किसी भी देश के विकास के लिए, समृद्धि के लिए आवश्यकता होती है श्रम की, आवश्यकता होती है संघर्ष की। यही तो ज़िंदगी का सार है। ज़िंदगी का अर्थ, ज़िंदगी की शकल सब के लिए अलग होती है। ज़िंदगी चाहे बोलती नहीं पर हालातों द्वारा खुद को बयां करती है। ज़िंदगी कैसी भी हो, किसी की भी हो संघर्ष मांगती है। आगे बढ़ने के लिए ज़रूरत होती है नए सपनों की, नई कल्पनाओं की, नए आकाश छूने की तमन्ना की। एक समृद्ध देश के लिए तलाश होनी चाहिए नए मार्ग की, नए क्षितिज की। स्वाधीनता की अर्द्धशती बीतने के बाद आज हम कितनी खुशहाली, कितनी सुख-समृद्धि की ओर बढ़ पाए हैं? और हमारे आगे क्या दुविधाएं आ खड़ी हुई हैं ?
आज़ाद भारत की आज़ाद औलादों को आज़ादी के इतने वर्ष बाद आज क्या मिला है? जनसंख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी, बेरोज़गारी, हिंसा, रिश्तों में बिखराव, भ्रष्टाचार, भ्रूण हत्या, धर्मादिक दंगे, फ़साद, उग्रवाद व गन्दी राजनीति और इन सबसे बढ़कर मीडिया और इन्टरनेट द्वारा परोसी जा रही अश्लीेलता।
क्या हमारा स्वतंत्र देश उन शहीदों की, उन वीर सपूतों की कल्पनाओं के अनुरूप हो पाएगा जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर हमें स्वतंत्र देश में सांस लेने लायक़ बनाया? क्या हम ग़रीबी, बेकारी, भ्रष्टााचार, भूख से निपट पाएंगे? घपलों, घोटालों को यूं ही तो नहीं होते रहने देंगे? गन्दी बस्तियों, झुग्गी-झोंपड़ियों, अपराधों की वृद्धि रोक पाएंगे? धर्मान्धता का अन्त कर पाएंगे?
यह सिलसिला रातों-रात नहीं बढ़ा है। धीरे-धीरे वक़्त करवट बदलता रहा और हम आंखें मूंदे सोते रहे। पर अब हवाओं ने आंधी का रूप अख्तियार कर लिया है। हम अपना बहुत कुछ खो चुके हैं अब वक़्त है कुछ करने का। यह अंत नहीं है बल्कि नई चुनौतियों की शुरूआत है। यदि सभी सीधे-साधे रास्ते ही बड़ी मंज़िलों तक पहुंचते तो आम तौर पर रास्ते वीरान रहते। आज चारों तरफ़ बिखरे पैंड़े हैं और इन पर चलने के लिए निश्चय की ज़रूरत है।
दो रास्ते होते हैं हमारे पास। अगर कुछ बुराई है तो उस बुराई का अंत करें या कम करें या कम से कम अंत करने का कुछ प्रयत्न तो करें, कुछ सामां तो जुटाएं। एक और रास्ता भी है कि बुराई को अपना लो। समाज में भ्रष्टता फैली है खुद भी भ्रष्ट हो जाओ। यही आसान रास्ता है, यही अपनाया है हमने। पूरे का पूरा ताना-बाना ही उलझ चुका है। अब दोष किसे दें। अब दर्शकों की इससे बेहतर क्या- स्थिति हो सकती है जीवन मार्ग पर। ये ज़िंदगी, ये जीवन कोई खेला नहीं है, कोई मेला नहीं है। यह शो नहीं है कि खड़े होकर देखा किए। ज़िंदगी को जीना पड़ता है। ज़िंदगी में लगातार संघर्ष होना चाहिए। मन में यह निश्चय कि जो मिल गया उसे ज्यों का त्यों अपना नहीं लेंगे। बदलने वाली चीज़ों को बदलेंगे। कुछ अच्छा करेंगे, बेहतर संसार बनाएंगे।
आने वाला समय एक ऐसा अनगढ़ पत्थर होता है जिसे अपने अनुकूल बनाने की संभावना होती है। वर्तमान का आशा का दीपक तो सदा भविष्य में मिलने वाली चिंगारियों के इंतज़ार में रहता है। हमारा आज, आज का युवा सुख-समृद्धि के नए मार्ग तलाश कर भविष्य को संवार सकता है। आने वाली नसलों के लिए नए रास्ते तैयार कर सकता है। आज़ाद हिन्द को पूर्व कल्पनाओं के अनुसार बनाना आज के युवा का, हर नागरिक का कर्त्तव्य है- ताकि हम अपने देश पर गर्व कर सकें, खुद अपने पर गौरवान्वित हो सकें, नाज़ कर सकें। नाज़ हिन्द पर, हिन्द वासियों पर।
-सिमरन