‘ये कैसा दस्तूर है, कैसे रिवाज़ हैं।
नाज़ों से पाली लाडो को यूं देस पराए दे देना।‘
मद्धम-मद्धम सी शहनाई की आवाज़ में रिश्ते सिसक कर रह जाते हैं। छूटते नज़र आते हैं सब अपने, तो भीगी आंखों से धुंधला-सा नज़र आता है वो बचपन का आंगन।
काजल से बनी लकीर धो डालती है वो पुरानी बातें। अभी-अभी छलांगें लगाती लाडो झट से सयानी हो जाती है।
नए घर, नए रिश्तों को निभाना, दोनों कुलों की लाज बचाना, बचपन का संसार भुलाए जाना बेटी। ऐसी कितनी ही हिदायतें दी जाती हैं।
जहां साजन मिलन का चाव है वहीं छूटते रिश्तों का ग़म भी है। जहां नई दुनिया बसाने की खुशी है वहीं एक सहम भी है कि वो नए रिश्तों को सही मायने में निभा पाएगी? बाबुल ने इतना ख़र्च उठा, सर पर कर्ज़ चढ़ा दिल पर पत्थर रख कर उसे विदा किया है। उसे राम मिलेगा या रावण? इसी सोच में शादी के चाव को भूल कर बन्नो फिर पीछे मुड़ कर देखती है लेकिन कोई भी आज उसे रोक नहीं सकता। कैसे निष्ठुर हो गए हैं मां-बाप।
सभी रिश्ते पराए हो जाते हैं साथ ही पराया हो जाता है खुद के होने का अधिकार। स्त्री समर्पण की मूर्ति बन कर सभी अधिकार छोड़ देती है। वचनों के नाम पर उसके पैरों में डाल दी जाती हैं बेड़ियां और वो मजबूर हो जाती है जीवन भर इन बेड़ियों में जकड़े रहने के लिए।
रिश्तों को अगर समझा जाए, अगर दिल से महसूस किया जाए तो साजन के घर से जुड़ने के लिए बाबुल के अंगना से नाता न तोड़ना पड़े। अगर सजना के घर जाते हुए वो अपने घर की महक भी अपनी यादों में बसा कर जाएगी तभी तो वो याद रखेगी मायके की सीख।
उसे रस्मों-रिवाज़ों की बेड़ियों में जकड़ने की बजाय प्रेम से सम्पूर्ण अधिकार मिल जाएं तो वो इन नए रिश्तों को प्रेम से संवारेगी। सात जन्म साथ निभाने की तमन्ना लिए अपनी नई दुनिया सजाएगी। अपनी नई दुनिया को ठीक ढंग से बसाने के लिए ज़िन्दगी के किसी भी मोड़ पर स्त्री समर्पित होने के लिए तैयार रहती है। समर्पण की इस मूर्ति को उसके अधिकार तो मिलने ही चाहिए।
अधिकार, मुक्ति नहीं।
मुक्ति के नाम पर मुक्त संबंधों को हरगिज़ स्वीकार नहीं किया जा सकता। हमारी संस्कृति अमूल्य निधि है। हम किसी भी क़ीमत पर उसे खो नहीं सकते हैं। बस आवश्यकता तो इसे समझने की है। विवाह जैसे पवित्र बंधन को नकार कर मुक्त संबंधों की वकालत कर हम पतन की ओर अग्रसर हो सकते हैं। जहां एक ओर अधिकारों से वंचित नारी का विषय चिंतनीय है वहीं संस्कृति खोने का चिंतन भी अति आवश्यक है।
विवाह प्रथा का सही अर्थ है उच्छृंखल यौन-क्रीड़ाओं को अनुशासित रूप देना। पर आज सब बिखर रहा है। मान्यताएं ख़त्म हो रही हैं, आस्थाएं टूट रही हैं, विश्वास डगमगाने लगा है। हम विनाश की कगार पर खड़े हैं। आज अजीब असुरक्षा का दौर है। नाजायज़ संबंध बनाना और बिन ब्याही मां बनना गर्व का विषय है। वैलेंटाइन-डे पर खुले प्रेम संदेश देना एक फ़ैशन के तौर पर स्वीकार्य हो गया है।
समस्या यह है कि इनकी आलोचना करके आप दक़ियानूसी कहलाएंगे। लेकिन आंखें मूंद कर अपसंस्कृति के बढ़ते प्रसार के साथ चला तो नहीं जा सकता। आख़िर पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में बह रहे हमारे मूल्यों को रोकने के लिए कुछ तो विकल्प सोचना ही होगा।
अनैतिकता के बारे में कई बार सवाल उठाए गए हैं लेकिन साहस के साथ एक मत हो कर कभी प्रयत्न नहीं हुए हैं। यदि हम स्वयं में साहस पैदा कर के समझ के साथ नए विकल्प खोजेंगे तो रास्ता ज़रूर मिलेगा।
हमें अपने आप में यह विश्वास पैदा करना होगा जब-जब भी पक्के इरादों के साथ नि:स्वार्थ भावना से किसी सामाजिक विकृति के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद हुई वह समाज में स्वीकारी गई है, स्वीकारी जाएगी।
-सिमरन