-ज्योति खरे

“बहू, तुम अपनी तैयारी कर लो। राजीव के कपड़े भी रख लेना, सुबह की गाड़ी से तुम दोनों चले जाओ।” बुख़ार से कराहती शोभा ने अपनी बहू राखी से कहा तो सभी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। थोड़ी देर ख़ामोशी छायी रही। राखी के ससुर ने अपनी ही पत्नी शोभा से कुछ सोच-विचार के बाद कहा, “तुम्हें इतने ज़ोर का बुख़ार है। डॉक्टर ने हिलने-डुलने तक को मना किया है, टाइफ़ाइड का संदेह है, बहू को भेज दोगी तो तुम्हारी देखभाल कौन करेगा ?”

“मेरी चिंता न करो, बहू के मायके से तार आया है। समधिन की तबीयत ज़्यादा ही ख़राब होगी, तभी तो तार भेजा है, बेचारी के पास तीनों में से एक भी तो बेटी नहीं है। बेटा तो है नहीं जो बहू का सुख देखती। राखी को ऐसे अवसर पर नहीं भेजेंगे तो क्या मुंह दिखायेंगे उसे ? राजीव के चले जाने से उसे बहुत सहारा मिलेगा। राखी सास के सिरहाने बैठ उनका सिर दबा रही थी। भर्राये हुए स्वर में बोली, “मां जी, आप भी तो बीमार हैं, आप ज़्यादा बीमार हो गईं तो मुझे दु:ख होगा कि मैं आपको ऐसी हालत में क्यों छोड़कर गयी। मां की चिंता तो मुझे है, लेकिन यहां से जाकर आपकी चिंता में भी तो दुखी रहूंगी।”

“मेरी चिंता बिल्कुल मत करना बेटी। मुझे टाइफ़ाइड वग़ैरह नहीं है। थोड़ी सर्दी लगी है तो बुख़ार आ गया। एक-दो दिन में उतर जाएगा मेरी देखभाल यहां अपनी नौकरानी कर देगी। तुम निश्‍चिंत होकर जाओ बच्चों को साथ न ले जाना, नहीं तो वहां तुम उन्हीं में उलझी रहोगी, अपनी मां की देखभाल क्या कर पाओगी ?”

राखी का हृदय गदगद हो उठा। कोई भी अवसर आए, उसकी सास शोभा हमेशा ही अपनी सहृदयता का परिचय देती है। सास के इस आग्रह ने तो जन्म भर के लिए राखी को अपने मोहपाश में बांध लिया। यों भी अपने विवाहित जीवन के 11 वर्षों के अंतराल में राखी को अपनी सास से हमेशा स्नेह व उचित मार्गदर्शन ही मिला। शोभा से यूं ही पूछने पर कि वह तो बहू को बेटी समान समझती है, फिर भी अपनी बीमारी में उसे मायके कैसे भेज दिया, उन्होंने आर्द्र आंखों से बताया कि निस्संदेह जिस दिन से राखी उनके घर आयी उन्हें बेटी की कमी कभी महसूस नहीं हुई। राखी को उन्होंने मां का प्यार दिया तो उसने भी उन्हें अपनी मां के समान ही आदर व स्नेह दिया।

“परंतु यदि मैं उससे यह अपेक्षा करूं कि वह अपनी मां की अपेक्षा करके मुझे उसका दर्जा दे तो यह मेरी भारी भूल होगी। मैं जानती हूं कि वह अंश तो अपने माता-पिता का ही है। अत: मुझे पहले उसके माता-पिता को बराबरी का दर्जा देना होगा। तभी बहू भी मुझे उनके बराबर सम्मान देगी। अन्यथा मैं कभी उसकी मां न बन पाऊंगी। बस उस की सास ही रह जाऊंगी और आप तो जानती हैं कि सास-बहू के संबंध की क्या छीछालेदर की जाती है।”

शोभा की बातों से यह सामने आया कि सास-बहू के परस्पर प्रेम और एक-दूसरे की स्थिति को न केवल समझना, बल्कि उसमें सहायक होना आवश्‍यक है। इस भावना के अभाव में सैकड़ों घर अशान्ति का अखाड़ा बने हुए हैं। लड़के वाले प्राय: समझते हैं कि उनका दर्जा लड़की वालों से बहुत बड़ा है। बात-बात पर बहू के मायके वालों की उपेक्षा की जाती है, उनमें मीनमेख निकाला जाता है। परिणाम होता है, बहू के हृदय में ससुराल के प्रति, विशेष सास के प्रति विद्वेष की भावना आ जाती है।

