-शबनम शर्मा

आज दिव्या दोपहर में अपने कमरे में गई, लेकिन अभी शाम के 8 बजने को आये, बाहर नहीं निकली। ये बच्ची हमारे पड़ोस में ही रहती है। मैं अपना काम निबटाकर बाहर निकली तो उसकी मम्मी से राम सलाम हुई। वो मुझे आज कुछ खिन्न सी नज़र आई। मैंने कारण पूछा तो उसने बताया कि उसकी बेटी का रिज़ल्ट आया है, वो अपनी कक्षा में प्रथम आई है। उसने आगे पढ़ने की इच्छा प्रकट की है। लेकिन उनकी जाति में ज़्यादा पढ़े-लिखे लड़के नहीं मिलते। वो मुझसे पूछने लगी, ‘‘बताओ, बहन जी, अब ऐसे हालात में अगर मैं उसे पढ़ा दूँ, तो ये सारी उम्र इस घर पर ही बैठी रहेगी, आज दोपहर से कमरा बंद करके बैठी है, रोये जा रही है। न कुछ खाया, न नीचे आई है।’’ उसकी बात सुनकर मुझे एक झटका लगा। मैं अपनी पड़ोसिन को अपने घर ले आई। वह बहुत दुविधा में थी। घर वालों का दबाव, बच्चे का प्यार, उसका भविष्य सब कुछ उनके चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा था। मैंने कुछ देर इधर-उधर की बातचीत करके उन्हें सहज करने की कोशिश की फिर कहा, ‘‘देखो दिव्या की मम्मी, हम और आप बरसों से अपनी गृहस्थी चला रहे हैं, कितने उतार-चढ़ाव इसमें देखने पड़ते हैं। आप मुझे बताओ कौन सा रिश्तेदार मदद करने या हमारी समस्या को सुलझाने आया? और हाँ, हम किसकी गृहस्थी में कुछ निपटाने गये? सबको अपनी-अपनी ज़िन्दगी खुद ही निपटानी होती है। दिव्या आपकी बेटी है और आजकल बेटा-बेटी में क्या फ़र्क़? उसे पढ़ाओ और एक अच्छा अफ़सर बनाओ, बिन जाति-पाति देखे अनगिनत रिश्ते आएँगे। एक अच्छा लड़का देखकर शादी कर देना। अगर आपकी जाति में लड़के नहीं पढ़ते तो इसमें दिव्या का क्या कसूर? वो लाखों में एक है। आगे आपकी मर्ज़ी।’’ वो एकटक मेरी ओर देखती रही और मेरा हाथ थामकर तेज़ी से अपने घर की ओर ले गई, भरी आँखों से दिव्या के कमरे की ओर चल दीं। दरवाज़ा खटखटाया, दिव्या ने दरवाज़ा खोला। आँखें सूजी, चेहरा पीला हुआ पड़ा था। माँ ने उसे बाँहों में भरा और बोली, ‘‘बेटी, पोंछ दे अपने आँसू मैं तुझे पढ़ाई कराऊँगी, भले ही लोग कुछ भी कहें। तेरी आंटी ने मेरी आँखें खोल दीं।’’ दिव्या खुशी से और भी ज़ोर से रोने लगी और बोली, ‘‘सच माँ, थैंक यू आँटी, थैंक यू।’’

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