-जगजीत आज़ाद

बाल्यावस्था और युवावस्था के मध्य का समय जिसे किशोरावस्था कहा गया है हर इन्सान के जीवनकाल का क्रांतिकारी समय है। इसे अगर ज़िंदगी का चौराहा कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा क्योंकि इस समय हर किशोर के सामने भावी मार्ग चुनने की उलझन होती है। यूं तो इस अवस्था में किशोर में बहुमुखी परिवर्तन आते हैं लेकिन शारीरिक और संवेगात्मक परिवर्तन उस के लिए उलझने पैदा करते हैं। शारीरिक विकास अपने चरम पर होता है। इस के फलस्वरूप विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण स्वाभाविक रूप से बढ़ जाता है। ज्वार-भाटे के साथ इसकी तुलना की जा सकती है। लड़का-लड़की एक-दूसरे की तरफ़ खिंचने लगते हैं। एक-दूसरे के शरीर स्पर्श की कामना होती है। इस अवस्था में शारीरिक सम्बन्ध भी बन जाते है। जहां शहरों में इस आयु वर्ग में शारीरिक सम्बन्ध बनना कोई अचम्भे की बात नहीं वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में भी यदा कदा ऐसी घटनाएं देखने को मिल जाती हैं। लेकिन वहां विसफाेट की स्‍थ‍िति पैदा हो जाती है। यह कोई अनहोनी बात नहीं है, लेकिन वहां पर पर्दे के पीछे वाली बात होती है। किशोरावस्था में संवेगों का विकास भी बहुत तेज़ी से होता है। किशोर जज्‍़बाती हो जाते हैं। दोस्ती निभाना, प्यार का इज़हार करना, दूसरों के लिए कुछ कर गुज़रना, कल्पनाओं में डूबे रहना तथा बड़े-बड़े सपने देखना, ये सब संवेगों के विकास के कारण होता है। ऐसी अवस्था में किशोरों का उचित मार्गदर्शन अत्यावश्यक हो जाता है। अभिभावकों का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। चूंकि किशोरावस्था भावनाओं में बह जाने का समय है अत: कई बार किशोर भावनाओं में बह कर ऐसे फ़ैसले लेते हैं जिनके दूरगामी परिणाम निकलते हैं। कई बार ऐसे फ़ैसले उनके परिवार को तो मुसीबत में डालते ही हैं, साथ ही अपनी ज़िंदगी भी बर्बाद कर लेते हैं। इस अवस्था में न तो मस्तिष्क ही परिपक्व होता है और न ही शरीर, अत: इन फ़ैसलों में दूरदृष्टि का अभाव होता है। किशोर यह समझते हैं कि वे जो फ़ैसला ले रहे हैं, उचित है, लेकिन व्यावहारिक ज्ञान का अभाव होने के कारण ऐसे फ़ैसले अधिकांश मामलों में ग़लत सिद्ध होते हैं। बढ़ती हुई पाश्चात्य संस्कृति आग में घी डालने का कार्य कर रही है। आए दिन लड़के-लड़की के घर से भाग जाने के समाचार, छात्राओं से बलात्कार, स्कूलों में छुरेबाज़ी आदि समाचार पत्रों की सुर्खियां बनते रहते हैं। अगर अभिभावक कुछ क़दम उठाएं तो इन घटनाओं पर कुछ विराम तो लग ही सकता है साथ ही किशोरावस्था भटकने का नहीं बल्कि संवरने का समय सिद्ध हो सकता है।

1 अभिभावकों को चाहिए कि घर में किशोरों के साथ बातचीत का वातावरण बनाएं। हर पहलू पर उनके साथ खुल कर विचार-विमर्श किया जाए विशेषकर सैक्स सम्बन्धी विषयों पर।

2 इस अवस्था में किशोरों को एकान्तवास प्रिय लगने लगता है, अत: कोशिश की जानी चाहिए कि वे अकेले न रहें।

3 स्कूल या कॉलेज में पढ़ रहे छात्रों के अभिभावकों का दायित्व है कि उनकी दिनचर्या की पूर्ण जानकारी रखी जाए। सप्ताह में कम से कम एक बार अध्यापकों से अवश्य मिलना चाहिए ताकि उनकी गतिविधियों की जानकारी मिलती रहे।

4. अगर वे किसी ग़लत संगत में भी पड़ गए हैं तो उन पर सख्‍़त पाबंदी न लगाई जाए बल्कि प्यार से समझाना चाहिए। उनकी भावनाओं को लाड़-प्यार से संवारा जाए न कि दबाया जाए।

5. नौकरीपेशा अभिभावकों को भी बच्चों के साथ प्रतिदिन कुछ न कुछ समय अवश्य गुज़ारना चाहिए। अगर प्रतिदिन मिलना सम्भव न भी हो तो भी चिट्ठी, टेलिफ़ोन के द्वारा उनसे विचार सांझा करते रहना चाहिए।

6. उनकी रुचियों, उनके दोस्तों, भावी जीवन तथा कैरियर से सम्बन्धित विचार जान कर उन्हें परिष्कृत करते रहना चाहिए।

किशोरों का भी यह दायित्व बनता है कि वे भावनाओं में न बहें बल्कि ज़िंदगी के हर पहलू को व्यवहारिकता के दृष्टिकोण से परखें, फिर उस पर अमल करें। अभिभावकों को निरीक्षक नहीं बल्कि अपना दोस्त समझें क्योंकि उन्हें हर क्षेत्र में अधिक अनुभव है। वे जो भी फ़ैसला लेंगे बच्चों के हित में ही होगा। यह सत्य है कि किशोरावस्था भावनाओं के उफान का समय है लेकिन ज़िंदगी के फ़ैसले भावनाओं की नींव पर नहीं किए जा सकते। बचपन को अगर ज़िंदगी की नींव कहें तो किशोरावस्था नींव के ऊपर की दीवार का पहला पत्थर है जिस पर पूरा महल खड़ा किया जाना है। अगर किशोरावस्था में एक क़दम भी गलत उठा लिया जाए तो ज़िंदगी गुमनामी के अंधेरों में सदा के लिए भटक सकती है।

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