-चित्रेश

सैंकड़ों साल पहले आदमी का जीवन पूरी तरह प्रकृति से जुड़़ा था। कृत्रिमता का हल्का-सा स्पर्श भी नहीं था उसके कार्य-व्यापार में यही वह वक्‍़त था, जब उसने ऋतु परिवर्तनों का धूमधाम से स्वागत करने की परम्परा क़ायम की और इसी की एक पुरातन कड़़ी है-होली ! यह ऋतु संधि का-सर्दी के जाने और गर्मी के आने का पर्व हैै। इन दिनों रबी की फसल में सुनहलापन आ जाता हैै। सरसों-मटर जैसी छोटी-मोटी फसलें खलिहान में पहुुंचने लगती हैैं, इस नये धान्य की आगवानी का उल्लास पर्व हैै होली !

इसकी आहट तो बसंत के आगमन के साथ ही मिल जाती हैै। बसंत प्रकृति के उल्लास और सिंगार का काल हैै, इसकी झलक बसंत की अल्हड़़ बयार में देखी जा सकती हैै, जिसकी चाल में किशोरी-सी झिझक होती हैै। यह जिधर से भी निकलती हैै-मन में एक गुदगुदी, एक पुलक भरा रोमांच भरती जाती हैै। इस सलोनी सहलावन का ही नतीजा हैै कि पाले की मार से बेरंग टहनियां नई कोपलों से सहजने लगती हैैं। ठिठुुरी-ठिठुुरी कलियां पुष्प बनकर मुस्कुरा उठती हैं, पलाश तो पूरा का पूरा रक्‍ताभ फूलों के बड़़े गुच्छेे में बदल जाता हैै। पीताभ बौरों से झुक-झुक जाती हैै अमराइयां ! भौंरों की गुनगुनाहट और पक्षियों की चहक में बहकने लगती हैै प्रकृति की तरुणाई। सदियों से प्रकृति की इसी तरंग और उमंग को होली के रंग, नृत्य, गान और उत्सव के माध्यम से मानव अपने जीवन में साकार करता आया हैै।

प्राचीनकाल में होली कई दिन चलने वाले बसंतोत्सव का समापन थी। बसंतोत्सव कामदेव का पर्व था, जो भारतीय सामाजिक जीवन में अत्यन्त सम्‍मानित था। इस अवसर पर कामदेव की विधि-विधान से पूजा-अर्चना की जाती थी। भगवान् कंदर्प के सामने तरुण युगल नृत्य-गान करते थे। मान्यताओं के परिवर्तन के किसी दौर में यह कड़़ी कर्मकांड के स्तर पर तो ज़रूर टूूट गई, लेकिन लौकिक जीवन से एकदम जुदा नहीं हुुई हैै। आज भी ग्रामचलों में होली के एक महीना पूर्व फाल्गुन लगते ही स्त्रियां जवान लड़कों से हंसी-मज़ाक करने लगती हैं और ज्वार की संस्कृति में यह चुहलबाज़ियां जीवन का रस भरने लगती हैैं। यही हैै ‘मदनोत्सव’ का लोकमान्य रूप! इसे उत्तर भारत के गांवों में गाए जाने वाले स्त्री-पुरुष के मांसल प्रेमगीत-धमार, जोगिरा, फाग, होरी और रसिया में भी परखा जा सकता हैै। इसमें बासंती तरंग और अल्हड़़ता होती हैै- वर्जनाओं से मुक्ति की छटपटाहट भी, जो कबीरा की तान पर सवार होकर होली की ठिठोली में गली-गली बिखर जाती है। कहीं-कहीं फाल्गुन शुक्‍ल पक्ष की अष्टमी से पूर्णिमा तक चलने वाले ‘होलष्टक’ के तीसरे दिन ‘रंगभरी’ मनायी जाती हैै, इसमें ज़मीन में लकड़ियां गाड़कर उस पर रंग-बिरंगे कपड़़ेे लटकाए जाते हैैं, गोबर की गुलेरियां लगाई जाती हैै। औरतें इसकी पूजा करके प्राकृतिक प्रकोप से मुक्ति की कामना करती हैै। वैदिक काल में होली ‘नवान्नेष्टि’ के रूप मेंं मान्य थी। इस अवसर पर अधपकेे अन्न के हवन का विधान था। इसी दिन मनु महाराज जन्म लिए थे। इसी से यह ‘मन्वादितिथि’ के रूप में भी जानी जाती हैै। पौराणिक दृष्टि से होली मनाने के पीछेे प्रहलाद और हिरण्यकश्यप का प्रसंग हैै तो ब्रजवासी इसका सम्बन्ध राधा-कृष्ण से जोड़़ते हैैं। विभिन्न क्षेत्रों की होली से जुड़़ी लोक कथाओं का भी अपना अलग-अलग रंग हैै। वास्तव में होली से जुड़़ेे यह समस्त सूत्र हमारी वैविध्यपूर्ण संस्कृति की सलोनी अभिव्यक्‍तियां हैैं, जो लोक साहित्य से लेकर ललित साहित्य तक बिखरी हैैं।

