-विभा प्रकाश श्रीवास्तव

असत्य पर सत्य की जीत को प्रतिबिंबित करने वाले रावण वध की गहराई में जाएं, तो घटना सहज ही नारी केंद्रित हो जाती है। दासी मंथरा और माता कैकेई की कुटिल चालों के षड्यंत्र का शिकार होकर राम-लक्ष्मण औश्र जानकी चौदह वर्ष की लंबी अवधि के लिए जंगल-जंगल भटकने को बाध्य होते हैं। रावण की बहन शूर्पणखा बलिष्ठ लक्ष्मण की सुंदरता पर मोहित हो गई। अनुचित इच्छा-पूर्ति के लिए तंग किए जाने से कुपित लक्ष्मण ने उसकी नाक काट दी। क्रोधित शूर्पणखा ने लंकेश को अपनी दुर्गति का वृतांत इस प्रकार सुनाया कि एक विद्वान, धर्मनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ, दार्शनिक व शूरवीर अपना आपा खो बैठा।

ब्राह्मण कुल में पैदा होने व आर्य संस्कृति में शिक्षा-दीक्षा पाने वाला अतुल ज्ञानी रावण इतना नीचे गिर गया कि उसने पर-स्त्री का छल से हरण कर लिया। सीताहरण की घटना ने आर्य जाति के मान-सम्मान पर जो चोट की, रावण वध के बाद भी उसके दर्द का एहसास कम नहीं हुआ। विडंबना यह भी थी कि पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी का दर्जा कम होने के कारण पुरुषोत्तम कहे जाने वाले राम ने पवित्र सीता को अग्नि परीक्षा में खरा उतरने के बावजूद स्वीकार नहीं किया। क्या मिला सीता को? शुरू से अंत तक दु:ख, पीड़ा व तिरस्कार।

संपूर्ण घटनाक्रम के लिए कैकेई, मंथरा, सीता और शूर्पणखा को मुख्य रूप से दोषी ठहराया जाता है, किंतु क्या वास्तव में केवल ये महिलाएं दोषी हैं? क्या मंथरा जैसी योग्य दासी द्वारा रानी कैकेई व उसके पुत्र भरत के हितों को अनदेखा किए जाने की अपेक्षा करना बेईमानी नहीं है? यह सही है कि कैकेई राम को बहुत प्रेम करती थी, किंतु क्या यह इस बात की दलील है कि ममत्व अपने सगे पुत्र को मिल सकने वाले सुअवसर का लाभ न उठाए। मंथरा और कैकेई की मंत्रणा ने जो हालात पैदा किए, उसके तहत राम का वन गमन निश्चित था। सीता पति धर्म निभाने व लक्ष्मण भ्रातृत्व की भावना से मजबूर होकर साथ गए। शूर्पणखा का लक्ष्मण पर आसक्त होना, जहां उसके अपने वश में नहीं था, वहीं लक्ष्मण का किसी पराई स्त्री पर दृष्टिपात धर्म व मानवीय मूल्यों के विपरीत था। इच्छा-पूर्ति के अभाव में कामांध शूर्पणखा का प्रेम, दंडित होने के बाद चंडी रूप धारण कर लेता है। प्रेम व प्रतिरोध नारी के विशेष गुण हैं जिनकी बदौलत वह किसी भी शक्ति से टकरा सकती है। भाई-बहन के नाज़ुक रिश्ते व अपमान की इस घटना ने रावण के भीतर के रावणत्व को जगा दिया। रावण ने प्रतिरोध में जो पाप किया, वह अत्यधिक क्रोध का ही परिणाम था।

रावण की मृत्यु के बाद यह अपेक्षा की गई थी कि अब किसी पर अत्याचार नहीं होगा, न किसी युवती का अपहरण होगा और न ही किसी का शील भंग किया जाएगा। रावणत्व पर रामत्व की जीत के बाद कल्पना निरर्थक भी नहीं थी, किंतु प्रत्येक वर्ष दशहरे के अवसर पर रावण के हज़ारों पुतले जलाए जाने के बाद भी रावण फल-फूल रहा है, क्या राम के हाथों मारा गया रावण पुन: जीवित हो गया है, दरअसल, उस समय राम के हाथों रावण की हत्या तो हुई थी, किन्तु रावणत्व जीवित रह गया था। क्या सीता का परित्याग रावणत्व के बग़ैर संभव था, तत्कालीन रावण ने एक भूल की थी, किंतु आज का कथित मानुष खोट व बुराई का पुलिंदा है। यह सीता-हरण के पाप की सज़ा में प्राण देने वाले अहंकारी रावण से अधिक बलशाली हो गया है। रावण का सिर कट जाने के बाद नया सिर उग आने के कारण अजेय रावण को दंडित करने के लिए अग्निबाण का प्रयोग किया गया था। वर्तमान में रावण का सिर काटने वाला कोई राम नहीं है। यदि कोई इस दिशा में प्रयास भी करे तो आधुनिक रावण के शरीर में अमृत की स्थिति का सही बहाव न होने से क़ामयाबी मिलना मुश्किल है। कभी रावण का क्षेत्र सीमित था, किंतु आज न उसका स्थान सीमित है और न वह अकेला है। रावणत्व के चलते घर की चारदीवारी में बंद रहने वाली महिला तक सुरक्षित नहीं है। सगे-संबंधियों द्वारा व्यभिचार व उत्पीड़न की शर्मनाक घटनाएं नित्य अख़बारों में छप रही हैं।

