-डॉ.रामनिवास ‘मानव’
वह आदमी है या जीवित पहेली, कहना मुश्किल है औरों की तो बात छोड़िये, पूरे पांच साल सिर खपाने के बाद, पत्नी भी उसके स्वभाव को समझ नहीं पाई।
बेचारी पत्नी भी क्या करे! स्वभाव ही कितना विचित्र है उसका। पानी मंगाया, पर पत्नी के पानी का गिलास लेकर आते-आते प्यास ख़त्म। कभी बिना तड़के की सब्ज़ी देखी अच्छी नहीं लगती तो कभी तड़के से सख़्त नफ़रत। कभी दो ही चपातियां खाकर उठ जाता, तो कभी थाली से उठने का नाम ही नहीं।
पत्नी हल्के-से मुस्करा भर देती- ‘हे भगवान, सभी आदमी ऐसे ही होते हैं क्या?’
वह रात खाने बैठा तो खाता ही रहा। सब्ज़ी, दाल, सलाद, सब पत्नी के आने से पहले ही साफ़। वह खाने बैठी, तो थाली में दो चपातियां ही बची थी।
“इतने से काम चल जायेगा ?”
“हां।”
“क्यों, भूख नहीं लगी है क्या ?”
“लगी है ना।”
“फिर ?”
“आज कम हैं, तो कल मैंने दो चपातियां अधिक खा ली थी।”
“लेकिन तुम्हारी भूख…?”
“औरत की भूख का क्या ! अधिक चपातियां बच जायें, तो भूख अधिक; और कम बचें, तो कम।”