आज दुनियां में बहुत बड़े पैमाने पर समलैंगिता को लेकर कई प्रतिकरम उठ रहे हैं। कुछ लोग हक में आवाज़ उठाते हैं और कुछ इसका विरोध कर रहे हैं। जब भी इन्सान ने प्रकृति के विरुद्ध कदम उठाए हैं, तो उसे इसका नुकसान भी हुआ है। आधुनिक युग में आज़ादी के नाम पर कुछ लोगों ने मानवीय अधिकारों के नाम पर इसे स्वीकार किया है। चाहे पश्चिमी सभ्यता के चलते कुछ पश्चिमी देशों में लोग समलैंगिक रिश्तों को मान्यता देने लग गए हैं। जहां तक हम इसे भारत के संदर्भ में रखकर सोचें तो ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से इस तरह की कोई उदाहरण नहीं मिलती।
मैडीकल साईंस के आधार पर भी ऐसे रिश्तों का कोई भविष्य नहीं होता, ऐसे रिश्ते न तो सृष्टि के निर्माण में अपना योगदान देते हैं और न ही आने वाली पीढ़ी को कोई सृजनात्मक सेध देते हैं। ऐसे लोग सिर्फ़ दृष्टिहीण सोच को प्रगट करते हैं। समलैंगिकों के हितों की रक्षा के नाम पर U.P.A. सरकार की तरफ़ से G.S.B.T. के नाम का बिल भी पेश किया गया था, जो भारी विद्रोह के कारण पास नहीं हो सका। कुछ पश्चिमी देशों में इसे मान्यता दी गई है। समाज शास्त्रियों का मानना है कि इस तरह के बिलों के पास होने से सामाजिक रिश्तों में गिरावट आ जायेगी और अन्य भयानक समस्याएं पैदा हो जायेंगी। ऐसे वर्ग जहां दिशाहीण आचरण का निर्माण करेंगे वहीं स्त्रियों और पुरुषों के अनुपात पर प्रतिबंद्ध लगा देंगे।
समलैंगिकता की सोच इन्सान के मन में उत्पन्न होने के कई कारण हो सकते हैं। जिनमें प्रमुखत: गहरी मित्रता का होना, अपनी ज़िंदगी में किसी तीसरे का दखल बर्दाशत न करना, विपरीत लिंग से भय आदि। ऐसे लोग विवाह के उपरान्त यह स्पष्ट नहीं कर पाते कि पति कौन है और पत्नी कौन। अगर भारत में ऐसे रिश्तों को मान्यता दी गई तो सामाजिक रिश्तों की स्थिति हास्यस्पद हो जायेगी। समलिंगी आपसी संबंधों से केवल बीमारियों को ही आमंत्रण देंगे।
मेरी यह धारणा है कि कोई भी भारतीय माता-पिता यह नहीं चाहेंगे कि उनके बेटा-बेटी समलिंगी हों। किसी भी धर्म में ऐसी परम्परा को कोई मान्यता नहीं दी गई। धार्मिक संस्थाएं भी ऐसे रिश्तों को निषेध मानती हैं। इसलिए समलैंगिकों के लिए भारतीय सभ्यता और भारतीय लोगों के मनों में कोई स्थान नहीं और न ही भविष्य में होगा।
-कमलजीत सिंह