-धर्मपाल साहिल

किताबें इन्सान की सब से अच्छी दोस्त होती हैं। जब आपके साथ कोई न हो तब एक अच्छी किताब आपका बसा-बसाया संसार सिद्ध होती है। दुनियां भर का समस्त इतिहास, संस्कृति, दर्शन, यहां तक कि हर क़िस्म का ज्ञान किताबों में संरक्षित और सुरक्षित है तथा किताबों द्वारा ही पुरानी पीढ़ी से नयी पीढ़ी तक पहुंच रहा है। किताबें मनुष्य को अंधेरे से रौशनी में लेकर आती हैं। ये हमारा मार्ग दर्शक बनती हैं। किताबें पढ़कर लिखने की प्रेरणा बनती है और नये लेखक बनते हैं। किताबें रहनुमाओं को नये उनवान तथा राहगीरों को नये राह दिखाती हैं। आंखों में नये सपने और दिलों में नये जज़बात भरती हैं। मस्तिष्क में नयी सोच के दीपक रौशन करती हैं। सोच में नयी हलचल मचाती हैं। किताबों में मानवीय संवेदना की भावना समाहित होती है। किताबों का कोई धर्म नहीं होता, न कोई सीमा होती है। किताबें खुद ही रौशनी नहीं बांटती बल्कि ये तो धरती पर वे सच के सूरज, पुण्य के चाँद और न्याय के वे तारे हैं, जिन से उजालों को नयी चमक और दमक हासिल होती है। किताबों की चकाचौंध से रौशनी और संवर-संवर जाती है। पर आज का युग ‘कम्प्यूटर युग’ है। इस कम्प्यूटर ने किताबों के अस्तित्त्व को ख़तरे में डाल दिया है। कम्प्यूटर और टी.वी. के पर्दे पर चिपकी आंखें किताबों की ओर कम ही उठती हैं। किताबें बंद अलमारियों के शीशे से बड़ी हसरत से झांकती हैं। किताबें हाथों के नर्म और नाज़ुक स्पर्श के लिए तरसती हैं। किताबें प्रतीक्षरत् हैं कि कोई उमंग और चाव भरी नज़र उन्हें चूमे। उनसे मुलाक़ात करे। उन्हें कुछ पल के लिए ही सही अलमारी की क़ैद से आज़ाद करके उन पर जमी वक़्त की धूल झाड़े। सजदे की मुद्रा में झुककर खुदा की नमाज़ की तरह उसे पढ़े। किताबें अपने स्वामी को जब कम्प्यूटर के समक्ष बैठा, पर्दे पर आंखें टिकाए देखती हैं तो वे ईर्ष्या से जल भुन जाती हैं, उन की छाती पर सांप लोट जाता है जैसे कम्प्यूटर न होकर उनकी सौतन हो। जो पाक मुहब्बत, पवित्र रिश्ते, ऊंची मान्यताओं का ख़ज़ाना किताबों ने अपने भीतर समा रखा है वो सभी को दिखाती हैं, बांटती हैं कम्प्यूटर और टी.वी. के पर्दे पर पवित्र प्रेम को प्रदूषित होते, रिश्तों के चीथड़े होते, मान्यताओं का जनाज़ा निकलते देख किताबें पहाड़ जैसी आह भरती हैं। युगों-युगांतरों से संभाले, शब्दों के अर्थों को बदलते देख किताबों की आत्माएं तड़पती हैं बिलखती हैं।

लगता है, अगर हम सचमुच ही किताबों से मुंह मोड़ लेंगे तो अपनी विरासत से कितना कुछ मनफ़ी कर लेंगे। अगर हमने कम्प्यूटर और टी.वी. को अपना हमसफ़र बना लिया तो हम अपने अस्तित्त्व में से कितना कुछ खो बैठेंगे। किताबों को हाथों में लेने पर, किसी दोस्त के हाथों का सानिध्य हम से जुदा हो जाएगा। पेज़ पलटते, पोरों को होठों से छूते समय जो ज़ायका प्राप्‍त होता था हम उस लुत्फ़ से महरूम हो जाएंगे। वरका दर वरका खोलते किताब की रूह से जो राबता बना रहता है, जज़बातों का जो दरिया बहता रहता है। वह कम्प्यूटर या रिमोट का बटन दबाने से महसूस नहीं होगा। किताबें कभी सीने से, कभी गोद, कभी घुटनों, कभी जांघों, कभी बैठे, कभी लेटे हमारे जिस्म और ज़हन से जो निकटता बनाए रखती हैं उस चुम्बकीय आकर्षण से जुदा हो जाएंगे। किताबें पढ़ते समय इन्द्रधनुषी झूले अतीत की बातें रह जाएंगी।

इस में कोई शक नहीं कि कम्प्यूटर एवं टी.वी. भी ज्ञान के भंडार हैं। ये खोज के नये क्षितिज तथा रहस्यों के नये झरोखे खोले बैठा है। फिर भी ये है तो मशीन ही न। मानव के इशारों पर नाचने वाली। उस में किताबों जैसे मानवीय संवेदना पैदा करने का सामर्थ्य कहां? बेशक हम कम्प्यूटर एवं टी.वी. द्वारा ज्ञान के सागर में डुबकी लगाते हैं। लेकिन किशोरावस्था में कच्ची और पवित्र मुहब्बत से लबरेज़ ख़तों का आदान-प्रदान करते थे। किताबों में जो प्यार में भेंट किए सूखे फूल मिलते थे। उन फूलों की पन्नों में समाई खुशबू कहां से ढूंढ़ेंगे। किताबें देते-लेते, किताबें मांगते, किताबें गिराते-उठाते, किताबों के उपहार लेते देते जो रिश्तों के रेशमी तार जुड़ते थे। रिश्तों में बंधते थे, वे सब कम्प्यूटर और टी.वी. के माध्यम से कैसे जुड़ेंगे। यह आत्मिक सरमाया धीरे-धीरे हमारे हाथों से खिसक जाएगा, घटता-घटता घट जाएगा और एक-दिन हम इन मशीनों की तरह संवेदनहीन हो कर रह जाएंगे। जब हम अपने बच्चों को ‘क’ किताब के स्थान पर ‘क’ कम्प्यूटर पढ़ाएंगे तो हमारी शब्दावली से ‘किताब’ शब्द ही ढूंढ़े से मिलेगा? हम स्वयं चलते-फिरते कम्प्यूटर बन कर रह जाएंगे। आओ किताबों की ओर मुड़ें और किताबों से जुड़ें।    

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