“अरी, तेरा ख़सम है का या कसाई? ज़ालिम ने किस बेदर्दी से मारा है। मार-मार कर हड्डी-पसली एक कर दी है।” बेटी के बालों और चोटों को सहलाते हुए फुलवंती की पीड़ा से भरी आवाज़ मुंह से निकली। वह आगे बोली, “तू उस कम्बख़्त को छोड़-छाड़ कर क्यों नहीं आ जाती?”

“मां! का तू बापू को छोड़ सकी थी? दारू की पूरी बोतल पेट में उतार कर आता तो तुझे मारता-पीटता था। सारी ज़िन्दगी उसी से बंधी रही थी। बोल मां? चुप क्यों है?” रूपवंती की आंखों में आंसू भरे थे। रूपवंती की बातें सुन मां चुप हो गई थी- एक गूंगे समान।

रूपवंती ने एक ठंडी सांस ली। आंखों से बहते पानी को पोंछा, फिर बोली, “मां! हमारी ज़िन्दगी के पात्र बदले हैं। बापू मरा…. तू मार खाने से बच गई। बापू की तरह अब मेरा मर्द है और तेरी जगह मैं हूं। पिटना औरत को ही पड़ता है। चाहे कारण दारू हो या कुछ और। पात्र तो बदल गए मगर हमारा भाग्य नहीं।”

एक सिसकी थी कि कहीं दर्द से गले में ही घुट कर रह गई।

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