-नरेश शर्मा दीनानगरी
अमृता प्रीतम…..एक युग-प्रवर्तक हस्ताक्षर, एक सुगन्धित शायरा और एक पद्य-रचनाकार भी थी। 2002 की फरवरी में पांव फिसलने से टूटी हड्डी और निरर्थक शल्य-चिकित्सा के उपरांत उसका संसार शयन-कक्ष तक सिमट कर रह गया था….और अन्तत: 31 अक्तूबर 2005 को कगार पर खड़ा यह वृक्ष अवसान के दरिया में बह निकला था- और वह ’है’ से ‘थी’ में परिणत हो गई।
अपनी खूबसूरती के लिए सुप्रसिद्ध रही अमृता की खूबसूरती को धीरे-धीरे चन्द्र-ग्रहण लग गया था जैसे उसकी खूबसूरती और खूबसूरत कविता के सम्बन्ध में उसके और इमरोज़ के सांझे मित्र देवेन्द्र ने ‘मेरे समय का लाहौर’ में यूं वर्णन किया है- “एक बहुत अच्छी शायरा है अमृत कौर, है भी खूब सुन्दर बहुत से लोग तो उसकी कविता सुनने जाते हैं परन्तु देखते उसे ही रहते हैं……परन्तु शायरा अमृत कौर जितनी खूबसूरत है उतनी ही अद्वितीय कविता रचती है” रूसी लेखक चैलीशेव ने उन्हें रूमानी पंजाबी साहित्य के बाग़ की एक खूबसूरत और नाज़ुक कली बताया है।
31 अगस्त, 1919 को गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) करतार सिंह ‘हितकारी’ के घर जन्मी अमृता ने उन्हीं से काफिया-रदीफ के सम्बंध में जानकारी ली थी, कविता रचना सीखा था। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि बेटी धार्मिक कविताएं ही लिखे- परन्तु उसने कभी ऐसा न किया। उसने लिखा तो अग्नि को चूमने, चिंगारी और सिगरेट की बातों के साथ-साथ चांदनी की फुलकारी, सूर्य के हिनहिनाते घोड़े, आयु के सफ़र, दिल-दरिया, सुच्चे इश्क, इश्क के ज़ख़्मों आदि के बारे में लिखा था।
1947 के रक्त-रंजित भारत-विभाजन ने उसे द्रवित कर दिया था। वह चीख उठी थी:-
अज्ज आखां वारिस शाह नूं किते क़बरां विच्चों बोल
ते अज्ज किताबे-इश्क दा कोई अगला वरका फोल
इक्क रोई सी धी पंजाब दी तूं लिख-लिख मारे वैण
अज्ज लक्खां धीयां रोंदियां, तैनूं वारिस शाह नूं कहिण
उठ दरदमन्दां दिया दरदीया! उठ तक्क आपणा पंजाब
अज्ज बेले लाशां बिच्छीयां ते लहू दी भरी चनाब…….
यह विश्व प्रसिद्ध काव्य-रचना अमृता ने दिल्ली में नौकरी से वापस देहरादून लौटते हुए चलती गाड़ी में लिखी थी। देहरादून- यहां उसने भारत-विभाजन के उपरांत शरण ली थी। यह रचना आज भी मुल्तान (पाकिस्तान) में ‘जश्न-वारिस शाह’ के आरम्भ के समय सम्पूर्ण तन्मयता से ऊंचे स्वर में गाई जाती है। अमृता ने भारत की स्वतंत्रता और विभाजन दोनों के उपलक्ष्य में कई कविताएं रची हैं। उसने इसी त्रासदी पर केन्द्रित ‘पिंजर’ उपन्यास भी लिखा था जिस पर दो वर्ष पूर्व डॉ.चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने एक इसी शीर्षक वाली फ़िल्म का निर्माण किया था।
