होंगे।
पुरुष सत्ता नारी के साथ असमानता को दूर करने में हिचक रही है और स्त्री इतनी उपेक्षित हुई है कि यदि उसे अब भी सम्मान व अधिकार नहीं दिए गए तो पूरी व्यवस्था चरमरा कर रह जाएगी।
यदि सेवा स्त्री का सर्वोत्तम धर्म है तो वह भी उसे शिरोधार्य है मगर सेवा करते हुए स्त्री अधीनस्थ क्यों रहे? पुरुष भी समाज सेवा करता है लेकिन निर्णय स्वयं लेता है, सेवा करने वाले पुरुष लोक नायक कहलाते हैं, लेकिन स्त्री द्वारा किए गए किसी भी त्याग की कथा ग़ायब है।
नारी के व्यक्तित्व एवं चरित्र से परिवार तथा समाज की छवि निखरती है। समाज जिस दिशा में बढ़ रहा है उसमें नारी की भूमिका पुरुष से अधिक महत्वपूर्ण है। वह जननी है अतः ममतामयी है, शारीरिक शक्ति उसमें पुरुष से कम है किन्तु स्नेह और करुणा उसमें कहीं अधिक है और नए युग में इन्हीं गुणों की अपेक्षा है उसकी करुणा और संवेदनशीलता आज के त्रस्त मानव को विनाश से बचा सकती है लेकिन इसके लिए उसे वह सम्मान और अधिकार देने होंगे जो उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व का विकास कर सकें। नारी के गुणों की चर्चा करते हुए कवि जयशंकर प्रसाद ने भी कहा हैः-
नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग पग तल में
पीयूष स्त्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में।