वात्सायन के ‘कामसूत्र’ में होलिकोत्सव की चर्चा हैै। कालीदास की कई रचनाओं में भी इस पर्व की झलक मिलती हैै, मगर इसका सर्वाधिक रोचक, मनोहारी और सजीव वर्णन किया हैै हर्षदेव ने ‘रत्‍नावली’ नाटिका में! इस कृति के अनुसार होली में इतना पिष्टातक (अबीर) उड़़ता था कि दिशाएं लाल हो जाती थी। केसर मिश्रित अबीर से राजपथ भर जाते थे। और ऐसा लगता था कि लोग सुनहरेे रंग में डुुबो दिये गये हैैं। ‘रत्‍नावली’ में युवक और युवतियों का दूसरेे पर ‘श्रृंगक’ से रंग डालने का भी वर्णन हैै।

‘श्रृंगक’ यानि पिचकारी अपने आरंभिक रूप में श्रृंग (सींग) के नुकीले सिरेे में छेेद करके बनाई जाती थी, इसी से संस्कृत में यह श्रृंगक के नाम से जानी जाती हैै। वैसे ‘रत्‍नावली’ की पिचकारी बांस की बनी हैै, अर्थात् क़रीब हज़ार साल पहले हर्षदेव के समय में बांस की पिचकारियां बनने लगी थीं। अभी तीन दशक पहले तक गांवों में अधिकतर बांस से बनाई पिचकारी से ही होली खेलते थे, मुश्किल से एक दो लोगों के पास पीतल की पिचकारी होती थी।

हर्षदेव के समय का पिष्टातक भी आज दुकानों पर बिकने वाला अबीर-गुलाल नहीं था। यह तो रासायनिक रंग-एसिड स्कालेंट, ब्रिलियंट कोसीन या एसिड आरेंज-2 में से कोई एक होता हैै। मूलरूप में ये रंग ऊन, रेशम और चमड़़ा रंगने के काम आते हैैं। इसे ही चाक, अभ्रक, कैरम पाउडर, माड़ वगैरह मिलाकर हल्का करते हैै और अबीर-गुलाल के रूप में बाज़ार में बेच देते हैैं, जबकि पुराने समय में न आदमी में बनावट थी, न रंग ही बनावटी थे, मौसम के रंग में अपने को रंगने के लिए आदमी रंग भी प्रकृति से लेता था। रत्‍नावली के कृतिकार हर्षदेव के समय में अबीर पंतग या बक्कम नामक वृक्ष की छाल से निकाली जाती थी। इस पेड़ की छाल और लकड़ी में ‘ब्रेजिलियनज् नामक लाल द्रव्य पाया जाता है- उस समय अबीर का यही मुख्य स्रोत था। इस अबीर में सुगंध और मादकता लाने के लिए केसर मिलाया जाता था।

होली के लिए रंग तैयार करने का सर्व सुलभ स्रोत टेसू का फूल था। गांव के बड़े-बूढ़े बताते हैं कि अपने बचपन में वे ढाक यानि टेसू के फूलों को उबाल कर होली खेलने के लिए पक्का केसरिया रंग तैयार करते थे। केले के पत्तों को कूटकर हरा रंग बनाया जाता था, मजीठ या मजीष्‍ठा की जड़ों से लाल रंग निकलता था। खनिज रूप में कुछ रंग मिलते थे। पीपल, पाकड़ जैसे वृक्षों पर लगने वाली लाल रंग की क्रिमियों की लाह भी रंग बनाने के काम में लाई जाती थी। नील की तो यहां बड़े पैमाने पर खेती होती थी और करोड़़ों रुपये की नील देश से बाहर भेजी जाती थी।

