-विजय उपाध्याय
आग की लपटों से धू-धू कर जल रहा था। मौन दर्शकों के हजूम में एक दुखियारी मां की चीखें ही सर्वत्र गूंज रही थी … कोई बचा ले मेरे बुढ़ापे के सहारे को … अरे! बच्चा आग में ज़िंदा जल जाएगा, कोई तो आग से निकाल कर ले आए उसे … आग की लपटें भयंकर होती जा रही थीं। बच्चा अंदर आंखें मसलता खांसता हुआ धुएं में हाथ-पैर मार कर बाहर निकलने का भरसक प्रयास कर रहा था।
अचानक मूक दर्शकों की भीड़ को चीरते हुए एक नौजवान लपटों से बचाव करता हुआ बच्चे को बाहर निकालने भिड़ गया। अरे! ए देखो … इस लंगड़ू को कहां मरने कूद पड़ा अपना बोझ तो अपनी टागों पर उठा नहीं सकता- बैसाखियों के सहारे बेवकूफ़ व्यर्थ आग से जूझ रहा है। तमाशाइयों की ऐसी खिच-खिचाहट उसे आग की लपटों से भी ज़्यादा जलन दे रही थी। क़रीब आधे घण्टे तक आग से जूझने के बाद वह बच्चे को बाहर लाने में क़ामयाब हो ही गया। बेहोश बच्चे को जल्द अस्पताल पहुंचाने के लिए भीड़ को पीछे हटाते हुए रास्ता देने की अपील करने लगा। मसख़रे पुनः चटखारे लेने लगे अबे! ए … दे दो न इस लंगड़ूदीन हीरो को साइड। तथाकथित सभ्य समाज के ज़ोरदार ठहाके गूंजे जैसे कोई लतीफ़ा ख़त्म हुआ हो। नवयुवक ठिठका, आक्रोष भरे स्वर में बोला- हां-हां विकलांग हूं तुम्हारे समाज में- शारीरिक विकलांग, मानसिक विकलांग नहीं। अगर मुझे भी कभी ऐसे किसी ने बचाया होता तो शायद मानसिक विकलांगों के बीच आज यह शारीरिक विकलांग न होता। युवक की बात पूरी होने से पहले ही मानसिक विकलांग ऐसे तितर-बितर हो गये जैसे कोई शो ख़त्म हुआ हो।