भारत ही नहीं विश्व के कई अन्य देशों में भी औरत को दोयम दर्जे का प्राणी समझकर उसे मात्र भोग की वस्तु समझा गया है। उस पर धार्मिक, सामाजिक, नैतिक तथा राजनैतिक परम्पराओं की आड़ में जो ज़ुल्मोसितम ढाए जा रहे हैं वे किसी से छिपे नहीं हैं। औरत की इस दुर्दशा तथा उस पर हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द कर बंगला देश की लेखिका डॉ. तस्लीमा नसरीन ने अपनी पहचान भी बनाई है और धार्मिक उन्मादियों से अपने जीवन को ख़तरे में डाल कर जलावतनी जीवन भी गुज़ार रही हैं।
पूर्वी पाकिस्तान के मेमन सिंह स्थान पर डॉ. रजाब अली के घर 25 अगस्त, 1962 को पैदा हुई तस्लीमा नसरीन को इस्लाम की सूफ़ी परम्पराओं का निर्वाह करने वाला घरेलू वातावरण मिला। 1984 में बंगलादेश में ही एम. बी. बी. एस. की डिग्री हासिल करने के बाद रॉयल काॅलेज ऑफ सर्जन से एफ. आर. सी. एस. की।
शिक्षा प्राप्ति के दौरान ही उन्हें कविताएं लिखने का शौक़ रहा। इसके साथ-साथ उन्होंने कुछ अख़बारों में नियमित कॉलम लिखने शुरू किये। एक डॉक्टर के तौर पर उन्होंने कई 7-8 वर्ष से लेकर 50-60 वर्ष तक की बलात्कार की गयी औरतों का इलाज किया। इतना ही नहीं अपनी युवावस्था में उन्हें भी अपने ही एक रिश्तेदार द्वारा बलात्कार किये जाने का कटु अनुभव हुआ था जिसकी पीड़ा और टीस ने उन्हें औरतों पर हो रहे ज़ुल्मों तथा दु:खों को कलम के माध्यम से कहने पर मजबूर किया।
उन्होंने औरतों के साथ बलात्कार, उन पर तेज़ाब फेंकना, दहेज़ के लिए मार देना, नाबालिग लड़कियों को अधेड़ मर्दों की पत्नी-रखैल बना कर शारीरिक शोषण, वेश्या गमनों के लिए मजबूर कर देना जैसी अमानुषिक बातों को अपने कॉलमों का विषय बनाया। डॉ. नसरीन द्वारा की गयी इस आलोचना से न सिर्फ़ प्रभावशाली लोगों तथा धर्म के ठेकेदारों को ठेस पहुंची उन्होंने प्रतिक्रियास्वरूप सम्पादक से मारपीट की और उसके कार्यालय पर हमला बोल दिया। डॉ. नसरीन पर भी शारीरिक हमले हुए। उनके लिए उन कॉलमों में लिखना मुश्किल हो गया पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बेशक उनके अपने मुल्क में उनका साथ देने वाला कोई लेखक, दोस्त, रिश्तेदार खड़ा नहीं हुआ। उनके कारण उनके परिवार वालों को भी कट्टरपंथियों तथा धार्मिक उन्मादियों का निशाना बनना पड़ा। लेकिन डॉ. नसरीन की आवाज़ बंगलादेश से निकल कर दुनिया के अन्य देशों में पहुंच गयी।
डॉ. तस्लीमा नसरीन ने धार्मिक ग्रंथ क़ुरान-शरीफ़ में औरतों के लिए दिये गये अधिकारों की बात की। वहां औरतों के लिए पर्दा प्रथा के अनुसार बुर्क़ा आवश्यक नहीं है- इस कथन ने कट्टरपंथियों में बवाल पैदा कर दिया। सबसे ज़्यादा परेशानी उन्हें डॉ. नसरीन द्वारा भारत में 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने पर बंगलादेश के मुस्लिमों द्वारा अल्पसंख्यक हिन्दू परिवारों पर हुए हमलों तथा एक मुस्लिम परिवार द्वारा उन्हें बचाने के विषय पर आधारित उपन्यास ‘‘लज्जा’’ (1993) से हुई।
लज्जा उपन्यास न सिर्फ़ उनके अपने देश में प्रतिबंधित हुआ, उन पर हमले हुए तथा डॉ. तस्लीमा को मारने के लिए 50 हज़ार टके का इनाम घोषित किया गया। 1993 में ही पांच हज़ार विरोधियों ने डॉ. तस्लीमा को मृत्युदंड देने हेतु ढाका की ओर मार्च किया। हड़ताल हुई। टकराव में एक नागरिक मारा गया। दो सौ से अधिक ज़ख़्मी हो गये।
देश भर में चली विरोध की लहर, दंगों और अपनी जान के ख़तरे को देखते हुए उन्हें रातों-रात अपना घर, अपना मुल्क छोड़ कर ‘स्वीडन’ में पनाह लेनी पड़ी। इस प्रकार बेघर हुई डॉ. तस्लीमा को न्यूयार्क, लंदन, कैनेडा, स्पेन, इटली और भारत सहित कई देशों में प्रवास करना पड़ा है।
भारत में भी कलकत्ता प्रवास के दौरान उनको कट्टरवादियों ने निशाना बनाया। 9 अगस्त, 2007 को हैदराबाद के प्रेस क्लब में उनकी पुस्तक के विमोचन के अवसर पर भी कट्टरपंथियों ने हमला कर दिया। दंगे भड़कने के डर से फ़ौज बुलानी पड़ी और एक रात कर्फ़्यु भी लगाना पड़ा। फिर फरवरी, 2008 को भारत सरकार की सलाह पर सुरक्षा कारणों तथा भारत में अमन-शांति क़ायम रखने की गर्ज से उन्हें भारत से चले जाने की सलाह दी गयी और न चाहते हुए भी डॉ. तस्लीमा 17 मार्च, 2008 को पुन: स्वीडन के लिए रवाना हो गयी।
