-बलदेव राज भारतीय

बुराई के प्रतीक रावण, कुंभकरण व मेघनाथ के पुतलों का आकार हर वर्ष बढ़ता जा रहा है। इन पुतलों के साथ बढ़ती जा रही है समाज में दुष्कर्म और अमानवीय व्यवहार की घटनाएं। ऐसा लगता है कि हम जितना ऊंचा पुतला रावण का जलाते हैं, उससे कहीं ऊंचा रावण हमारे मन के भीतर खड़ा हो जाता है। हम इन पुतलों को जलाकर और धू-धू करते रावण को जलता देखकर बहुत खुश होते हैं। हम सोचते हैं कि हमने बुराई के प्रतीक रावण, कुंभकरण व मेघनाथ को जलाकर भस्म कर दिया है। परंतु जब प्रतिदिन समाचार पत्रों में खून से लथपथ मानवता को तार-तार होने के समाचार देखते हैं तो मानव को सभी जीवों में सबसे सभ्य होने का श्रेय भरने को लेकर संदेह उत्पन्न होता है। मासूम बच्चियों की किलकारियां हृदय को विदीर्ण कर जाती हैं। वास्तव में मन के भीतर छुपे उस रावण को हम देख नहीं पाते। उस रावण का आकार इन पुतलों के आकार से भी कई गुना दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। हर वर्ष दशहरे पर हम जिन बुराई के प्रतीक पुतलों को जलाते हैं उनसे भी अधिक अति आवश्यक भीतर के रावण का दहन करना है। जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के हृदय के किसी न किसी कोने में एक भला इंसान छिपा होता है। उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में एक बुरा दानव भी हर समय मौक़ेे की ताक में रहता है। भला इंसान एक अच्छे कार्य के लिए या किसी बुरे कार्य को रोकने के लिए साहस करे या ना करे। मगर भीतर छिपा हुआ दानव बुराई का दुस्साहस करने के लिए हर क्षण तैयार बैठा है। यह सब समाज में बढ़ती संवेदनहीनता का दुष्परिणाम है।

यह संवेदनहीनता ही है जिसने मनुष्य को रिश्ते-नातों, आस-पड़ोस और समाज से दूर कर दिया है। आज परिवार की बुनियादी नींव हिल चुकी है। परिवार अब संयुक्त परिवार के छत्र से निकलकर एकल परिवार बनते जा रहे हैं। मोबाइल नामक बीमारी ने एकल परिवारों में भी संवाद को समाप्त कर दिया है। मोबाइल विज्ञान का वो आविष्कार है जो एक मित्र की भूमिका निभाता है। मित्र जब अच्छा हो या उसका अच्छाई के लिए प्रयोग किया जाए तो वह लाभप्रद होगा। परंतु यदि वह बुराई की ओर प्रेरित कर दे तो उससे बुरा भी कोई नहीं। जब समाज और घर-परिवार के साथ संवाद टूटता है तो हृदय के किसी कोने में कोई न कोई रावण पनपने लगता है। अपने संस्कारों से दूर होते मनुष्य के भीतर का रावण विशाल आकार ले लेता है। वहीं राम के आदर्श आज के मनुष्य को खोखले नज़र आते हैं। यदि ऐसा न होता तो शायद आज भारत में इतने वृद्धाश्रम न होते। माता-पिता की सेवा करना अब उसके संस्कारों से निकल गया है। माता-पिता जब तक कुछ कार्य कर रहे हैं तब तक ही उनकी सेवा की जाती है। नहीं तो बूढ़े बैलों की तरह माता-पिता भी बोझ लगने लगते हैं। दशहरा त्योहार मनाना तभी सार्थक सिद्ध हो सकता है, जब हम राम के आदर्शों को हृदय में धारण कर अपने भीतर जमे बैठे रावण का दहन करें।

आज हमें अपने त्योहार मनाने के उद्देश्यों को फिर से निर्धारित करना है। हमें बुराई के आसमान छूते प्रतीकों को दहन करते समय अपने भीतर बैठे कुटिल विचार रूपी दैत्यों का दहन करना होगा। बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतीक दशहरा पर्व पर संकल्प लेना होगा कि अपनी बुराइयों को एकदम सत्य और संकल्प रूपी अग्नि से दहन करें ताकि समाज कुत्सित विचारों को त्याग सात्विक विचारों को धारण कर प्रगति की ओर अग्रसर हो।

One comment

  1. WONDERFUL Post.thanks for share..more wait .. ?

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