‘हमेशा बहार-सी हो ये ज़िन्दगी’ ये दुआ करते हैं सभी। पर पतझड़ के बिना बहार के मायने कौन समझ पाता। कहते हैं जिसने दु:ख न देखे हों वो खुशी की तीव्रता, सुखों के आनंद के एहसास से वंचित रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो तो ये एहसास तक ख़त्म हो जाए कि यह अच्छा है। अगर ठीक से इस बात को सोचा जाए तो इसके मायने ये भी लगाए जा सकते हैं जो होता है अच्छा ही होता है और कहते हैं कि उसकी रज़ा में राज़ी रहो।

रज़ा में राज़ी रहने का अर्थ है कि कोई दु:ख, कोई परेशानी हमारे कार्य में बाधा न बनने पाए। यह तो नहीं हो सकता कि दु:ख, परेशानियां हमें प्रभावित न कर पाएं पर जहां तक हो सके सन्तुलन बनाए रखना चाहिए। गिर भी पड़ो तो फिर से उठो, फिर से संभलो। यही नियति है, यही ज़िन्दगी है।

रज़ा में राज़ी रहने का यह कदापि मतलब नहीं कि हर बुराई सहन करते जाओ, बुराई देखो तो आंखें मूंद लो। यह दुर्लभ जन्म मिला है कार्य करने के लिए, कुछ विशेष करने के लिए। सोते न रह जाना, कुछ कर गुज़रना, कुछ ऐसा जो याद रखने लायक़ हो। कुछ ऐसा भी जो किसी के काम आ सके।

कल फिर देखा किसी का साहस। बलात्कारियों के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुई महिला। पुलिसकर्मी हर औरत के साथ ऐसा न कर पाएं इसलिए वो उनके ख़िलाफ़ लड़ना चाहती थी। कुछ ऐसा ही दिखाया गया था समाचारों में। हालांकि उस महिला का चेहरा नहीं दिखाया गया था पर उसकी आवाज़ में कहीं कोई दबाव या घबराहट नज़र नहीं आ रही थी। वो उसकी रज़ा में यूं ही राज़ी नहीं हो जाना चाहती। लड़ना चाहती है, इन्साफ़ चाहती है।

ऐसी घटनाएं आजकल यदा-कदा सुनने को मिलती रहती हैं। ऐसे मामलों को सामने लाने के पीछे कोई संस्थाएं काम कर रही हैं या चैनल? महिलाओं को शक्ति कहां से मिल पा रही है? यह सब सोचा करती हूं मैं। कुछ सही दिशा में हो रहा है ऐसा कुछ इत्मीनान होता है तो कुछ संशय भी होता है।

कुचले जाने के बाद वो एक ख़बर हो जाती है, कुछ दिनों बाद शायद सनसनी भी। लेकिन फिर कुछ हो भी पाता है? उनमें ताक़त भरने वाले उनको मंज़िल तक पहुंचा पाते हैं? जो भी है जैसा भी है सभी आशंकाओं और सभी संशयों के बाद मन में एक बात उठती है कि कुछ अच्छी दिशा में क़दम तो उठे ही हैं भले ही अभी कुछ बड़ी कुर्बानियां बाक़ी हैं।

सफ़र लंबा है और अभी कई काम बाक़ी हैं
लगनी है तोहमतें और कई इल्ज़ाम बाक़ी हैं
मंज़िल मिलेगी इसका यकीं है मगर
सफ़र का हर पत्थर, अभी कांटे तमाम बाक़ी हैं

बलात्कारियों के बढ़ने का सिलसिला इसलिए समाप्त नहीं होता कि ज़्यादातर औरतें अपने पर इल्ज़ाम आने के डर से बोल ही नहीं पातीं। ज़्यादातर बलात्कार की शिकार औरतें इसलिए नहीं बोलती क्योंकि एक तो इस दोष की प्रक्रिया ऐसी होती है जिसके बारे में अकसर लोग बात ही नहीं करना चाहते। इसके अलावा उसे फिर से प्रताड़ना के दौर से गुज़रना पड़ता है।

