-श्रीमती मृदुला गुप्ता

कपड़ों की तह करती हुई कमला देवी बड़बड़ाती जा रही थी, ‘छः बजने को आ गए, पर महारानी जी का कोई पता नहीं। घर न हुआ, सराय हो गई। रात को आ गई और सुबह होते ही बन संवर कर फिर निकल गई। अरे! नौकरी करती है तो किसी पर अहसान तो नहीं करती। फिर वहां भी तो सारा दिन कुर्सी ही तोड़ती है। मैं ठहरी बुढ़िया! अब इतना सारा काम मेरे बस का कहां। मगर फिर भी सारा दिन खटती रहती हूं। लगता है आज फिर अपने घर चली गई, परसों बाप की बीमारी की ख़बर जो आई थी, कितना कहा था कि छुट्टी वाले दिन चली जाना, मगर कहां? आज ही जाना था जैसे मरने ही वाला हो।’ उसी समय कालबेल बजी और कमला देवी दरवाज़ा खोलने चल दी।

‘अरे! मीना तू।’ बेटी को देखकर उसका चेहरा खुशी से चमक उठा। ‘आ बेटी आ, शायद दफ़्तर से सीधी यहां पर ही आ रही है। बड़ा अच्छा किया जो आ गई। कब से मेरा मन तड़प रहा था तुझसे मिलने को। इसी वास्ते कल मनोज से फ़ोन भी करवाया था। तू बैठ मैं तेरे लिए चाय बनाकर लाती हूं और साथ ही कुछ खाने का इंतज़ाम भी करती हूं, थक-हार कर आई होगी।’ ‘नहीं मां, मैं ज़्यादा देर नहीं रुकूंगी, देर हो जाएगी।’ अरी! तो कौन सी आफ़त आ जाएगी, तेरी सास भी तो होगी घर में, आज वह कर लेगी, वैसे भी सारा दिन ख़ाली ही तो रहती होगी, बस मुन्ना ही तो रहता है, फिर एक बच्चे का काम ही कितना होता है।’ कहकर कमला देवी रसोई की ओर चल दी।

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