डॉ. तस्लीमा नसरीन के अब तक 16 कविता संग्रह, 4 निबंध संग्रह, 7 उपन्यास,7 आत्मकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से लज्जा सहित 6 पुस्तकें प्रतिबंधित हैं।
डॉ. तस्लीमा की रचनाओं का जहां ज़बरदस्त विरोध हुआ है वहीं उनकी लेखनी को कई देशों ने मान्यता देते हुए न सिर्फ़ उन्हें सराहा बल्कि सर्वोच्च पुरस्कारों व सम्मानों से नवाज़ा भी है। सन् 2005 में उनका नाम नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया लेकिन वह यह इनाम प्राप्त न कर सकीं। 2004 में युनेस्को प्राइज़ फॉर टोलरेन्स एंड नॉन वायलेंस दिया गया। उन्हें भारत का प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘आनंद पुरस्कार’ भी मिला। बंगलादेश का नाटयस्बा, यूरोप पार्लियामेंट का सखारोव प्राइज़ फॉर फ्रीडम, फ्रैंच गवर्नमेंट हयूमन राइट एवॉर्ड, स्वीडन का पेनस कर्ट टूकोलस्की प्राइज़, नार्वे हयूमनिस्ट एवॉर्ड तथा 1994 में फ्रीडम फ्रॉम रिलीजन फ़ाउन्डेशन फेमनिस्ट एवॉर्ड आदि अर्न्तराष्ट्रीय पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।
डॉ. तस्लीमा नसरीन के विचारों में-
-कट्टरवादी समाज का विनाश कर रहे हैं। बहुसंख्यक मूक उन से डरते हैं। वे ईश्वर के नाम पर कुछ भी कर सकते हैं। प्रगतिवादी लोग अच्छे ढंग से संगठित नहीं हैं।
-मुस्लिम मर्दों के बारे में वे लिखती हैं- लम्बे बालों व दाढ़ियों वाले मर्द धन और औरत के प्रति हमेशा अपनी भूख प्रदर्शित करते हैं।
एक साक्षात्कार में डॉ. तस्लीमा ने कहा-
-मैंने कई बार कहा है शरीअत कानून बदल देना चाहिए। मैं एक आधुनिक सभ्यक कानून चाहती हूं जो औरतों को बराबरी के अधिकार प्रदान करे। मैं कोई ऐसा धार्मिक कानून नहीं चाहती जो औरतों के साथ अन्यायपूर्ण भेद करे। एक आदमी को चार पत्नियां रखने का हक़ क्यों? लड़के को अपने पैतृक सम्पत्ति से 2/3 तथा लड़की को केवल 1/3 भाग क्यों? क्या मुझे ऐसा कहने पर मार देना चाहिए।
-औरत द्वारा दूसरा विवाह इस्लाम के विरुद्घ है। अगर वह ऐसा क़दम उठाती है तो उसे ज़िंदा जला दिया जाता है। उसे सरेआम संगसार करके मृत्युदंड दिया जाता है जबकि मर्दाें को ये सब अधिकार प्राप्त हैं।
-मैंने धर्म विहीन समाज की कल्पना की है। धर्म से कट्टरवाद पैदा होता है जैसे बीज से पेड़ पैदा होते हैं। हम वृक्ष को काट कर गिरा सकते हैं यदि बीज बच गये तो नया पेड़ पैदा हो जाएगा। जब तक बीज रहेंगे हम कट्टरवाद को जड़ से नहीं उखाड़ सकते।
-इन्सानियत पश्चिमी, पूर्वी, उत्तरी अथवा दक्षिणी नहीं होती। इन्सानियत तो इन्सानियत है। जो लोग मेरा विरोध करते हैं मैं हैरान हूं कि वे असमानता तथा अन्याय के विरुद्घ प्रोटेस्ट क्यों नहीं करते। मैंने उस व्यवस्था के विरुद्घ प्रोटेस्ट किया है जो औरत के विरुद्घ है। मैंने कई बार देखा है परम्परा के नाम पर समाज औरत को नज़र अंदाज़ करके गुलाम रखना चाहता है। मैंने बचपन से ही महसूस किया है कि औरत को बच्चे पैदा करने वाली मशीन तथा भोग की वस्तु से ज़्यादा कुछ भी नहीं समझा गया है।
-हरेक धर्म औरत को दबाना चाहता है। अगर कोई धर्म औरत को सजा देता है, नज़र अंदाज़ करता है, गुलाम बनाता है मैं ऐसे धर्म को स्वीकार नहीं कर सकती। धर्म का बैरियर क्रॉस किए बिना औरत को आज़ादी हासिल होना सम्भव नहीं है। अपनी आज़ादी भोगना और औरत के साथ गुलामों जैसा व्यवहार करने वालों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द करना कोई अपराध नहीं है। ‘‘धर्म का नाम इन्सानियत होना चाहिए।’’
मैं लोगों की परवाह नहीं करती कि वे मुझे क्या कहते हैं। अगर तुम एक अच्छे इन्सान बनना चाहते हो तो तुम्हें सोसायटी की आंख में ‘बुरा’ बनना होगा। अगर तुम बुरा नहीं बनना चाहते तो तुम कभी भी सच्चे, मज़बूत और स्वतन्त्र इन्सान नहीं हो सकते।