सुरेन्‍द्र सिंह चौहान काका

सर्वप्रथम हम नमन करते हैं भारत के उन समस्त ज्ञात-अज्ञात शहीदों को जिन्होंने स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राण उत्सर्ग कर दिये। स्वतंत्रता आन्दोलन भारतीय इतिहास का वह युग है जो पीड़ा, कराहट, कड़वाहट, दंभ, आत्मसम्मान, गर्व, गौरव तथा सबसे अधिक शहीदों के लहू को समेटे है। स्वतंत्रता के इस महायज्ञ में समाज के प्रत्येक वर्ग ने अपने-अपने तरीक़े से बलिदान दिए और साहित्यकार तो सदा से ही चिंतन का स्रोत रहा है तो भला जिस युग में भारत के इतिहास के स्वर्णिम युग का निर्माण हो रहा हो, उस समय साहित्यकार कैसे तटस्थ रह सकता था।

स्वतंत्रता आन्‍दोलन के इस महायज्ञ में साहित्यकार ने तत्कालीन समाज में चेतना के वो बीज बोये जिनके अंकुरों की सुवास से सुवासित वृक्षों ने उस झंझावात को जन्म दिया जिसने समाज के हर वर्ग को इस आंदोलन में ला खड़ा किया।

गोपालदास व्यास के शब्दों में-

”आज़ादी के चरणों में जो जयमाला चढ़ाई जाएगी।

वह सुनो, तुम्हारे शीशों के फूलों से गूंथी जाएगी।“

यह सही है कि स्वतंत्रता आंदोलन के इसी दौर में माइकेल मधुसूदन ने बंगाली में, भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने हिन्दी में, नर्मद ने गुजराती में, चिपूलूंपणकर ने मराठी में, भारती ने तमिल में तथा अन्य अनेक साहित्यकारों ने विभिन्न भाषाओं में राष्‍ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण उत्कृष्‍ट साहित्य का सृजन किया।

इन साहित्यिक कृतियों ने भारतवासियों के हृदयों में सुधार व जागृति की उमंग उत्पन्न कर दी।

स्वतंत्रता के इस आंदोलन में भारतेन्दु हरिश्‍चन्‍द्र का नाम अग्रणी है। उन्होंने अपनी कविताओं में अंग्रेज़ी शासकों तथा अनेक अधिकारियों द्वारा की जाने वाली लूट-खसोट तथा अन्याय का तीव्र विरोध किया। उन्हें इस बात का बड़ा क्षोभ था कि अंग्रेज़ भारत की सारी सम्पत्ति लूटकर विदेश ले जा रहे हैं। उनकी लेखनी ‘भारत दुर्दशा’ से अवगत कराते हुए लिखती है-

“रोबहु सब मिलि, अबहु भारत भाई,

हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।“

‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ व्यंग्य के माध्यम से भारतेन्दु जी ने तत्कालीन राजाओं की निरंकुश अंधेरगर्दी, उनकी अराजकता और मूढ़ता पर व्यंग्य किया है।

प्रताप नारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी, राधाकृष्ण दास, ठाकुर जगमोहन सिंह, पं. अम्बिका दत्त व्यास, बाबू रामकृष्ण वर्मा आदि समस्त साहित्यकारों ने स्वतंत्रता आंदोलन की धधकती हुई ज्वाला को प्रचंड रूप दिया जिनकी रचनाओं ने राष्‍ट्रीयता के विकास में बहुत योगदान दिया। बंकिमचन्द्र ने ‘आनंद मठ’ व ‘वंदेमातरम्’ की रचना की जिन्होंने बंगाल में क्रांतिकारी राष्‍ट्रवाद की पाठ्य पुस्तक का कार्य किया।

माखन लाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और सुभद्रा कुमारी चौहान ने राष्‍ट्र प्रेम को ही मुखरित नहीं किया बल्कि आज़ादी की लड़ाई में भी भाग लिया। माखन लाल चतुर्वेदी ने फूल के माध्यम से अपनी देशभक्‍ति की भावना को व्यक्‍त किया:-

