नारी- कितनी सुखद अनुभूती होती है नारी के नाम में। नारी शब्द सबको मीठा एहसास देता है। केवल पुरुष ही नहीं महिलाएं भी नारी शब्द की तुलना संवेदनशीलता या किसी मनोहर वस्तु से करती हैं। और उसी नारी के लिए जब मां शब्द का प्रयोग होता है तो मन में श्रद्धा जागती है। मां-एक विशाल हृदय, सहनशीलता व प्रेम की प्रतिमा, जिसके साये में सब दुःख सहनीय हो जाते हैं।

लेकिन उसी नारी, उसी मां को जब सास का नाम मिलता है तो वो खूबसूरत एहसास लुप्त क्यों हो जाता है? उसकी मनोहरता समाप्त क्यों हो जाती है? उसकी विशालता उसके प्रेम पर प्रश्न चिन्ह क्यों लग जाता है? क्या सास बनते ही उसके हृदय की कोमलता और संवेदनशीलता पलों में समाप्त हो जाती है? वही स्त्री जो वर्षों से अपनी हर भूमिका को बखूबी निभा रही है, आज वो अपनी भूमिका निभाने के काबिल नहीं रही। यह बातें केवल गढ़ी हुई नहीं हैं, हम अपने आस-पास भी देखते हैं कि जो औरतें कई वर्ष बहू की प्रतीक्षा करती हैं। उसके लिए चाव से गहने बनवाती हैं, धूमधाम से ब्याह रचाकर नई-नवेली दुलहन को अपने घर लाती हैं, वो बहू को अपने घर में ठीक से समा नहीं पाती। सास को बुरा मान लेने से पहले यह जानना आवश्यक है कि इस परिवर्तन के पीछे आख़िर क्या कारण है। लाख नाज़ुक हो सास-बहू का रिश्ता पर है तो भावनात्मक व मानवीय ही, अतः यहां भी परस्पर प्रेम, उदारता व अपनेपन की गुंजायश है। यदि पूरी तरह समझ विचार कर कारण जाने तो हम पाएंगे कि उस के परिवर्तित होने से पहले हालात पूरी तरह से परिवर्तित हो चुके थे। यहां हम दोष किसी को नहीं देंगे- न सास को, न बहू को, न बेटे को। लेकिन हालात बदलने पर छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखने से यह रिश्ता स्नेहपूर्वक निभाया जा सकता है। इस लिए सास, बहू दोनों को बल्कि बेटे को भी समझदारी बरतनी होगी। सबसे पहले हमें सास की भावनाओं को समझने की ज़रूरत है। प्रत्येक स्त्री मां बनने का सपना देखती है। औरत अपने बच्चे से तब से प्यार करना शुरू कर देती है जब वो इस संसार में आया भी नहीं होता। जब उसका सपना साकार होता है, उसका बेटा उसकी गोद में आता है तो वह अपनी जान से अधिक उसे चाहने लगती है। और जब उस बेटे पर पूरा अधिकार किसी और का हो जाता है तो उसकी भावनाओं को ठेस लगना स्वाभाविक है। शादी के बाद लड़के का पत्नी की तरफ़ ज़्यादा झुकाव होना स्वाभाविक ही है और सही भी है लेकिन उसको अपनी मां की भावनाओं का भी ख़्याल रखना चाहिए। बहू को भी चाहिए कि वो इस बात का ध्यान रखे। सास के पास अपने पति को भेजे और पति से कहे कि वह सास की ज़रूरतें पूरी करने का यत्न करे। सास को यह न लगे कि बहू ने बेटा छीन लिया है। लेकिन दूसरी तरफ़ सास को भी चाहिए कि वह बेटे पर अपना आधिपत्य कम कर बहू को अपना धर्म निभाने दे।

इसके अलावा सास के दुःखी रहने का एक कारण यह है कि वह बहू के आने के पूर्व ही उससे कई आशाएं बांध लेती है। वह बेटे को तो जन्म देते ही देख लेती है किन्तु बहू की आस में कई वर्ष प्रतीक्षा करती है। वह अपनी बहू को अपनी कल्पना के अनुसार देखना चाहती है लेकिन यथार्थ और कल्पना में अंतर तो सदैव रहता ही है। बहू के आने के पूर्व ही आशाएं और अपेक्षाएं न बांध बैठें, वर्ना निराशा होगी। यदि बहू पढ़ी-लिखी, संस्कारी व उदारमना है तो वह बड़ी आसानी से परिवार का माहौल व सास का रूख पकड़ कर सास का दिल जीत सकती है। बहू ने अपने विवाह से पहले अपने बारे में कई सपने सजाए होते हैं लेकिन अपने सपनों में मग्न रहकर उसे यह नहीं भूल जाना चाहिए कि सास की भी कुछ अपेक्षाएं होंगी उसे यह सोचना चाहिए कि सास भी मन रखती है व उसमें सभी स्त्रीयोचित भावनाएं रहती हैं। यदि बहू सास को मान-सम्मान दे तो सास भी तृप्त व खुश बनी रहेगी। बहू को चाहिए कि वह ख़ाली वक़्त निकाल कर सास के पास बैठे। सास से अंतरंगता होने पर जीवन सुखद होता जाएगा। सास के शौक, रूचि व रुझान को देख कर वैसा ही आचरण करना ज़रूरी है। जैसे घूमने वाली सास के संग घुमक्कड़ प्रकृति अपनाकर और बहुत अधिक फुर्तिली सास के संग फुर्ती बरतने से ही काम चलता है। सास के रुझान को पहचान कर उनके हिसाब से व्यवहार करके ही अपने मन का काम करवाया जा सकता है। सास का अपना अहम् संतुष्ट रहे, इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए ताकि वह हताहत न हो। सास को भी बहू से अधिक अपेक्षाएं रखने की बजाए अपने व्यवहार की ओर ध्यान देना चाहिए। अपने घर के रीति-रिवाज़, रहन-सहन से धीरे-धीरे अवगत कराएं। आते ही उससे बदलाव की अपेक्षा न करें, अपने स्वभाव को अति विनम्र बनाए रखें, बहू को पारिवारिक गतिविधियों में शामिल रखें। छोटे देवर, ननदों से भाभी को पूरा सम्मान दिलाकर आप अच्छी सास बन जाएंगी। बहू के पहनने ओढ़ने के ढंग की प्रशंसा न कर पाएं तो मीन-मेख भी न निकालें। बहू को कष्ट में देखकर अपनी बेटी के रूप में कल्पना करके बहू के दर्द को महसूस करें। बेटे पर बहू का अधिकार सहजता से स्वीकार करें और जहां एक तरफ़ बहू का सास की बराबरी में आकर व्यवहार करना ठीक नहीं है, वहीं सास ने भी बहू को घर में सही स्थान देना है।

सास बहू के रिश्ते को स्नेहपूर्वक चलाने के लिए बेटे को भी अपनी सही भूमिका निभानी चाहिए। उसे दोनों को पूरा महत्त्व देना होगा। जहां उसे यह देखना है कि मां की भावनाओं को ठेस न लगे, वहीं उसे यह भी समझना होगा कि उसकी पत्नी अपने घरबार को छोड़कर अपने घरवालों से इतनी दूर आई है और उसकी उससे बहुत सी अपेक्षाएं होंगी। उसे दोनों तरफ़ ही पूरी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए और बहुत समझदारी से काम लेना चाहिए।

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