बार-बार बलात्कार की घटनाएं होना रावणत्व के बढ़ते प्रताप का ही उदहारण है। बलात्कार ही क्या, दहेज हत्या, चोरी, डकैती, अपहरण, रिश्वत व हत्याओं के ऊंचे ग्राफ़, घोटाला संस्कृति की बढ़ती लोकप्रियता तथा आतंकवाद व देशद्रोह के षड्यंत्रों में लिप्त मानव ने अहिरावण, ताड़का, मारीच व रावण के क़द को बौना कर दिया है। राक्षसी आतंक को मात देने वाले इस मनुष्य का कोई भी रूप औश्र पद हो सकता है। भौतिक, आर्थिक, सैनिक, राजनीतिक व अंतरिक्ष बल की बदौलत दुनिया पर अपना वर्चस्व स्थापित करने वाले अमेरिका का आतंक लाइलाज है। रुतबा ऊंचा रखने का वह दंभ, जिसने शक्तिशाली, अजेय, प्रतिज्ञावान नीति वेद के ज्ञाता को सदैव-सदैव के लिए घृणित बना दिया, आज भी जीवित है। यही कारण है कि अन्याय को न्याय, उल्लंघन को अधिकार, अधर्म को धर्म, पशुत्व को मनुष्यत्व तथा दुष्कर्म को सत्कर्म समझने वालों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। सत्ता के नशे में चूर रहने वालों को हर हालत में सत्ता चाहिए। देश व देशवासियों की चिंता-सुरक्षा से अधिक अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले देश के दुश्मन सब जगह मौजूद हैं। कभी पंजाब में रावणत्व उभरता है, तो कभी कश्मीर में आतंकी-नृत्य करने वाले निर्दयी, पत्थर दिल दुश्मन के हाथों का खिलौना बन, मानव रक्त से होली खेलते हैं। कहीं सुरक्षा उपकरणों में विदेशी कमीशन खाने वाले दलाल हैं तो कहीं खाद, खाद्य पदार्थ, औषधि, आवास दूरभाष व पेट्रोलियम आदि के घोटाले में निज स्वार्थ सर्वोपरि रखा गया है। जनजीवन से खिलवाड़ मनोरंजन बन गया है। रावण लीला का बोलबाला है।

रामलीलाओं का मंच तक रावणत्व से अछूता नहीं है। राम का अभिनय हो या रावण का, मदिरापान के द्वारा पात्र को जीवंत करने की चेष्टा की जाती है। इतना ही नहीं, स्टेज पर भोंडे नृत्य रामलीला को रासलीला में बदल देते हैं। रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के विशालकाय जलते पुतलों से कोई सीख लेने की बजाय इसे मात्र मनोरंजन और वार्षिक औपचारिकता माना जाने लगा है। यह भी अटूट सत्य है कि मनुष्य में अच्छाई-बुराई का अनुपात घटता-बढ़ता रहता है, किंतु आत्म-विश्लेषण मनुष्य के गुण-दोष स्पष्ट कर, उसे सफल जीवन का सीधा मार्ग दिखाता है।

गौरतलब है कि रावणत्व का वृक्ष फल-फूल रहा है, इसका शिखर आकाश में व जड़ पाताल में है। केवल शाखाएं तोड़ देने या प्रांकुर काट देने से इसकी समाप्ति मुमकिन नहीं। ऐसा करने से इसका आकार और बड़ा हो जाएगा। इसे पूर्णतया नष्ट करने के लिए समूल उखाड़ना होगा। यह कार्य राम के अतिरिक्त और कौन कर सकता है? राम को फिर आना होगा। यदि यह संभव नहीं हुआ, तब राजनीति, विधि, न्याय व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अपने परिवेश में पनप रहे रावणत्व को समाप्त करना मुश्किल हो जाएगा।

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