साहित्य सागर

मिट्टी के दीये

बूढ़ा कुम्हार बोला, "बेटी ये दीये हमने अपने लिए पूजा के लिए पानी में भिगो कर रखे थे। 21 दीयों में से 11 दीये मैं तुम लोगों के लिए ले आया हूं। अरे पूजा ही करनी है तो हम 21 की जगह 7 दीयों से कर लेंगे। 11 दीयों से तुम पूजा कर लेना।

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बनक्कशे के फूल

गीत.... ! वह कुछ चौंका था। कौन से गीत भला। वो फ़िल्म वाले या पहाड़ी। मैं उसका जवाब सुनकर ज़ोर से हंसी थी, “फ़िल्म वाले नहीं ओए, अपने पहाड़ के गीत। चंचलो कुंजू वाला। वो गंगी। वो मेले जाने वाला और वो....।”

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हम भी खड़े हुए

न तो मेरे पास काला धन था, न किसी मंत्री/ मुख्यमंत्री का बेटा/ दामाद था मैं, न तो मुझे झूठ बोलने की प्रैक्टिस थी, न बूथ कैप्चरिंग का कोई तजुर्बा था ऊपर से स्वयं सोच-समझ कर अपना फ़ैसला स्वयं लेने की बुरी-लत। इस सब के रहते चुनाव में लीडर-लीडर कैसे खेलूंगा??

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मेरा कुछ भी नहीं

मेरे पिता का अब "मेरा" कुछ भी नहीं है क्योंकि मैं उसका बेटा नहीं हूं उसके तथाकथित 'कुलीन कुल' का दीपक भी नहीं हूं न ही उसके वंश साम्राज्य का प्रतीक ही हूं

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आ जाओ

मैंने हवाओं, घटाओं खुश्बुओं, शुआओं आंसुओं, दुआओं के हाथ कितने ही ख़त भेजे हैं तुम्हें शाम ढले भी दमों की दहलीज़ पर बैठा समय के डाकिए के हाथों तेरे जवाब का इन्तज़ार कर रहा हूं।

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बहू-बेटी

कपड़ों की तह करती हुई कमला देवी बड़बड़ाती जा रही थी, 'छः बजने को आ गए, पर महारानी जी का कोई पता नहीं। घर न हुआ, सराय हो गई। रात को आ गई और सुबह होते ही बन संवर कर फिर निकल गई।

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मैं सृष्टि हूं

मैं सृष्टि हूं यह जानते हुए भी मेरे अस्तित्त्व को झुठलाया गया महारथियों की अर्धांगिनी होते हुए भी भरी सभा में मुझे लज्जित करवाया गया।

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आलोचना

दोनों का इंतज़ाम एकदम भिन्न था, जिस भाई के यहां हमारी बारात गई थी, उसकी सारी व्यवस्था एकदम सादी थी जैसा कि देहात का सामान्य आदमी रखता है। इसके विपरीत दूसरे भाई के इंतज़ाम का क्या कहना!

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क़तार

दिन-प्रतिदिन लंबी होती जा रही यह क़तार... क़तार-यह बेरोज़गारी की क़तार-यह लाचारी की हर दिन एक संख्या जुड़ती जा रही है इसमें

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गृहलक्ष्मी की महिमा निराली

आपकी यह पूजा अवश्य सफल होगी। देवी लक्ष्मी तो कभी सामग्री ग्रहण करती नहीं, जबकि गृहलक्ष्मी हर बार खुश होकर आपकी वंदना-सामग्री स्वीकार कर लेगी और हो गई आपकी पूजा सफल।दीवाली के मौक़े पर आपकी पूजा दिवाले से बची रहकर सफल हो

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