साहित्यकार प्रेम प्रकाश, सम्पादक ‘लकीर’ ने इस पत्रिका के जुलाई-सितम्बर 2002 अंक में लिखा है- “अमृता प्रीतम पंजाबी की लीजेण्डरी लेडी है। बीती सदी से वह पंजाबियों के दिलों पर राज कर रही है कोई उनसे बड़ी कवयित्री हो सकती है, कोई उनसे बड़ा गल्पकार हो सकता है, परन्तु कोई ‘वह कुछ’ नहीं हो सकता, जो अमृता की समस्त हस्ती है।” एक समारोह में सुप्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार कमलेश्वर ने अमृता की उपस्थिति में उनकी प्रशंसा में कहा था- “अमृता जी का कमाल यह है कि वह हमेशा ज़मीन की सतह से दो इंच ऊपर चलती रही हैं।”
उसके देहावसान पर जगजीत सिंह आनन्द, सम्पादक ‘नवां ज़माना’ ने लिखा- “पंजाबी साहित्य की विरासत बड़ी अमीर है। बात वारिस से चलकर प्रो.मोहन सिंह तक जा पहुंची थी और फिर शिव बटालवी ने अपनी काव्य प्रतिभा से चकाचौंध कर दिया, परन्तु बीती शती के आरम्भ से लेकर जब 16 वर्ष की आयु में अमृता ‘प्रीत लड़ी’ के पन्नों पर चढ़ी, जिसमें प्रकाशित होना एक बहुत बड़ी प्राप्ति गिना जाता था, वह आगे ही बढ़ती गई और पंजाबी साहित्य के इतिहास में एक ऐसी महिला साहित्यकार के तौर पर उभरी, जिसका कोई सानी नहीं।”
चित्रकार इन्द्रजीत जिसे उसने ‘इमरोज़’ नाम दिया है, से अंतरंग मित्रता के उपरांत 1960 में वह अपने पति प्रीतम सिंह से दूर हटती चली गई थी और अन्तत: नाता टूट गया था- परन्तु अन्त तक उसने उसका नाम ‘प्रीतम’ अपने नाम के साथ जोड़े रखा था। इसी इमरोज़ के साथ मिलकर 1966 में उसने ‘नागमणि’ (पंजाबी मासिक) का प्रकाशन आरम्भ किया जिसे उसने चोटिल होने और निरंतर गिरते स्वास्थ्य के फलत: अप्रैल 2002 में इसके 432वें अंक के साथ बन्द कर दिया था। इस पत्रिका ने जहां स्थापित पंजाबी साहित्यकारों को प्रकाशित किया वहां नवांकुरों को भी अत्यंत प्रोत्साहित किया, स्थापित किया। इस पत्रिका में नज़्में तो प्रकाशित हुआ करती थीं परन्तु गज़लों के लिए कोई स्थान नहीं था।
इस इमरोज़ के अतिरिक्त अमृता को साहिर लुधियानवी और सज्जाद से भी असीम अनुराग रहा है। उर्दू शायर साहिर लुधियानवी से अपने अनुराग और इश्क के चर्चे उसने अपनी आत्म-कथा ‘रसीदी टिकट’ में खुलकर किए हैं। उसका यह इश्क एकपक्षीय था जैसा कि इमरोज़ ने मुझे (इन पंक्तियाें के लेखक से) स्वयं कहा था। सज्जाद ने अमृता के बेटे नवराज के नाम पर अपने बेटे का नाम ‘नवी’ रखा था वह भारत विभाजनोपरांत पाकिस्तान चला गया था।
अमृता से अनुराग एवं इश्क की सशक्त पारी खेलने वाला पुरुष इमरोज़ है। चित्रकार इमरोज़ के इश्क में अमृता को तड़पते हुए उसकी दत्त पुत्री कंदला ने स्वयं देखा था। अमृता की बुलंद प्राप्तियों के पीछे नि:संदेह इमरोज़ का हाथ रहा है। वह ‘अमृता’ शीर्षक से लिखी कविता में अमृता का यूं चित्रण करता है:-
“कभी-कभी खू़बसूरत विचार खूबसूरत बदन भी धारण कर लेते हैं…..”