मगर उन्नीसवीं शताब्दी में पश्‍चिम में हुुई औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप वस्‍त्र, काग़ज़, चमड़़ा, उद्योगों का तेज़ी से विकास हुुआ और रंग की बेतहाशा मांग बढ़ने लगी। प्राकृतिक रंगों से इसकी पूर्ति संभव ही न थी। लिहाज़ा कृत्रिम रंग विकसित करने के प्रयास शुरू हुुए। इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि पहला संश्‍लेषित रंग ‘मजेंटा’ जर्मन रसायनज्ञों ने 1856 ई. में कोलतार से तैयार किया था। जर्मनी के ही एडोल्फ फ़ोन बईएर ने सन् 1882 में नील की संचना निर्धारित की और वनस्पति नील के स्थान पर कृत्रिम नील का सिलसिला आरंभ हो गया।

यह भी पता चलता हैै कि भारत में सर्वप्रथम सन् 1867 में कृत्रिम ‘मजेंटा’ रंग जर्मन विक्रेता ले आये थे, भारतीय बाज़ार में इन विक्रेताओं ने अपना रंग चलाने के लिए तमाम छल भरेे हथकंडे भी अपनाए। यहां तक कि शुरू में तो रंगरेेजों को यह रंग मुफ्त भी बांटेे गये। बहरहाल आज यह संश्‍लेषित रंग इस क़दर अपना सिक्का जमा चुके हैैं कि यदि हम चाहेें तब भी इनसे बच नहीं सकते। होली में इनका प्रयोग होना ही हैै, अबीर-गुलाल वाले अम्लीय रंगों के अलावा क्षारीय रंग भी होली में खूब इस्तेमाल होते हैैं। इसमें गहरी चमक होती हैै तथा मूलत: यह ऊन, रेेशम जैसे प्रोटीन तंतुओं को रंगने और स्याही, रंगीन काग़ज़ व कार्बन पेपर बनाने के काम में लाए जाते हैैं। हल्के घोल के रूप में पिचकारी से तो इनका प्रयोग निरापद हैै, लेकिन सूखा या गाढ़़ेे रूप में इसे चुपड़ने से त्वचा में जलन और खुजलाहट के लक्षण प्रकट होने लगते हैैं, जो कभी-कभी हंसी-खुशी के उत्सव को दु:खमय बना देते हैैं। मिथेलवायलेट, विक्टोरिकया ब्ल्यू-2, मेलाकाइट ग्रीन जैसे क्षारीय रंग त्वचा पर स्थाई निशान छोड़़ सकते हैैं। कुछ ऐसे भी रंग होते हैैं, जिसमें पैराफिनिल डायमाइड और लेड आक्साइड की उच्च मात्रा होती हैै- इसकी घातकता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता हैै कि यदि इसे देर तक न साफ़ किया जाए तो शरीर पर श्‍वेत कुष्ठ के दाग़ बन सकते हैैं।

ऐसी स्थिति में रंगों का प्रयोग सीमित मात्रा में और कुछ सावधानियों के साथ ही श्रेयस्कर हैै। अबीर-गुलाल में मिला अभ्रक सिरदर्द लाता हैै और इसका अम्लीय अंश आंख की झिल्ली को ज़ख्‍़मी बना सकता हैै। इससे बचने का सीधा-सा उपाय हैै कि बीच-बीच में अबीर-गुलाल सावधानीपूर्वक झाड़कर मुंह धो लेना चाहिए, भरसक तो यह प्रयास करेें कि कोई गाढ़़ा रंग पोते ही नहीं। मगर किसी ने चुपड़़ ही दिया तो मौक़ा निकालकर सादे पानी से धो डालें। निश्‍चय ही सिर्फ़ इतनी-सी सावधानी रंग में भंग की नौबत नहीं आने देगी।

अंत में इतना ही, कभी होली कृष्ण के समान ललित मानी जाती थी किन्तु अब बदलते हालात में होली के साथ अश्‍लीलता, अशिष्टता और घिनौनापन जुड़़ चुका हैै। ग्रीस, मोबिल, तारकोल और नाली के कीचड़़ से होली खेलने वाले बढ़़ते जा रहेे हैैं। किशोरियों के दुपट्टेे खींचने और बुज़ुर्गों की टोपियां उछालकर मज़ा लेने वाले भी कम नहीं, सच कहा जाए तो ये तत्व होलीहार हैैं ही नहीं, हुुड़़दंगिए हैैं जिनमें बसंत का रस लेने की क्षमता ही नहीं हैै। होलीहार तो अपनी शालीन ठिठोली, मस्ती और उल्लास से प्रकृति की मादक अंगड़ाई की मिठास औरों में बांटता हैै इसलिए आप होलीहार ही रहेें हुुड़़दंगियों की जमात में अपना नाम न लिखाएं- यही बेहतर हैै।

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