अपने विचारों से व व्यवहार के आधार पर लेखिका की इन परिचिता ने अपनी बहुओं का मन भी जीत लिया है। उनकी मंझली बहू साल में कभी आठ-दस दिन के लिए सास के पास आती है, क्योंकि उसका पति समुंद्री जहाज़ पर कार्यरत है। सास के पास से जब लौटती है तो यही कहती हुई कि ऐसी सास के साथ उसका समय तो पंख लगाकर उड़ जाता है, उन्हें छोड़ने को मन ही नहीं करता है।

स्वयं शोभा ने ही इसका कारण बताया-बहू जब इतने थोड़े से दिन के लिए मेरे पास आती है तो मैं अपने सारे कार्यक्रम उन्हीं की सुविधानुसार बनाती हूं। बहू-बेटा बाहर जाते हैं तो छोटे बच्चों को मैं संभाल लेती हूं, वहां तो अकेली है, आराम से फ़िल्म देखने भी नहीं जा सकती। फिर यहां अपने नाते-रिश्तेदारों से भी मिल आती है। जब उनके यहां जाती है तो मैं उन लोगों को अपने यहां निमंत्रण देने के लिए भी विवश करती हूं, इस बहाने उन से मिलना भी हो जाता है, वरना तो कौन किसके यहां आता है इतनी दूर से…..।

निमंत्रित लोगों के खाने-पीने का प्रबंध बहुएं ही मिलकर करती हैं, शोभा का कहना है, “यह काम तो बहुओं का ही है और वे बड़ी खुशी से करती हैं तो रसोई संभालने का अनुभव भी बना रहता है। हमने भी तो जवानी में इसी तरह रसोई संभाली थी, खाना-पीना कभी नौकरों के हाथ से नहीं बनवाया, न अब इनसे कहूंगी कि रसोई नौकरों के हाथ में दें, हां! अतिथियों का स्वागत करना, उनसे बातचीत करना अब हमारा काम है।” जिस सौम्यता से बहू के मायके वालों के साथ पेश आती हैं, इससे बहुएं सदा उन पर जान लुटाती हैं।

लेखिका की एक अन्य परिचिता हैं इनके बेटे ने कुछ महीने पहले अपनी पसंद की एक लड़की की चर्चा की। लड़की के परिवार तथा लड़के के परिवार में ज़रा भी समानता नहीं थी। केवल लड़की गुणवती और सुंदर थी, ये लोग सात आदमियों की बारात ले गए और लड़की ब्याह लाए, परंतु लोग तो जानबूझ कर दूसरों की स्थिति का जायज़ा लेते हैं। बहू के आने पर अनेकों प्रश्‍नों की बौछार हो गई “क्या-क्या लाई है बहू ? सोना कितना तोला है ? आपके लिए तो बहू के मायके वालों ने बहुत ही क़ीमती साड़ी दी होगी….देखें तो कैसी है?”

“पता नहीं लोग अपनी आदतें क्यों नहीं छोड़ते दूसरों को ऐसी स्थिति में डाल देते हैं कि कोई उत्तर देते नहीं बनता।” वे इठलाती हुई बता रही थीं। सबको यह कहूं कि कुछ नहीं मिला तो बहू कैसा महसूस करेगी ? ये लोग इतना भी नहीं समझते कि मैं बेटे को ब्याहने गयी थी न कि अपने लिए उन लोगों से साड़ी लेने। मैंने तो कभी भी बहू के मायके वालों से यह अपेक्षा नहीं की कि वे मेरे व घर के अन्य सदस्यों के लिए कुछ दें। हमें तो केवल ऐसी लड़की चाहिए जो घर में आते ही हिल-मिल जाए, बड़ों को आदर दे और बराबर वालों को स्नेह दे।

लोगों की टीका-टिप्पणी से बहू को सुरक्षित रखने के लिए वह कभी बहू द्वारा लाए गए वस्त्रों की भी नुमाइश नहीं लगाती। जितने लोग देखते हैं, उतनी ही बातें बनाते हैं। कुछ लोग यदि भली-बुरी सुना गए तो बहू के मन में क्या बीतेगी ? बाहर वालों को तो यह एक आंख नहीं भाता कि किसी घर में सास-बहू शांति से रहें। अत: ऐसी स्थिति से बचना ही उचित है। उनका तर्क सही भी है। इसी कारण उनकी बहू भी उनका हृदय से आदर करती है, इनके घर में सुख शांति है।