औरत पर ही दोषारोपण करके उसका फिर से मानसिक बलात्कार किया जाता है। ज़रूर उसके कपड़े ठीक न रहे होंगे। उसका मेलजोल ठीक नहीं होगा। उसकी नौकरी ही ठीक नहीं, कॉलेज जाती है तो पार्टियों में जाना ज़रूरी है क्या ? दरवाज़ा ठीक से बंद करना चाहिए था ….. इत्यादि, इत्याादि। हमारा समाज आज भी ऐसी बातों के लिए तैयार नहीं हो पाया है। प्रताड़ित महिला को दोष देना कहां तक सही है? यदा-कदा लेख भी पढ़ने को मिलते हैं – आजकल लड़कियां कपड़े ठीक ढंग से नहीं पहनती इसलिए ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं। यही नहीं यह भी कहा जाता है कि उनको खुद की ग़लतियां ही भुगतनी पड़ती हैं। क्या वाक़ई………?

ये सब लिखने वालों को क्‍या इस अक्षर के मायने पाता हैं। कितनी भयानक सज़ा है यह……। चार साल की लड़की, छ:साल की लड़की, वृद्धा सभी के कपड़े क्‍या ठीक नहीं रहें होंगे। यह बीमार मानसिकता ही ऐसे दोषियों के ख़िलाफ़ किसी को खड़ा नहीं होने देती।

हमारे देश में जहां हर तीस मिनट में एक रेप होता है। यहां बहुत-सी प्रताड़ित महिलाएं तो आत्महत्या ही कर लेती हैं अदालत तक पहुंचना तो दूर की बात। अपने साथ हुए शोषण के ख़िलाफ़ जुर्म को साबित करने के लिए अदालत में पहुंचने वाली महिलाएं बहुत ही कम होती हैं। और जो जाती हैं लड़ना चाहती हैं उनकी सफलता की दर इतनी कम है कि अन्य जल्दी साहस नहीं जुटा पाती। ज़्यादातर महिलाओं का मानना है कि ऐसी बात सामने आने से उनको शर्मनाक हालत में जीना पड़ेगा जबकि इस बात को छुपा कर वे सिर उठा कर इज़्ज़त की ज़िंदगी जी सकती हैं।

ऐसी ही कुछ बातें हैं जिनके कारण बलात्कारियों के हौसले बुलंद हैं।

इसके बारे में सरकार की तरफ़ से और महिला कल्या‍न संस्थाओं की तरफ़ से ऐसी महिलाओं के सहयोग की, समर्थन की बहुत आवश्य‍कता है। इसके लिए बहुत से सुझाव आते भी रहें हैं और सहयोग होता भी रहा है पर अभी कई काम बाक़ी हैं। ऐसी महिलाओं को आर्थिक मदद के साथ-साथ भावनात्मक मदद की भी बहुत आवश्यकता रहती है। जिसके लिए सामाजिक वातावरण के बदलाव की आवश्यकता है।

सबसे पहले तो प्रताड़ित औरतों को ऐसा वातावरण मिलना चाहिए कि वे स्वयं को दोषी न मानें। उनकों घरों से पूरा समर्थन मिल सके।

यदि कोई महिला ऐसे दोषियों के ख़िलाफ़ लड़ाई करना चाहती है तो उस पर दोषारोपण करने की बजाए उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। उसको समाज में बाक़ी लोगों की तरह जीने देना चाहिए। उनको ज़िन्द‍गी जीने का पूरा हक़ देना चाहिए। बल्कि जो बाक़ी महिलाओं के लिए लड़ाई लड़ती हैं उनको तो विशेष हक़ होना चाहिए।

अपनी बहू बेटियों को ऐसी लड़ाई लड़ने को प्रोत्साहित नहीं कर पाते। लेकिन जो महिलाएं ऐसी लड़ाई लड़ रही हैं उनके लिए अवश्य कहना चाहूंगी —

‘सजदे में अब तेरे ये सर झुकाना है’

बुलंद हौसलों वाली बुलंद शख्सियतें हैं वे। हमें यह याद रखना है कि वे हमारी लड़ाई लड़ रही हैं।

-सिमरन

One comment

  1. Thank you for your blog post.Really thank you! Awesome.

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