“चाह नहीं मैं सुरबाला के

गहनों में गूंथा जाऊं

चाह नहीं मैं प्रेमी माला में बिंध

प्यारी को ललचाऊं

मुझे तोड़ लेना ए वन माली

उस पथ पर देना फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने

जिस पथ जाएं वीर अनेक।“

राष्‍ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्‍त ने भारत-भारती के द्वारा राष्‍ट्रीयता का प्रचार-प्रसार कर भारत के रणबांकुरों को स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने सोई हुई भारतीयता को जगाते हुए कहा-

“जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है वह नर नहीं, पशु निरा है और मृतक समान है।“

तत्कालीन साहित्यकारों में शिरोमणि लेखक, क़लम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद्र की रचनाओं ने मृतप्राय: लोगों में भी प्राण फूंक दिए। उन्होंने अपने अधिकारों के प्रति उदासीन, फ़र्ज़ व अफ़सरशाही के बोझ तले दबे किसानों व दलितों में जन जागरण का ऐसा बिगुल बजाया कि भारतीय जनता हुंकार उठी और इसी साहित्य ने लोगों में सरफ़रोशी का जज्‍़बा भर दिया। मुंशी प्रेमचन्द की न जाने कितनी रचनाओं पर रोक लगी, न जाने कितना साहित्य जलाने की कोशिश की गई परन्तु उनकी लेखनी सदा एक सच्चे क्रांतिकारी की भांति स्वतंत्रता आंदोलन में विस्फोटक का कार्य करती रही।

मुंशी जी के पीछे अंग्रेज़ सरकार का खुफ़िया विभाग लगा रहा तथा उनकी रचना ‘सोज़े वतन’ के विषय में उन्‍हें तलब किया गया। नवाब राय की स्वीकृति पर उन्हें डराया-धमकाया गया तथा ‘सोज़े वतन’ की प्रतियां जला दी गई परन्तु एक सच्चे क्रांतिकारी की भांति अंग्रेज़ों की इस दमनकारी नीति से प्रभावित हुए बिना मुंशी प्रेमचंद की लेखनी इस आंदोलन में वैचारिक क्रांति उगलती रही।

“मैं विद्रोही हूं

जग में विद्रोह कराने आया हूं

क्रांति का सरल सुनहरा राग सुनाने आया हूं”

का शंख बजाने वाले कवि नीरज की उक्‍त पंक्‍तियों से ही उनका स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान स्पष्‍ट झलकता है। लोगों को ज़ुल्म के आगे न झुकने की प्रेरणा देते हुए नीरज ने कहा था-

“देखना है ज़ुल्म की रफ्‍़तार बढ़ती है कहां तक।

देखना है बम की बौछार है कहां तक।।”

इसी प्रकार ‘दिनकर’ की तूलिका ने ऐसे ही वीरों के स्वागत में लिखा-

“क़लम आज उनकी जय बोल

जला अस्थियां बारो-बारी

छिटकायी जिसने चिंगारी

जो चढ़ गए पुण्य देवी पर

लिए बिना गर्दन का मोल

क़लम आज उनकी जय बोल।”

कविवर प्रसाद ने लेखनी के द्वारा जनमानस को यह कहकर उद्वेलित किया-

“हिमाद्रि तुंग श्रृंग से

प्रबुद्ध शुद्ध भारती

स्वयंप्रभा समुज्जवला

स्वतंत्रता पुकारती।”

श्याम लाल गुप्‍त परिषद की लेखनी के साथ तो हर तरफ़ यही आवाज़ गूंज उठी-

“विजयी विश्‍व तिरंगा प्यारा

झंडा ऊंचा रहे हमारा।”

आज भी यज्ञ वही है, समिधा भी वही है, अतीत के प्रेतों को शांत करने के लिए मंत्रोच्चार का सिलसिला भी वही है पर आज आवश्यकता है उस क़लम के सिपाही की जो दम तोड़ती मानवता को पुन: जिला सके, जो मात्र निज स्वार्थ में लिप्‍त, भारतवासियों में भारत, भारतीयता व भारतीय गौरव की भावना का सृजन कर सके। आज केवल साहित्यकार ही धृष्‍ट व भ्रष्‍ट मानव को पुन: मानवीय मूल्यों की महत्ता पर चिन्तन करने को विवश करने में सक्षम है।

 

 

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