इसके विपरीत बहू के आने से पहले ही लोग न जाने उससे क्या-क्या अपेक्षाएं लगाए रखते हैं। जो सामान इस मंहगाई के युग में वे स्वयं ख़रीदने में असमर्थ हैं, उसी की आशा वे बहू के मायके वालों से लगाते हैं। ननदों व देवरों के भी बढ़िया से बढ़िया वस्त्रों की आशा की जाती है यहां तक कि अन्य रिश्तेदारों के लिए भी जोड़ों की मांग होती है।

इतना बोझ पड़ने पर बहू के मायके वाले यदि कुछ सस्ता कपड़ा ख़रीद लेते हैं तो सब के चेहरे बिगड़ जाते हैं। बहू के सामने ही आलोचना शुरू हो जाती है। क्या इसका स्पष्‍ट तौर से यह अर्थ नहीं होता है कि बहू की अपेक्षा कपड़ों को महत्त्व दिया जा रहा है फिर बहू का मन जीतने की आशा ही ससुराल वाले कैसे कर सकते हैं ? बदलते समय के साथ हमें अपने सिद्धांत व मान्यताएं बदलनी पड़ेंगी।

अनेक घरों में देखा जाता है कि सास बहू को ऐसा काम सौंप देती है जो उसने स्वयं ही कभी नहीं किया था। अचला का कहना है कि उसके ससुर को सुबह पांच बजे चाय पीने की आदत है। चाय पीकर वे प्रात:काल घूमने जाते हैं, चाहे सर्दी हो या गर्मी। अचला के विवाह से पूर्व उसके ससुर स्वयं ही चाय बनाकर पीते थे। सास को कुछ देर से उठने की आदत है, जैसे ही अचला का विवाह हुआ सास ने प्यार से कहा, “अब अपने पिताजी की चाय तुम्हीं बना दिया करो, इतने दिनों से तो बेचारे स्वयं ही बनाकर पीते आ रहे हैं।”

अचला ने थोड़े दिन तो यह ज़िम्मेदारी निभाई, लेकिन फिर अधिक ठंड के कारण उसे बिस्तर से निकलना असहय लगने लगा। उसकी तबीयत भी ख़राब रहने लगी थी, परिणाम स्वरूप ससुर जी का मन भारी उपेक्षा से भर उठा। वे सोचने लगे कि मेरे लिए एक कप चाय बनाने तक का काम बहू नहीं कर पाई।

परंतु देखा जाए तो ग़लती सास की थी। जिस काम को वह स्वयं नहीं कर पाई, उसे बहू कैसे निभा पाती ? यदि सास ने बहू को ऐसा काम सौंपा भी तो उसका कर्त्तव्य था कि रात के समय बहू को काम से जल्दी छुटकारा देती। अचला का कहना है कि वह रात को भी बारह बजे तक रसोई में खटती रहती है। उसके आराम का किसी को भी ध्यान नहीं तबीयत ख़राब हो तो भी किसी को परवाह नहीं। पति मां व पिता के डर से उसके पक्ष में कुछ नहीं कह पाते। अत: बेचारी का जीना दुश्वार है और इसके लिए ज़िम्मेदार है अचला की सास।

सास को बहू से ऐसे कार्यों की अपेक्षा करनी चाहिए जिन्हें बहू अच्छी तरह से निभा पाए। फिर कार्य न करने की उसकी असमर्थता को भी दृष्टि गोचर रखते हुए बहू पर अनुचित आक्षेप न लगाए जाएं।

यह तो हमारे दैनिक जीवन का एक तथ्य है कि जितनी भी कम आशायें व अपेक्षाएं हम अपने संबंधियों व रिश्तेदारों से करेंगे, उतना ही हमारा मन शांत रहेगा, संबंध मधुर रहेंगे, यहां तक कि दूसरों के प्रति कुछ करके भी हमें बदले में कुछ हासिल करने की कम-से-कम अपेक्षाएं रखनी चाहिए।

बहू तो एकदम भिन्न परिवार से आती है, उससे हम न जाने क्यों हमेशा कुछ लेने व करवाने की ही अपेक्षायें करते रहते हैं। बहू से कुछ आशा करने से पहले ससुराल के सदस्यों को भी यह विचार करना चाहिए कि वे स्वयं बहू के लिए कितना कुछ करते हैं। उसकी सुख-सुविधाओं का कितना ध्यान रखते हैं ? यदि वे समझते हैं कि वे पूरी तरह से उस के सुख-दु:ख का ध्यान रखते हैं, तभी उन्हें बहू से भी कुछ करवाने की अपेक्षा करनी चाहिए।

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