-बलबीर बाली

इन्सान की यह फितरत है कि न तो इन्सान किसी से बिना जान पहचान के दोस्ती करता है न दुश्मनी। यूं तो इन्सान का सम्बन्ध बचपन से ही किसी दूसरे के साथ होता है। जन्म के समय मां के साथ, बचपन में भाई बहन व साथियों के साथ परन्तु असली समझ का सम्बन्ध बनता है, जब वह किशोर अवस्था में होता है। यदि इस अवस्था में किशोर-किशोरियों को सही सम्बन्धों का आधार मिल जाए तो उनकी जीवन रूपी नौका मुश्किलों के हर तूफ़ान को पार कर सकती है, परन्तु बड़े दुःख की बात है कि किशोर अवस्था में सम्बन्धों को बनाने का किया गया प्रयास विफल ही होता है। आख़िर क्यों?

ये एक ऐसा विषय है जो आज प्रत्येक व्यक्ति के दिमाग़ में कौंध रहा है। प्रत्येक व्यक्ति किसी भी अवस्था में किसी न किसी के साथ सम्बन्ध बनाना चाहता है, दादा-दादी, पोते-पोती के साथ, पिता अपने साथियों के साथ, माता अपनी पड़ोसिनों व सहेलियों के साथ, बच्चे अपने दोस्तों के साथ। परन्तु क्या किसी ने किशोरों की उस मानसिक अवस्था की ओर ध्यान केन्द्रित किया है जो कि सब से चंचल व सनकीपन की उम्र मानी गई है। यदि दादा-दादी 60-70 वर्ष की आयु में सम्बन्ध बनाना चाहते हैं तो वह तो फिर किशोर हैं, वो क्यों पीछे रहें। तर्कसंगत है कि यदि बच्चे अपने हमउम्र बच्चों के साथ, माता अपनी हमउम्र पड़ोसिनों व सहेलियों के साथ, पिता अपने हमउम्र साथियों के साथ सम्बन्ध बढ़ाना चाहते हैं तो किशोर भी अपने हमउम्र किशोरों के साथ ही सम्बन्ध बढ़ाना चाहते होंगे परन्तु उन्हें ऐसा करने से रोका जाता है, आख़िर क्यों?

किसी ने सच ही कहा है कि अकेला रहने वाला व्यक्ति या तो जानवर है या फिर देवता। जब कि यह सभी जानते हैं कि व्यक्ति इन्सान सर्वप्रथम है। वह सम्बन्ध बनाता है परन्तु पूरी जानकारी से। ये किशोर किशोरियां ही हैं जो कल के भावी पुरुष व महिलाएं बनेंगी। परन्तु इनका मार्गदर्शन सही नहीं हो पा रहा है। विषय वो होता है जो कि न केवल खुद पढ़ा जा सके अपितु दूसरों को भी पढ़ाया जा सके। यह विषय समस्या प्रधान विषय है जो कि न केवल किशोरों से सम्बन्धित है अपितु पारिवारिक समस्याओं का भी केन्द्र बिंदु है। यदि यह समस्या है तो इसका समाधान भी होना चाहिए। बिना समस्या के समाधान हेतु तो ये लेख उद्देश्य-हीन हो जाएगा।

आज हम अपने बच्चों को ऊंची से ऊंची शिक्षा दिलाना चाहते हैं, लाखों रुपए ख़र्च कर उन्हें विदेश भेजना चाहते हैं। हम तरक्क़ी के उदाहरण देते वक़्त विदेशियों का ज़िक्र अवश्य करते हैं परन्तु क्या हम कभी सोचते हैं कि आख़िर क्यों हम विदेशी प्रतिभा को पसंद करते हैं जबकि विदेशी भारतीय संस्कृति को अपनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। व्यक्ति वही क़ामयाब होता है जो समय के अनुरूप अपने आप को ढाल लेता है और इस समय ज़रूरत है अपने आप को ढालने की। किशोरों द्वारा की गई नादानीपूर्ण हरकतें इससे पहले कि आप के लिए समस्या बनें, आप इस समस्या को अपनी समझदारी से होने से रोक सकते हैं। सबसे पहले अपने संकुचित व्यवहार को बदलना होगा। आज का युग ‘तरक्क़ी का युग है’, लड़के लड़कियों में किशोर हो रहे बच्चों की ज़िंदगी से अलग-थलग न हो कर माता-पिता की जगह उनसे दोस्ती बनाएं।

सारी ज़िम्मेदारियां बड़ों पर ही नहीं अपितु किशोरों पर भी हैं। ऐसा वातावरण बनाना उनके ज़िम्मे है कि वो अपनी हर इच्छा, हर मुश्किल बेझिझक एक दूसरे के सामने खोल सकें। जब ऐसा वातावरण प्रत्येक घर में होगा तो भारत विदेशों की प्रतिभा से नहीं, विदेशी भारतीय वातावरण के पीछे दीवाने से होंगे।

इस समस्या के समाधान हेतु समाज के इस संकुचित व्यवहार को बदलने के लिए ज़रूरत है कि किशोर वर्ग में ऐसे निर्णय लेने की क्षमता हो जो कि समाज को इस वर्ग की प्रतिभा मानने के लिए बाध्य करें। और यदि बड़ों के बहुमूल्य विचारों को जोड़ कर अपनी इच्छा शक्ति से ये निर्णय किए जाएं तो कोई समस्या शेष न रहेगी, ऐसी हमारी विचारधारा है। प्रत्येक व्यक्ति जो आपसे सम्बन्ध बनाना चाहता है या आप जिससे सम्बन्ध बनाने के इच्छुक हैं, अपने तर्क एवं विचारों की कसौटी पर भली भांति परख कर अपनी समझदारी का परिचय दें ताकि बड़े आपकी फ़िक्र करनी छोड़ दें। 

सम्बन्ध क़िस्मत वालों के बनते हैं परन्तु कई व्यक्ति सम्बन्धों की मधुरता को अपनी नासमझी से बर्बाद कर लेते हैं। किसी बात को छुपाना उसे संदेहास्पद बना देता है। सम्बन्धों को कभी न छुपाओ। यदि वही सम्बन्ध जो संदेहास्पद बन जाता है भरपूर समझदारी के साथ जग ज़ाहिर हो तो विश्वास की डोर समाज के साथ जुड़ी रहती है और पारिवारिक कलेशों का तो अंत ही हो जाएगा।

ये सभी बातें सुनने व पढ़ने में बहुत रोचक लगती हैं तथा मन को प्यारी भी। पर यही बातें जब व्यवहार में अपनाने का समय आता है तो एक प्रश्न चिन्ह हमारे सामने आ खड़ा होता है- “आख़िर क्यों?” ज़रूरत है अपनी विचारधारा को समय के अनुरूप ढालने की। आख़िर हम समझदार हैं।

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