31 मार्च 2003 को मैं अपने मित्र द्वारिका नाथ के साथ नई दिल्ली के हौज़ ख़ास क्षेत्र में अवस्थित निवास पर उसकी कुशल-क्षेम जानने हेतु गया था तो इमरोज़ कितनी ही देर तक अमृता के बारे में बतियाता रहा था वह ओशो और भगवान् श्री कृष्ण के बारे में, उनके दर्शन के बारे में बातें करता रहा था। उसने अपने कई एक चित्रों-रेखांकनों में ओशो को चित्रित किया है जब कि अमृता ने ओशो सम्बंधी ‘ओशो रंग मजीठड़ा’ आदि पुस्तकें रची हैं। लौटने से पूर्व मैंने उनकी पत्रिका ‘नागमणि’ के अन्तिम दोनों अंक यथा 431वें और 432वें अंक, उन दोनों से हस्ताक्षरित करवा लिए थे ताकि इस अमूल्य एवं आत्मीय क्षणों की सनद शेष रहे।
इमरोज़ के प्रति अमृता के मन में क्या था, क्या स्थान था, इसका संदर्भ उसकी आत्म-कथा ‘रसीदी टिकट’ (हिन्दी संस्करण, 1979) में सहज ही ऐसे उपलब्ध है- “मेरी मिट्टी को सिर्फ़ मेरे बच्चों और इमरोज़ के हाथ काफ़ी हैं….सिर्फ़ काफ़ी नहीं, गनीमत हैं / मरी हुई मिट्टी के पास, किसी ज़माने में, लोग पानी के घड़े या सोने-चांदी की वस्तुएं रखा करते थे। ऐसी किसी आवश्यकता में मेरी आस्था नहीं होती-चाहती हूं इमरोज़ मेरी मिट्टी के पास मेरा कलम रख दे………इसीलिए जो लेखनी इस सम्पूर्ण रास्ते में मेरे साथ रही, चाहती हूं- मांस के मिट्टी हो जाने की सीमा तक मेरे साथ रहे।”
अमृता ने अपनी जीवन की अन्तिम कविता जो उसने 2002 में अपने हर पल के साथी इमरोज़ के लिए लिखी थी, में उससे अपने पुनर्मिलन की हार्दिक इच्छा यूं अभिव्यक्त की है:-
“मैं तैनूं फेर मिलांगी अनुवाद- “मैं तुझे फिर मिलूंगी
कित्थे? किस तरां? पता नहीं कहां? कैसे? मालूम नहीं
शायदे तेरे तख़्यीअल दी शायद तेरे तख़्यीअल की
चिणग बणके चिंगारी बनकर
तेरी कैनवस ते उतरांगी तेरी कैनवस पर उतरूंगी
जां खौरे तेरी कैनवस दे उत्ते या शायद तेरी कैनवस के ऊपर
इक्क रहस्समयी लकीर बणके एक रहस्यमयी लकीर बनकर
ख़ामोश तैनूं तकदी रवांगी” ख़ामोश तुझे देखती रहूंगी”
अपने अन्तिम तीन वर्षों में वह धीरे-धीरे, पल-प्रतिपल उत्तरोत्तर ख़ामोश होती चली गई-शेष दुनिया से बेख़बर रही, इन पलों में उसके साथ रहा था तो उसका पल-पल का साथी इमरोज़, वह किसी और को अपने इन क्षणों में, अपने पास चाहती भी नहीं थी ‘रसीदी टिकट’ में ही वह कहती है:- “केवल चाहती हूं- जिनका मेरे जीने से कोई वास्ता नहीं था, उनका मेरी मौत से भी कोई वास्ता न हो। ऐसे अवसरों पर प्राय: वे लोग इर्द-गिर्द आकर खड़े हो जाते हैं, जो कभी पल का भी साथ नहीं होते, केवल भीड़ होते हैं। भीड़ का मेरी ज़िन्दगी से भी वास्ता नहीं था। चाहती हूं, इसका मेरी मौत से भी वास्ता न हो। राह-रस्म कभी भी मेरी कुछ नहीं लगती थी। वे लोग किसी ‘भोग’ या शोक-सभा के रूप में तब भी कुछ झूठ-सच बोलने का कष्ट न करें।”
बहुत-से लोगों ने अमृता को विभिन्न ढंगों-प्रकारों से कष्ट दिए थे- वे अब भी कब रुकने वाले थे। पत्र-पत्रिकाओं में नाम-चित्र देखने की होड़ में कितनों ने कितनी ही शोक-सभाएं कर डाली थीं- अमृता की हार्दिक इच्छा के विपरीत, उसका ‘भोग‘ नहीं डाला था तो सिर्फ़ उसके अपने इमरोज़ ने, वह एक खुशबू थी, खुशबू रहेगी-
प्रलय के बाद तक भी
Beautiful , awesome .will RIP