-बलबीर बाली
बड़ा ही मनोहारी दृश्य था जब हमें अपने ही विद्यालय में भाषण प्रतियोगिता का निर्णायक बनाया गया, विषय ऐसा था जिसे हम बचपन से चुनते आ रहे थे। एक अनसुलझी दास्तान, जिसे हम आधुनिक समाज में औरत या नारी कहते हैं। लगातार 6 वर्ष तक उत्कृष्ट वक्ता होने का नाम हमारे साथ जुड़ा था, हमने भी आशायें लगा रखी थीं कि हमें शायद कुछ नया मिले जो हम न जानते हों, एक नया तर्जुबा था हमारे लिए, बेहतर रहा। युवाओं का हौसला देखने लायक था, उनमें कुछ कर दिखाने की ललक भी। एक विशेष वक्ता थी ‘नीरू’ जिसका हम नाम लिये बगैर नहीं रह सके। उसने उस विषय को छूना चाहा जो खुद लड़की होने के कारण उस पर जच नहीं रहा था, उसके हौसले पर खुश व आश्चर्यचकित थे कि एक लड़की लड़कों की उन कमियों का वर्णन कैसे कर सकती है जो कि औरतों को लाभ की स्थिति से निकाल कर शून्य पथ पर धकेल सकती है। उसने अपने विचारों से, वाक्यों से युवा पीढ़ी पर जो कटाक्ष किया वह अवर्णनीय है। और आज इस शून्य या महाशून्य परिचर्चा के माध्यम से हम उसी तथ्य की सच्चाई को प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे जो हमें बुरी तरह झकझोर गया, विचलित कर गया और लिखने पर बाध्य कर गया। एक ऐसी कड़वी सच्चाई को जो आज इस समाज में अक्सर देखी जा सकती है। जिस सच्चाई को अपनाने के कारण औरतों को समझने में पुरुष सदा उलझता आया है। जिस पुरुष जाति की समझ पर आधारित बुनियाद ही धोखे पर रखी जायेगी वह औरत जाति को क्या समझेगा जिसे वह अनसुलझी दास्तान, महान् व न जाने क्या-क्या उपमायें देता रहता है। नि:संकोच नारी इस संसार की श्रेष्ठतम कृतियों में से एक है तथा पुरुष इसी कृति का दूसरा रुख़ है परन्तु एक ऐसी भावना जिसे हम नफ़रत की भावना कहते हैं, नारी मन में इस भावना को भरने वाला पुरुष है जो नारी मन में कटुता को पैदा करता है। आज के युग में जब नारी की मानसिक कटुता विकराल रूप धारण कर चुकी है, कई जगह यह आम सुनने में या पढ़ने में आता है कि नारी यह विश्वास करने के लिए कदापि तैयार नहीं होती कि उसे सही मायने में पूरी ज़िन्दगी में जो अभी तक वह व्यतीत कर चुकी है कोई पुरुष समझ चुका है या समझने के लिए प्रयत्नशील है। जबकि शास्त्रों में लिखा गया है कि नारी यदि एक बार किसी अन्य से मानसिक संबंध बनाती है तो सारी उम्र उसे निभाती है, वो भी पूरी समर्पण की भावना से। तो पुरुष जाति क्यों ऐसे घृणित कार्य करती है कि जिससे नारी का विश्वास टूटे, न केवल किसी एक सम्बन्धित पुरुष से बल्कि सम्पूर्ण पुरुष जाति से, क्यों अपनी मूर्खता से पुरुष जाति कलंक का टीका अपने माथे मढ़ती है।
हम यह मानते हैं कि इन्सान को जब अपने भले बुरे की पहचान होती है, उसे बुद्धि आती है (चाहे वह नारी हो या पुरुष), किशोर अवस्था ही वह केन्द्र बिन्दु होता है, जिससे उसके भावी जीवन की रूप रेखा तय होती है। जब नारी किशोर अवस्था में परिपक्वता की ओर क़दम बढ़ाती है और पुरुष जाति…..? कहते हुए शर्म आती है, क्योंकि हम स्वयं पुरुष जाति से सम्बन्धित है, यह पुरुष जाति शून्य की ओर क़दम बढ़ाती है। विवाह के बाद जब नारी परिपक्वता की डिग्री की तरफ़ अग्रसर होती है तब यह पुरुष जाति महाशून्य की ओर क्योंकि उसका आधार किशोर अवस्था में ही भ्रम का शिकार हो जाता है। जब तक उसे समझ आती है, तब तक वह महाशून्य में विलीन हो जाता है, अर्थात् उसकी आयु की आधी अवधि व्यतीत हो चुकी होती है, जो परिपक्व हो चुकी नारी सोच को बदलने हेतु प्रर्याप्त नहीं है। यदि आप पुरुष अपनी भूल का अभी से ही परिमार्जन करना चाहते हैं तो हम आश्वस्त हैं, लेख का अगला भाग आपके लिए अनुकरणीय रहेगा, जो अपनी इस बुराई को सुन कर या पढ़ कर छोड़ने लगे हैं, कृप्या ध्यान दीजिए इस लेख ने केवल आपकी कमज़ोरी के भ्रम को आपके सामने ला खड़ा किया है और दूसरा कोई नहीं है। इसलिए आप भी परिमार्जन कर सकते हैं क्योंकि आपकी भूल केवल आप ही के समक्ष है, किसी अन्य के नहीं और अब तो नारी मन ने यह कहना शुरू कर दिया है चलो देर आये दुरुस्त आए। हमें मन में उपजी कुंठा को भूल कर बाराबरी का दर्जा पाने का सुअवसर खोना नहीं है।
आज किसी भी पुरुष से पूछा जाए कि क्या उसने कभी किसी नारी से प्यार किया है जो उसका पहला प्यार हो, तो अधिकांश पुरुष ऐसे होंगे जो कि किसी नारी से प्यार करते हैं या यूं कहें कि वह प्यार जैसे पवित्र शब्द का अपमान करते हैं, केवल नारी देह को पाने के लिए। उनकी भावनाओं से खिलवाड़ कर, अपमानित कर उन्हें रौंदा जाता है, तो पुरुष जाति किस आधार पर नारी जाति से विश्वास मांगती है, बराबरी का अधिकार चाहती है, जबकि ऐसा वर्ग सारी उम्र महाशून्य से बाहर नहीं आ सकता क्योंकि एक सत्य उनके झूठे स्वाभिमान की धज्जियां उड़ाता रहता है। इन अधिकांश किशोरों में कुछ ऐसे वर्ग से सम्बन्धित होते हैं जिन्हें नारी देह की कामना तो नहीं होती परन्तु जिस नारी से वह सम्बन्ध बनाने के लिए भरसक प्रयत्न करता है उसे इस समाज के सामने स्वीकार करने से डरता है। क्या कभी सोचा है कि क्या बीतती होगी उसके मन पर जो परिपक्वता की तरफ़ क़दम बढ़ा रही होती है? क्या वह अपने इस अपमान को भूल कर पुरुष जाति को वह सम्मान दे पाएगी? जब ऐसी कटु बातें उसे किशोर अवस्था में ही सीखने को मिलेंगी तो वह परिपक्व ही बनेगी और इसी कारण उसे पुरुष जाति से ऐसे घृणा होती है कि उसकी बाकी ज़िन्दगी अपने आप को संयमित करने में व्यतीत हो जाती है तो आप स्वयं बताइये कि जहां शून्य से महाशून्य का मार्ग है वहीं परिपक्वता का भी मार्ग है तो पुरुष जाति क्यों शून्य से महाशून्य का मार्ग अपनाती है। मुझे एक पंक्ति याद आ रही है-
रात गवाई सोय कर, दिवस गवाय खाय,
हीरा जन्म अमोल था, कौड़ी बदले जाये।
क्या हम इस जीवन रूपी अमूल्य धरोहर का सदुपयोग प्यार नामक उपहार के अलंकरण द्वारा नहीं कर सकते? क्यों हम दोहरी मानसिकता के भाजक बनते हैं, क्यों हम नारी की वास्तविकता को त्याग कल्पना लोक में भटक जाते हैं? जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। यह एक ऐसा विराट सत्य है, जिसे हमें चाहते न चाहते हुए भी स्वीकार करना ही पड़ेगा। इस मानवीय पटल पर असंख्य रंग बिखरे पड़े हैं, परन्तु हमने अपने इर्द-गिर्द ऐसा ताना बाना बुन रखा है, जिसे आज हम तोड़ने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं, आज पुरुष जाति का पिछड़ना तथा नारी का हर क्षेत्र में आगे बढ़ना इसी भूल का परिणाम है। सच्चाई की सदा जीत होती है और आज सच्चाई ने दामन छटकना शुरू कर दिया है। जबकि हम हसीन सच्चाई से मुंह मोड़ कर कल्पना लोक में स्वप्न देखते हैं। सिर्फ़ हम हों, तुम हो और तीसरा कोई न हो, जबकि कोई इन महाशय को समझाये यदि ज़िन्दगी केवल दोनों से ही कट सकती होती तो आज हम सौ करोड़ न होते। हमारा ये सामाजिक परिवेश न होता। जबकि यदि लड़की सपना देखती है तो उसमें यथार्थ का समावेश होता है, वह चाहेगी उसका अपना हंसता खेलता परिवार हो, उसे नया जीवन शुरू करना है। परन्तु हम पूछते हैं क्या नया जीवन केवल उसी ने शुरू करना है, क्या हमने नहीं, यही यथार्थवादिता व सामंजस्य की भावना नारी को परिपक्व बनाती है। जबकि अहंवाद कल्पनाओं में भ्रमित हुआ पुरुष वर्ग महाशून्य में विलीन हो जाता है और परिपक्वता जिस का साथ दे, वह कभी भ्रमित नहीं हो सकता, पिछड़ नहीं सकता। अब मार्ग तो वह स्वयं चुनेंगे-
शून्य………
महाशून्य……….
या परिपक्वता।….